सार्वजनिक क्षेत्र या सार्वजनिक उपक्रम (Public Enterprise in Hindi)
सार्वजनिक क्षेत्र या सार्वजनिक उपक्रम (Public Enterprise) – मिश्रित अर्थव्यवस्था में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के कुशल समन्वय द्वारा आर्थिक विकास के लक्ष्य को पूरा किया जाता है जबकि समाजवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास का मुख्य दायित्व सार्वजनिक क्षेत्र पर ही होता है। सार्वजनिक उपक्रम व्यवसाय का एक ऐसा स्वरूप है, जिसकी स्थापना, नियन्त्रण और संचालन सरकार द्वारा होता है।
मेरली फ्रेनसोड के मतानुसार, “लोक उद्योग के विस्तृत अर्थ में सरकारी क्रियाओं के सम्पूर्ण क्षेत्र को सम्मिलित किया जा सकता है, परन्तु सामान्य रूप में इसका प्रयोग व्यावसायिक प्रकृति की आर्थिक क्रियाओं तक सीमित है।”
इसे भी पढ़े…
सार्वजनिक क्षेत्र या सार्वजनिक उपक्रम की विशेषताएँ
1. स्वामित्व
सार्वजनिक उपक्रमों पर पूर्ण या आंशिक स्वामित्व केन्द्रीय, प्रान्तीय या स्थानीय सरकार का होता है।
2. नियन्त्रण व प्रबन्ध
सार्वजनिक उपक्रमों का नियन्त्रण और प्रबन्ध सरकार द्वारा नियुक्त या चयनित व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा किया जाता है।
3. उद्देश्य
सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना का उद्देश्य मात्र लाभार्जन करना नहीं है, वरन् वस्तुओं और सेवाओं की निर्वाध आपूर्ति निर्धारित मूल्यों पर करना है, ताकि जनता को सन्तुष्टि प्राप्त हो। कभी-कभी एकाधिकार को समाप्त करने या किसी विशिष्ट सेवा या वस्तुओं की आपूर्ति सुनिश्चत करने के उद्देश्य से भी इनकी स्थापना की जाती है।
4. वित्त व्यवस्था
सार्वजनिक उपक्रमों की वित्त व्यवस्था पूर्णत: सरकारी स्रोतों से या आंशिक रूप से सरकारी और आंशिक रूप से अन्य सार्वजनिक वित्तीय क्षेत्रों से या आंशिक रूप से निजी क्षेत्रों से भी की जाती है।
5. सार्वजनिक उत्तरदायित्व
सार्वजनिक उपक्रम जनता के प्रति पूर्णरूपेण उत्तरदायी होते हैं। सार्वजनिक उपक्रमों की गतिविधियों पर संसद या विधान सभा या स्थानीय सभा में प्रश्न उठाये जा सकते हैं।
6. श्रेष्ठ कार्य दशाएँ
सार्वजनिक उपक्रमों की कार्य दशाएँ, निजी क्षेत्र की अपेक्षा श्रेष्ठ स्थिति में होती हैं। कभी-कभी सार्वजनिक उपक्रमों को अपने श्रमिकों व कर्मचारियों की कार्य दशाओं और श्रम कल्याण कार्यों के सम्बन्ध में निजी क्षेत्र के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करना होता है।
इसे भी पढ़े…
सार्वजनिक क्षेत्र या सार्वजनिक उपक्रम का महत्त्व
(1) प्राकृतिक साधनों का सदुपयोग
देश के आर्थिक विकास में वन, खनिज, जल आदि प्राकृतिक संसाधनों के उचित एवं पूर्ण विदोहन के कार्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। ये उद्योग खनिज पदार्थों को कच्चे माल एवं शक्ति के रूप में उपयोग करते हैं। इसके साथ ही इनके द्वारा नये खनिज भण्डारों की खोज का कार्य तथा इनके संरक्षण पर भी ध्यान दिया जाता है।
(2) बीमार और अनार्थिक उद्योगों को जारी रखना
