B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

निर्देशन के सिद्धान्त |Nirdeshan Ke Sidhhant in Hindi | Principles of Guidance in Hindi

निर्देशन के सिद्धान्त
निर्देशन के सिद्धान्त

अनुक्रम (Contents)

निर्देशन के सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।

अथवा

निर्देशन की प्रक्रिया को संचालित करने वाले आधारों का वर्णन कीजिए।

निर्देशन के सिद्धान्त पर विचार करने के पूर्व इसकी मूलभूत अवधारणाओं का अध्ययन करना उचित होगा। एक बात स्पष्ट है कि निर्देशन व्यक्ति के वैयक्तिक विकास पर अधिक जोर देता है। एक व्यक्ति अपनी निजी योग्यताओं, क्षमताओं, आकांक्षाओं अभियोग्यताओं तथा अपने परिवेश विशेष के अनुसार किस प्रकार अपना सर्वोत्तम विकास कर सकता है, इसमें सहायता करना ही निर्देशन का अभीष्ट कार्य है। इस आधार पर निर्देशन की निम्नलिखित मूलभूत अवधारणाएँ प्रकाश में आती हैं-

1. प्रत्येक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से किसी न किसी रूप में भिन्न अवश्य होता है।

2. वैयक्तिक विकास करना प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा का एक अनिवार्य अंग है।

3. प्रत्येक व्यक्ति का अपने परिवेश और समाज के लिए उत्तरदायी होना आवश्यक है।

4. समाज में सभी सदस्यों का स्वस्थ समायोजन किया जाना चाहिए।

5. व्यक्ति के पूर्ण विकास में उसके वैयक्तिक विकास तथा सामाजिक विकास में एक सन्तुलन होना बहुत आवश्यक है।

6. शैक्षिक तकनीकी की दृष्टि से व्यक्ति की योग्यताओं का मापन किया जा सकता है और उसके भावी विकास के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है।

7. अनुदेशन प्रणाली के द्वारा मनुष्य के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाये जा सकते हैं, जो वैज्ञानिक जीवन शैली के लिए आवश्यक हैं।

उक्त संकल्पनाओं के परिप्रेक्ष्य में अब हम उन सिद्धान्तों का विवेचन कर सकते हैं, जिनके आधार पर निर्देशन की प्रक्रिया का संचालन किया जाता है। निर्देशन के सिद्धान्त के क्षेत्र में को एण्ड को के कार्यों का विशेष महत्त्व है। उन्होंने अपनी पुस्तक “एन इण्ट्रोडक्शन टु गाइडेन्स” में निर्देशन के चौदह सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। किन्तु इस क्षेत्र में जोन्स, ट्रेक्सलर, गुड, लूफेवर एवं टलेस आदि के योगदान को भी कम करके नहीं देखा जा सकता है। अत: नीचे हम निर्देशन के कुछ ऐसे सर्वमान्य सिद्धान्तों का वर्णन करेंगे जो इस क्षेत्र में बहुसंख्य विद्वानों के सम्मिलित विचारों की कसौटी पर खरे कहे जा सकते हैं-

वैयक्तिक अस्तित्त्व की स्वीकृति-

यह ठीक है कि व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है, किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि व्यक्ति के बिना समाज का कोई अस्तित्त्व नहीं है। अनेक व्यक्ति मिलकर समाज का निर्माण करते हैं। अत: व्यक्ति के अस्तित्त्व को स्वीकार करना और उसे प्रतिष्ठित करना समाज का कर्त्तव्य है। निर्देशन की प्रक्रिया व्यक्ति की निजी योग्यता रुचियों, आकांक्षाओं और अभियोग्यताओं के अस्तित्त्व को स्वीकार करने उसे चरम विकास तक पहुँचाने में सहायता करती है।

सतत् चलने वाली प्रक्रिया-

कोठारी कमीशन में अपने प्रतिवेदन में यह कहा था कि निर्देशन एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरन्तर चलती रहती है, अत: इसे आयु और काल की सीमाओं में नहीं बांधा जाना चाहिए। जीवन के किसी भी मोड़ पर यदि आवश्यक हो तो निर्देशन का उपयोग किया जाना चाहिए। शिक्षा-प्राप्ति बाद व्यवसाय, प्रौढ़ावस्था, सेवानिवृत्ति, अवकाश और वृद्धावस्था आदि में स्वाभाविक रूप में मनुष्य को सतत् निर्देशन की आवश्यकता पड़ती रहती है।

