वाणिज्य / Commerce

निजी क्षेत्र का अर्थ, विशेषताएँ, महत्त्व, समस्याएँ तथा दोष

निजी क्षेत्र का अर्थ

अनुक्रम (Contents)

निजी क्षेत्र का अर्थ-Meaning of Private Sector in Hindi

निजी क्षेत्र का अर्थ (Meaning of Private Sector) – निजी उपक्रम या निजी क्षेत्र से आशय ऐसी औद्योगिक व्यापारिक या वित्तीय इकाइयों से है जिन पर व्यक्तियों या गैर-सरकारी संस्थाओं का स्वामित्व एवं प्रबन्ध होता हैं। ये इकाइयाँ मूल्य के बदले वस्तुओं या सेवाओं की पूर्ति के लिए सरकारी नियमों के अधीन संचालित की जाती है। 

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निजी क्षेत्र की विशेषताएँ 

उक्त परिभाषा के आधार पर निजी क्षेत्र की अग्रलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती है-

(1) निजी उपक्रमों की स्थापना देश या विदेश के व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा की जाती हैं।

(2) इन उपक्रमों का निजी स्वामित्व होता है।

(3) इनका संचालन एवं प्रबन्ध निजी व्यक्तियों द्वारा होता है।

(4) इनका मुख्य उद्देश्य लाभ कमाने के लिए वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करने तथा उनकी पूर्ति करना होता है।

(5) ये उपक्रम सरकारी नियमों एवं कानूनों के अनुसार संचालित होते

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अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र का महत्त्व

1. व्यक्तिगत साधनों का प्रयोग

देश के समृद्ध नागरिकों के पास उत्पादन के दो महत्त्वपूर्ण साधन भूमि और पूंजी होते हैं। इनके उत्पादन कार्य में लगने के लिए निजी क्षेत्र की आवश्यकता होती है। ये लोग लाभ कमाने के उद्देश्य से उद्योग स्थापित करते हैं। इससे राष्ट्र के ये व्यक्तिगत साधन बेकार नहीं पड़े रहते हैं।

2. राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि

निजी क्षेत्र के माध्यम से जब लोगों के व्यक्तिगत साधन उत्पादन में लगते हैं तो राष्ट्र के कुल उत्पादन में वृद्धि होती हैं। उत्पादन में वृद्धि के फलस्वरूप कुल राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है। इ से लोगों में सम्पन्नता आती हैं और उनका जीवन स्तर ऊँचा उठता है।

3. बचत को प्रोत्साहन

निजी क्षेत्र लोगों की बचत करने की इच्छा एवं शक्ति में वृद्धि करता है। जब देश के नागरिक बचत के धन को उद्योगों में विनियोजित करने का अवसर पाते हैं। तो वे अधिक-से-अधिक बचत करने लिए प्रोत्साहित होते हैं। साम्यवादी राष्ट्रों की तुलना में पूँजीवादी एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देशों में बचत की प्रवृत्ति ज्यादा देखी जाती है। इसका प्रमुख कारण निजी क्षेत्र है।

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4. पूँजी निर्माण में तेजी

जब लोगों का व्यक्तिगत धन उत्पादन एवं व्यापार में लगता है तो देश में पूँजी निर्माण तेजी से होता है। उद्योगपति एवं व्यापारी कमाये गये धन का पुनः विनियोग करते हैं। इससे पूँजी में वृद्धि हो जाती है। निजी क्षेत्र के उद्योग लाभ के उद्देश्य से चलाये जाते हैं, इसलिए पूँजी निर्माण होना स्वाभाविक है।

5. व्यक्तिगत औद्योगिक क्षमता एवं साहस का उपयोग

देश का औद्योगिक एवं आर्थिक विकास केवल उद्योग स्थापित कर देने से ही नहीं हो जाता है बल्कि औद्योगिक इकाइयों की कुशलता से संचालन भी आवश्यक हैं। इस दृष्टि से निजी क्षेत्र महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। निजी उद्योगपति उद्योग को लाभपूर्ण स्थिति में एवं पूर्ण क्षमता से चलाने में प्रवीण होते हैं। फलस्वरूप देश का तेजी से एवं सुदृढ़ औद्योगिक विकास होता है।