निजी क्षेत्र के बहुत से उद्योग वित्तीय या अन्य कारणों से लगातार घाटे में चलने के कारण बन्द होने की स्थिति में आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार उन्हें अपने हाथ में लेकर जारी रखती है। इससे राष्ट्रीय उत्पादन में गिरावट नहीं आती है तथा बेरोजगारी की समस्या उग्र रूप धारण नहीं करती है।
इसे भी पढ़े…
- भारत की राष्ट्रीय आय के कम होने के कारण | भारत में राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के सुझाव
(3) वित्तीय संस्थाओं के साधनों का राष्ट्र हित में प्रयोग
व्यावसायिक बैंकों, बीमा कम्पनियों आदि वित्तीय संस्थाओं की ऋण एवं विनियोग नीतियों का आर्थिक विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ये वित्तीय संस्थान सार्वजनिक क्षेत्र में होने से सरकार को अपनी योजनाएँ क्रियान्वित करने में काफी सहायता मिलती है। सरकार पिछड़े हुए क्षेत्रों एवं वर्गों को ऋण देने में प्राथमिकता देती हैं। इससे देश का सन्तुलित आर्थिक विकास होता हैं। भारत में बीमा एवं बैंक व्यवसाय का राष्ट्रीयकरण अर्थव्यवस्था के विकास में बहुत सहायक सिद्ध हुआ है।
(4) पिछड़े क्षेत्रों का विकास
सार्वजनिक उद्योगों की स्थापना प्रायः ऐसे क्षेत्रों में की जाती है जो औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े हुए हों। पिछड़े क्षेत्रों में इनकी स्थापना से देश के प्राकृतिक एवं मानवीय साधनों का अच्छा उपयोग सम्भव हो पाता है और बड़े शहरों में उद्योगों का भार नहीं बढ़ पाता है। क्षेत्रीय दृष्टि से सन्तुलित आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
इसे भी पढ़े…
सार्वजनिक क्षेत्र या सार्वजनिक उपक्रमों के उद्देश्य
1. सन्तुलित आर्थिक विकास
राष्ट्र के सामाजिक व आर्थिक असन्तुलन को दूर करके ही आर्थिक न्याय सर्वसाधारण को उपलब्ध कराया जा सकता है। निजी क्षेत्र द्वारा नये उपक्रमों की स्थापना उन्हीं क्षेत्रों में की जाती है, जहाँ उन्हें पर्याप्त लाभ प्राप्त हो सके और ऐसे क्षेत्र पहले से ही समृद्ध होते हैं। पिछड़े हुए क्षेत्रों का विकास करने हेतु सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना ऐसे क्षेत्रों में की जाती है।
2. आधारभूत संरचना का निर्माण
अविकसित अर्थव्यवस्था में विकास की गति तीव्र करने हेतु आधारभूत संरचना का निर्माण आवश्यक है। यह आधारभूत संरचना विशाल पूँजी के विनियोग से ही निर्मित हो सकती है। चूँकि आधारभूत संरचना का निर्माण व्यावसायिक दृष्टिकोण से शीघ्र लाभदायी नहीं होता है, अतः निजी क्षेत्र के व्यवसायी न तो विशाल मात्रा में पूँजी का विनियोग करने में सक्षम है और न ही इतने कम लाभ पर कार्य करने को तत्पर होते है। इसलिए आधारभूत संरचना के निर्माण हेतु सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना आवश्यक हो जाती है।
3. तीव्र आर्थिक विकास
अविकसित अर्थव्यवस्था में केवल निजी क्षेत्र द्वारा आर्थिक विकास नहीं हो पाता। उपनिवेशवादी राष्ट्रों में भी कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण तीव्र आर्थिक विकास सम्भव हो पाता है। आर्थिक विकास को गति प्रदान करने हेतु सार्वजनिक क्षेत्र का विकास अनिवार्य हो जाता है।