सर्वांगीण विकास का सिद्धान्त-

निर्देशन के अन्तर्गत किसी व्यक्ति के निजी विकास पर ध्यान अवश्य दिया जाता है, किन्तु परोक्ष रूप से यह कार्य उसके सर्वांगीण विकास पर ही आधारित होता है। सर्वांगीण विकास के अन्तर्गत व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक, भौतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास आता है। इन सभी क्षेत्रों में एक सन्तुलन बनाकर विकसित होने वाला व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में एक सफल नागरिक कहा जा सकता है। अत: निर्देशन इस दिशा में भी पर्याप्त योगदान करता है।

शैक्षिक तकनीकी के उपयोग का सिद्धान्त-

निर्देशन और शिक्षा में शैक्षिक तकनीकी का प्रयोग आज के युग का एक अनिवार्य आवश्यकता है। मनोवैज्ञानिक निर्देशन के लिए आज शिक्षण मशीन, टी.वी., टेपरिकार्डर, वीडियो टेप, कम्प्यूटर और ई-मेल आदि आधुनिक साधनों का उपयोग बहुत लाभदायक हो सकता है। इन उपकरणों के माध्यम से निर्देशन प्राप्त करने वाले को तीव्रगति से बड़ी मात्रा में वांछित सूचनाएं प्रदान की जा सकती है, जिससे निर्देशन देने वाले तथा लेने वाले का पर्याप्त समय, श्रम व धन बचाया जा सकता है तथा निर्देशन पद्धति को अधिक वस्तुनिष्ठ और वैज्ञानिक बनाया जा सकता है।

सभी के लिए उपयुक्त निर्देशन-

निर्देशन के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह किसी वर्ग विशेष, आयु विशेष अथवा छात्रों और कर्मचारियों के लिए ही प्रदान किया जाय। ऐसा भी होना चाहिए कि निर्देशन तभी दिया जाय, जब व्यक्ति किसी समस्या से ग्रसित हो। वस्तुत: यह प्रक्रिया सामान्य रूप से सभी प्रकार के लोगों पर अपनायी जानी चाहिए। किन्तु इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि निर्देशन की विषय-वस्तु और क्रिया विधि व्यक्तियों की विशिष्ट शारीरिक-बौद्धिक क्षमता के अनुसार ही निर्धारित की जाये।

गोपनीयता का सिद्धान्त-

निर्देशन की प्रक्रिया के दौरान कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ भी आ जाती हैं। जब निर्देशन प्राप्त करने वाले व्यक्ति से सम्बन्धित कुछ सूचनाओं को गोपनीय रखना पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में निर्देशित व्यक्ति को विश्वास में लेने के लिए उसे यह भरोसा दिलाया जाता है कि उसके द्वारा दी गयी सूचनाओं को गोपनीय रखा जायेगा।

स्वनिर्देशन की योग्यता का विकास-

निर्देशन का वास्तविक कार्य व्यक्ति के अन्दर इतनी क्षमता उत्पन्न कर देना है कि वह अपने लिए उचित-अनुचित का फैसला स्व-विवेक से करने में सक्षम हो सके। ट्रेक्सलर ने अपनी परिभाषा देते हुए कहा भी है कि, “अन्त में वह सामाजिक व्यवस्था के एक ऐसे पूर्ण एवं परिपक्व वांछित सदस्य के रूप में स्थापित हो जाता है, जो स्वयं अपना निर्देशन करने में समर्थ होता है।”

व्यक्तिगत विभिन्नताओं का सिद्धान्त-

कोई भी व्यक्ति तभी वास्तविक प्रगति कर सकता है, जब उसका विकास उसकी व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार किया गया हो। फ्रोबेल, पेस्टालाजी, रूसो आदि महान सन्तों और मनीषियों ने इसी सिद्धान्त को अपनाते हुए छात्र-केन्द्रित शिक्षा-प्रणाली का समर्थन किया है। प्लेटो तो इस सिद्धान्त को सर्वाधिक महत्त्व देने वाला दार्शनिक था। अतः निर्देशन कार्य भी व्यक्ति की निजी रुचियों, आवश्यकताओं, क्षमताओं तथा अभियोग्यताओं के अनुरूप किया जाना चाहिए।