6. सार्वजनिक वित्त में अंशदान

सरकार को अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए भारी मात्रा में धन की आवश्यकता होती हैं। इस धन की पूर्ति निजी क्षेत्र के उद्योग उत्पादन कर, आय कर, विक्रय कर, आयात निर्यात शुल्क आदि के रूप में करते हैं। सरकारी उद्योग तो प्रायः घाटे में चलते है। ऐसी स्थिति में निजी क्षेत्र ही सरकारी खर्च का सहारा होता है।

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निजी क्षेत्र के दोष

(1) प्राकृतिक साधनों का अपव्यय

यदि देश के प्राकृतिक साधनों का उपयोग करने के लिए निजी क्षेत्र को छूट दे दी जाय तो वह अपने निजी क्षेत्र को अधिकतम करने के उद्देश्य से इन साधनों का अंधाधुंध उपयोग करने लगेंगे। इससे देश के प्राकृतिक साधनों का अपव्यय होने की सम्भावना होगी। निजी क्षेत्र अनियोजित तरीके से इनका उपयोग तत्कालीन लाभ के उद्देश्य से करेगा, जिससे भविष्य में इन साधनों के समाप्त हो जाने का खतरा रहता है।

(2) असन्तुलित विकास

निजी क्षेत्रों के उद्योगों में ऐसे स्थानों पर स्थापित होने की प्रवृत्ति होती हैं, जो कि पहले से विकसित हैं, जहाँ वित्त, परिवहन एवं आधार संरचना सम्बन्धी सुविधाएँ पहले से विद्यमान हैं। ऐसे स्थानों पर उद्योगों की स्थापना करने पर उत्पादन लागत में कमी आती है और लाभ बढ़ जाता है। पिछड़े क्षेत्रों में लाभ की दर कम होने के कारण निजी उद्योगपति वहाँ उद्योगों की स्थापना नहीं करते हैं। इससे अर्थव्यवस्था का असन्तुलित विकास होता है।

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(3) अधिक पूँजी की आवश्यकता वाले उद्योगों की स्थापना

चूँकि निजी क्षेत्र के वित्तीय साधन बहुत सीमित होते हैं। इसलिए इस क्षेत्र में सामान्यतया ऐसे उद्योगों की स्थापना नहीं की जाती है, जिनमें अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है। आधारभूत उद्योगों की स्थापना में इनका योगदान बहुत कम होने के कारण इनके माध्यम से देश के आर्थिक विकास को गति नहीं मिलती है।

(4) नैतिकता की उपेक्षा

निजी क्षेत्र में निजी लाभ की प्रेरणा के समक्ष नैतिकता का समर्पण कर दिया जाता है। वस्तुओं में मिलावट, नकली दवाओं का उत्पादन, कम तोल, किस्म सम्बन्धी दुराचरण आदि निजी क्षेत्र में सर्वत्र पाये जाते हैं।

(5) विलसिता की वस्तुओं के उत्पादन पर जोर

निजी क्षेत्र के विलसिता एवं आरामदायक वस्तुओं के उत्पादन पर अधिक जोर दिया जाता है। इसका कारण यह है कि वस्तुओं का उपयोग समाज के धनी वर्ग के व्यक्तियों द्वारा किया जाता है और इनमें ऊँचीं माँग के कारण लाभ का मार्जिन अधिक होता है। अतएवं सामन्य उपभोक्ता के उपयोग की आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन की निजी क्षेत्र में उपेक्षा की जाती है।