इसे भी पढ़े…
4. स्वस्थ प्रतिस्पर्धा
निजी क्षेत्र बाजार व्यवस्था को प्रभावित कर एकाधिकार की स्थापना की चेष्टा किया करते हैं, जिससे उपभोक्ता व श्रमिकों का शोषण होता है। बाजार में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बनाये रखने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में उपक्रमों की स्थापना आवश्यक हो जाती हैं। स्वस्थ व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा विकसित होने से उत्पादन की मात्रा, गुणवत्ता व मूल्य उपभोक्ता के पक्ष में हो जाते है। उपभोक्ताओं को कम मूल्य पर श्रेष्ठ माल प्रचुरता में उपलब्ध होता है।
5. रोजगार में वृद्धि
सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना से रोजगार के अवसरों में वृद्धि होती हैं, जिससे नागरिकों को सामाजिक व आर्थिक न्याय की प्राप्ति होती है। बेरोजगारी की समस्या से छुटकारा मिल जाता है, जिससे अपराधों की कमी होती हैं।
6. राष्ट्रीय आय में वृद्धि
सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना सरकार की आय तो बढ़ाती ही है, इससे राष्ट्रीय आय में भी वृद्धि होती हैं, जिससे नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार होता है। सरकारी आय में वृद्धि होने से जन-उपयोगी सेवाओं-शिक्षा, चिकित्सा, आदि का अधिक विकास होता है।
सार्वजनिक क्षेत्र/ लोक उद्यम के दोष / समस्याएँ (Disadvantages)
सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यप्रणाली की निम्न आधारों पर आलोचनाएँ की जाती हैं-
(1) कीमत नीति
पिछले कुछ वर्षों में सरकार सार्वजनिक उद्योगों द्वारा उत्पन्न की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों को निरन्तर बढ़ाती जा रही है। सरकार का उद्देश्य इस सम्बन्ध में एकाधिकारी शक्ति का उपयोग कर अधिक लाभ कमाना है। आलोचकों का मत है कि सरकार कुशलता एवं उत्पादकता को बढ़ाकर लागत कम करने के उपाय का प्रयोग न करके प्रशासित कीमतों को बढ़ाने का सरल मार्ग अपना रही है। अतः यह जनता पर एक तरह का अप्रत्यक्ष कराधान ही है।
(2) उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं
सार्वजनिक उपक्रमों की इस आधार पर भी आलोचना की जाती है कि इनमें स्थापित उत्पादन क्षमता का पूरा-पूरा उपयोग नहीं होता हैं और इसी कारण ये घाटे में चलते हैं। 2004-2005 में लगभग 15 प्रतिशत सरकारी उद्यम उत्पादन क्षमता की दृष्टि से 50 से 75 प्रतिशत सीमा के बीच कार्य करते थे और 24 प्रतिशत से 50 प्रतिशत से भी नीचे स्तर पर उत्पादन कार्य कर रहे थे। यह एक अनुकूल परिस्थिति नहीं हैं।
(3) दोषपूर्ण नियन्त्रण
प्रायः यह कहा जाता है कि बहुत से सरकारी क्षेत्र के उद्यमों के घटिया प्रदर्शन का कारण इन पर लगाये वित्तीय एवं अन्य नियन्त्रण हैं। आज स्थिति यह है कि इन पर वित्त मन्त्रालय और प्रत्येक उद्योग से सम्बन्धित मन्त्री तथा लोकसभा का नियन्त्रण होता है। वित्त मन्त्रालय इन पर अत्यधिक वित्तीय नियन्त्रण द्वारा इन्हें सरकारी विभागों की भाँति काम करने के लिए विवश करता है। ऑडिटर जनरल के अंकेक्षण के कारण इन उद्योगों में पहले की भावना समाप्त हो जाती है।