निर्देशन की आचार संहिता का सिद्धान्त-

कभी-कभी कोई समस्याग्रस्त व्यक्ति निर्देशन प्रदान करने वाले को अपनी समस्या से सम्बन्धित वास्तविक सूचनाएं देने में संकोच का अनुभव करता है। ऐसी परिस्थिति में यदि निर्देशन देने वाला प्रशिक्षित हो और पीड़ित व्यक्ति को विश्वास में लेने में सक्षम हो तो निर्देशन की प्रक्रिया आसान हो जाती है। ऐसी स्थिति में निर्देशित व्यक्ति को यह जानकारी होना भी बहुत आवश्यक है कि निर्देशन देने और लेने की क्या आचार-संहिता है? अत: ऐसी कोई व्यावहारिक नियमावली होनी चाहिए जो निर्देशक और निर्देशित दोनों का आत्म-विश्वास कायम रखने में सहायक हो।

प्रशिक्षण का सिद्धान्त-

निर्देशन एक जटिल प्रक्रिया है। इसमें निर्देशनकर्ता को एक कुशल मनोवैज्ञानिक होने के साथ-साथ अनेक प्रकार की शारीरिक, मानसिक, जैविक और सामाजिक सावधानियाँ बरतनी पड़ती है। इन सबके साथ शैक्षिक तकनीकी की सम्यक जानकारी होना भी उसके लिए बहुत आवश्यक है। इसलिए निर्देशन करने वाले का प्रशिक्षित होना बहुत जरूरी है। इस कार्य में विश्वविद्यालयों और कालेजों के बी.एड.-एम.एड. विभाग पत्र, पुस्तकालय तथा निर्देशन संस्थान महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं।

अन्तर्दृष्टि व सूझ का सिद्धान्त-

निर्देशन के अन्तर्गत यह प्रयास किया जाना चाहिए कि निर्देशित व्यक्ति के निर्देशक के विचारों का अन्धानुकरण न करके स्व-विवेक, सूझ और आत्मबोध के द्वारा स्वयं निर्णय लेने का अभ्यास करें।

किसी भी क्षेत्र में निर्देशन का सिद्धान्त-

निर्देशन का कार्य किसी या कुछ विशेष क्षेत्रों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए, बल्कि जीवन से जुड़े, किसी भी क्षेत्र में निर्देशन को लागू किया जा सकता है। साधारणतः समाज, परिवार, समुदाय, विद्यालय, व्यवसाय और राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं में भी इसका प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा सकता है।

लोकतान्त्रिक मूल्यों को अपनाना-

विश्व के लगभग सभी प्रमुख राष्ट्र आज लोकतान्त्रिक पद्धति को अपना चुके हैं। अत: निर्देशन प्रदान करते समय भी हमें सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि लोकतान्त्रिक मान्यताओं और सिद्धान्तों को किसी प्रकार की आँच न आये। इसके लिए निर्देशक और निर्देशित दोनों की जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग और लिंग के भेद के स्वयं को पूर्णतया मुक्त रखते हुए भाईचारे, स्नेह, सहिष्णुता, विश्व-बन्धुत्व, राष्ट्रीय, परोपकार, समानता और सद्भाव के मार्ग पर चलना चाहिए।

व्यक्ति और समाज में सन्तुलन-

निर्देशन का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को उसका व्यक्तित्त्व निखारने में सहायता करना है, किन्तु इसके निजी हित यदि समाज का अहित करने लगे तो निर्देशक के लिए उसके व्यक्तिगत और सामाजिक विकास में सन्तुलन बनाने का प्रयास करना आवश्यक हो जाता है। यहाँ पर मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए सबके हित में अपना हित समझने के सिद्धान्त का पालन करना चाहिए। कविवर, तुलसीदास ने कहा भी है-“परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।”