भारत में निजी क्षेत्र की समस्याएँ

(1) जटिल प्रक्रिया

सरकार ने निजी क्षेत्र में उद्योग की स्थापना के लिए इतने नियम एवं प्रक्रियायें बनायी हैं कि इनकी स्थापना में अनावश्यक विलम्ब होता है। बहुत से निर्णय जो निचले स्तर पर अधिकारियों द्वारा होने चाहिए वे उच्चाधिकारियों तथा मन्त्रियों के हाथों में है और भारतवर्ष का यह दुर्भाग्य है कि देश का उच्चाधिकारी तथा मन्त्री इतना भ्रष्ट है कि अपने निजी स्वार्थ पूर्ति हेतु मामले को लटकाने का प्रयास करता है।

(2) अवास्तविक नियन्त्रण

उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा हेतु जो भी सरकारी नियम बनाये जाते है उनका वास्तविक जीवन में विपरीत प्रभाव देखने में आता है। उदाहरण के लिए मूल्य नियन्त्रण नीति से उत्पादकों को उत्पादन बढ़ाने की प्रेरणा नहीं मिलती बल्कि इससे वस्तुओं का अभाव हो जाता है और कालाबाजारी बढ़ती है।

(3) वित्तीय सुविधाओं की कमी

हमारे देश में लघु उद्योगों को पर्याप्त मात्रा में वित्तीय सहायता नहीं मिल पाती है जिसके कारण निजी क्षेत्र के ये उद्योग स्थापित नहीं हो पाते हैं। जहाँ एक ओर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के लिए केन्द्रीय बजट में प्रावधान होते हैं वहीं दूसरी ओर निजी क्षेत्र के प्रोत्साहन हेतु ऐसी कोई भी वित्तीय एवं साख व्यवस्था नहीं होती है। पर्याप्त वित्त के अभाव से निजी क्षेत्र के उद्योगों का विकास नहीं हो पाता है।

(4) औद्योगिक रूग्णता

निजी क्षेत्र की अधिकतर इकाइयो इस समय बीमार अवस्था में है। वित्तीय अभाव, अकुशल प्रबन्ध, पुरानी तकनीक, प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों में तकरार और औद्योगिक अस्थिरता के कारण निजी क्षेत्रों के अधिकांश उद्योग बन्दी की कगार पर हैं और सरकार इस सम्बन्ध में कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है।

(5) अधिक लागत

विगत दो वर्षों को छोड़कर भारत में मुद्रास्फीति की दर में निरन्तर वृद्धि होती रही है जिसके कच्चे माल आदि की लागतों में वृद्धि हुई। कच्चे माल, मजदूरी तथा यातायात के साधनों में वृद्धि के कारण उत्पादन लागत में वृद्धि हुई और साथ ही प्रतिस्पर्धा के चलते विज्ञापन पर खर्च अधिक हुआ तथा उत्पादित वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हुई जिसके कारण बाजार में इन वस्तुओं की मांग घट गयी और उद्योगों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

(6) ऊँची ब्याज दर

निजी क्षेत्र के उद्योगों को दिये जाने वाले ऋणों पर ब्याजदर अत्यधिक ऊँची है जिसके कारण निजी क्षेत्र के उद्यमी को काफी असुविधा होती है। (7) नीति निर्धारण में उपेक्षा उद्योगों के सम्बन्ध में सरकार द्वारा नीति का निर्धारण करते समय निजी क्षेत्र के उद्यमियों की पूर्ण उपेक्षा की जाती है अर्थात् उससे कोई भी सलाह मशविरा नहीं लिया जाता है। इस सम्बन्ध में सरकार जो भी निर्णय लेती है उनका ही पालन निजी क्षेत्र के उद्यमियों को करना पड़ता है।

भारत में निजी क्षेत्र को प्रभावी बनाने हेतु किये गये उपाय

(1) उदार लाइसेंसिंग नीति

सरकार की नयी औद्योगिक नीति में लाइसेंस प्रणाली को अधिक उदार बनाया गया है। नयी औद्योगिक नीति के अनुसार सामान्य उद्योगों को लाइसेंस मुक्त किया गया हैं, केवल कुछ विशेष उद्योगों के लिए ही सरकार से लाइसेंस लेने की आवश्यकता है। वर्तमान में लाइसेंसिंग की अनिवार्यता वाले उद्योगों की संख्या केवल पाँच है।

(2) सार्वजनिक क्षेत्र के आरक्षण की कमी

नयी औद्योगिक नीति में जो उद्योग सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए आरक्षित किये गये थे उनमें कमी की गयी है और कई उद्योगों को निजी क्षेत्रों के लिए खोल दिया गया है। पूर्व में 17 उद्योग सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए आरक्षित थे। नयी औद्योगिक नीति में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए केवल आठ उद्योग ही सुरक्षित रखे गये है। इस प्रकार अब सार्वजनिक क्षेत्र प्रमुखतः सामाजिक महत्त्व के उद्योगों, अति आवश्यक आधारभूत साज समान एवं सेवाओं, खनिज तेल तथा अन्य प्रमुख खनिजों की खोज एवं उनके उत्पादन और अर्थव्यवस्था के भावी विकास के लिए आवश्यक मूल उद्योगों तक ही सीमित कर दिया गया है।

(3) अधिग्रहण का भय नहीं

नयी औद्योगिक नीति में यह प्रावधान किया गया है कि वित्तीय संस्थायें परिवर्तनीय सम्बन्धी धारा पर विशेष जोर नहीं देगी। इससे निजी क्षेत्र में उद्योगों का राष्ट्रीयकरण का भय समाप्त हो गया।

(4) विदेशी पूँजी निवेश

नयी औद्योगिक नीति में उच्च प्राथमिकता वाले 34 उद्योगों में 51 प्रतिशत तक विदेशी इक्विटी, पूँजी के विनियोग की अनुमति दी गयी है। पहले यह प्रतिशत 40 था। ऐसे उच्च प्राथमिकता प्राप्त उद्योगों की संख्या अब तक 31 थी जिसमें तीन नये उद्योग समूहों को शामिल किया गया है। ये होटल, पर्यटन तथा खाद्य परिष्करण है। इन उद्योगों की इक्विटी पूँजी में विदेशी भागीदारी की 11 प्रतिशत अतिरिक्त दर हमारे सीमित विदेशी मुद्रा साधनों पर बोझ कम करेगी तथा विदेशों से इन उद्योगों के लिए आवश्यक प्लांट आदि का आयात विदेशी इक्विटी पूँजी विनियोग से सरलता से पूरा किया जा सकेगा। उच्च प्राथमिकता प्राप्त 34 उद्योगों में इक्विटी पूँजी के आधे से अधिक भाग में भागीदारी की आम अनुमति विदेशी कम्पनियों को भारी पूँजी निवेश के लिए पर्याप्त आकर्षण प्रदान करेगी।

(5) विदेशी तकनीक 

अभी तक विदेशी तकनीक के प्रत्येक समझौते के लिए सरकार की पूर्व अनुमति लेना आवश्यक होता था। अब उच्च प्राथमिकता प्राप्त 34 उद्योगों के लिए विदेशी तकनीक के समझौते के स्वत: अनुमोदन की व्यवस्था की गयी। किन्तु शर्त यह है कि उनमें एक करोड़ रूपये के एक मुश्त भुगतान तथा 5 प्रतिशत रायल्टी से अधिक भुगतान का प्रावधान न हो।

(6) लघु उद्योग

साधारण तकनीक वाले उद्योगों तथा ऐसे अन्य लघु उद्योगों में राज्य पूँजी तब लगाएगा जबकि उनके लिए निजी क्षेत्र सक्षम न हो ।

(7) स्थानीयकरण

नयी औद्योगिक नीति के अन्तर्गत दस लाख से कम जनसंख्या वाले नगरों में 5 प्रतिशत लाइसेंसिंग वाले उद्योगों को छोड़कर शेष उद्योगों के स्थानीयकरण के लिए केन्द्रीय सरकार से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है। दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले बड़े नगरों की 25 कि०मी० की परिधि के भीतर ऐसे उद्योगों का आधुनिकीकरण किया जाएगा जो प्रदूषण रहित है।

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