(4) अकुशल प्रबन्धन
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की आलोचना इनके अकुशल प्रबन्धन के कारण भी की जाती हैं। इन उपक्रमों का प्रबन्धन वेतन पर रखे गये कर्मचारियों एवं अधिकारियों द्वारा किया जाता है। इन उपक्रमों पर इनका स्वामित्व नहीं होने के कारण इनका कोई प्रत्यक्ष लाभ की प्राप्ति नहीं होती है। इन्हें केवल अपने वेतन से मतलब होता है, इनके कुशल संचालन में इनकी कोई रूचि नहीं होती है। इसलिए ये घाटे में चलते है। इन कर्मचारियों एवं अधिकारियों द्वारा किये जाने वाले भ्रष्टाचार के कारण इन उपक्रमों की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गयी है।
Important Links
- बचत के स्रोत | घरेलू बचतों के स्रोत का विश्लेषण | पूँजी निर्माण के मुख्य स्रोत
- आर्थिक विकास का अर्थ | आर्थिक विकास की परिभाषा | आर्थिक विकास की विशेषताएँ
- आर्थिक संवृद्धि एवं आर्थिक विकास में अन्तर | Economic Growth and Economic Development in Hindi
- विकास के प्रमुख सिद्धांत-Principles of Development in Hindi
- वृद्धि तथा विकास के नियमों का शिक्षा में महत्त्व
- अभिवृद्धि और विकास का अर्थ
- वृद्धि का अर्थ एवं प्रकृति
- बाल विकास के अध्ययन का महत्त्व
- श्रवण बाधित बालक का अर्थ तथा परिभाषा
- श्रवण बाधित बालकों की विशेषताएँ Characteristics at Hearing Impairment Children in Hindi
- श्रवण बाधित बच्चों की पहचान, समस्या, लक्षण तथा दूर करने के उपाय
- दृष्टि बाधित बच्चों की पहचान कैसे होती है। उनकी समस्याओं पर प्रकाश डालिए।
- दृष्टि बाधित बालक किसे कहते हैं? परिभाषा Visually Impaired Children in Hindi
- दृष्टि बाधितों की विशेषताएँ (Characteristics of Visually Handicap Children)
- विकलांग बालक किसे कहते हैं? विकलांगता के प्रकार, विशेषताएँ एवं कारण बताइए।
- समस्यात्मक बालक का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, कारण एवं शिक्षा व्यवस्था
- विशिष्ट बालक किसे कहते हैं? यह कितने प्रकार के होते हैं?
- प्रतिभाशाली बालकों का अर्थ व परिभाषा, विशेषताएँ, शारीरिक विशेषता
- मानसिक रूप से मन्द बालक का अर्थ एवं परिभाषा
- अधिगम असमर्थ बच्चों की पहचान
- बाल-अपराध का अर्थ, परिभाषा और समाधान
- वंचित बालकों की विशेषताएँ एवं प्रकार
- अपवंचित बालक का अर्थ एवं परिभाषा
- समावेशी शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ और महत्व
- एकीकृत व समावेशी शिक्षा में अन्तर
- ओशों के शिक्षा सम्बन्धी विचार | Educational Views of Osho in Hindi
- जे. कृष्णामूर्ति के शैक्षिक विचार | Educational Thoughts of J. Krishnamurti
- प्रयोजनवाद तथा आदर्शवाद में अन्तर | Difference between Pragmatism and Idealism
- प्रयोजनवाद का अर्थ, परिभाषा, रूप, सिद्धान्त, उद्देश्य, शिक्षण विधि एंव पाठ्यक्रम
- प्रकृतिवादी और आदर्शवादी शिक्षा व्यवस्था में क्या अन्तर है?
- प्रकृतिवाद का अर्थ एंव परिभाषा | प्रकृतिवाद के रूप | प्रकृतिवाद के मूल सिद्धान्त