लचीलेपन का सिद्धान्त-

एक अच्छा निर्देशन कार्यक्रम सदैव लचीलेपन के गुण से युक्त होता है। इसके लिए आवश्यकतानुसार सूचना तन्त्र, तकनीकी विधियों और दार्शनिक चिन्तन आदि में सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार परितर्वन करते रहना चाहिए। क्रो व क्रो ने कहा भी है-“एक सुगठित निर्देशन कार्यक्रम व्यक्ति और आवश्यकताओं को देखते हुए लचीला होना चाहिए।”

निर्देशकों के कार्यों में समन्वय-

निर्देशन कार्यक्रमों तथा निर्देशन देने वालों के लिए एक सामान्य नियमावली अथवा आचार-संहिता होनी चाहिए, जिससे समय-समय पर विभिन्न क्षेत्रों और स्थानों के निर्देशनकर्ता परस्पर मिलकर समन्वय स्थापित कर सकें। यह प्रक्रिया निर्देशन कार्यक्रमों को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने में सहायक हो सकती है।

भविष्य कथन का सिद्धान्त-

निर्देशन कार्यक्रम इस प्रकार आयोजित किये जाने चाहिए जिससे निर्देशनकर्ता छात्रों की अभियोग्यताओं का मापन करके उनके भावी जीवन, व्यवसाय और शिक्षा सम्बन्धी भविष्य कथन करने में समर्थ हो सकें। इस कार्य के लिए अभियोग्यता परीक्षण तथा आधुनिक शैक्षिक तकनीकी में अभिक्रमित अनुदेशन आदि पर्याप्त लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं।

  1. निर्देशन का अर्थ, परिभाषा, तथा प्रकृति
  2. निर्देशन का क्षेत्र और आवश्यकता
  3. शैक्षिक दृष्टिकोण से निर्देशन का महत्व
  4. शिक्षण की विधियाँ – Methods of Teaching in Hindi
  5. शिक्षण प्रतिमान क्या है ? What is The Teaching Model in Hindi ?
  6. निरीक्षित अध्ययन विधि | Supervised Study Method in Hindi
  7. स्रोत विधि क्या है ? स्रोत विधि के गुण तथा दोष अथवा सीमाएँ
  8. समाजीकृत अभिव्यक्ति विधि /समाजमिति विधि | Socialized Recitation Method in Hindi
  9. योजना विधि अथवा प्रोजेक्ट विधि | Project Method in Hindi
  10. व्याख्यान विधि अथवा भाषण विधि | Lecture Method of Teaching

इसे भी पढ़े ….

  1. सर्व शिक्षा अभियान के लक्ष्य, उद्देश्य एवं महत्व 
  2. प्राथमिक शिक्षा की समस्यायें | Problems of Primary Education in Hindi
  3. प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण की समस्या के स्वरूप व कारण
  4. प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण की समस्या के समाधान
  5. अपव्यय एवं अवरोधन अर्थ क्या है ? 
  6. शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2010 क्या है?
  7. प्राथमिक शिक्षा का अर्थ, उद्देश्य , महत्व एवं आवश्यकता
  8. आर्थिक विकास का अर्थ, परिभाषाएँ, प्रकृति और विशेषताएँ
  9. शिक्षा के व्यवसायीकरण से आप क्या समझते हैं। शिक्षा के व्यवसायीकरण की आवश्यकता एवं महत्व
  10. बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम, विशेषतायें तथा शिक्षक प्रशिक्षण व शिक्षण विधि
  11. कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग के गुण एवं दोष 
  12. सार्जेन्ट योजना 1944 (Sargent Commission in Hindi)
  13. भारतीय शिक्षा आयोग द्वारा प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में दिये गये सुझावों का वर्णन कीजिये।
  14. भारतीय शिक्षा आयोग द्वारा माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में दिये गये सुझावों का वर्णन कीजिये।
  15. मुस्लिम काल में स्त्री शिक्षा की स्थिति
  16. मुस्लिम शिक्षा के प्रमुख गुण और दोष
  17. मुस्लिम काल की शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य
  18. मुस्लिम काल की शिक्षा की प्रमुख विशेषतायें
  19. प्राचीन शिक्षा प्रणाली के गुण और दोष
  20. बौद्ध शिक्षा प्रणाली के गुण और दोष
  21. वैदिक व बौद्ध शिक्षा में समानताएँ एवं असमानताएँ
  22. बौद्ध कालीन शिक्षा की विशेषताएँ 

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider.in does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment