आर्थिक प्रदेशों के सीमांकन के आधार एवं विशेषताएँ
आर्थिक प्रदेशों का सीमांकन आर्थिक भूदृश्य के संघटक तत्त्वों के आधार पर किया जाता है। इसके लिए किसी एक प्रमुख आर्थिक तत्व या कई तत्वों के समिश्र को आधार बनाया जाता है। इसके सीमांकन के महत्वपूर्ण आधार तत्व निम्नलिखित हैं-
(क) संसाधन आधार- किसी क्षेत्र में आर्थिक भूदृश्य के निर्माण में वहाँ विद्यमान विविध प्रकार के प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। किसी क्षेत्र या भूभाग के आर्थिक स्वरूप का निर्धारण वहाँ उपलब्ध मिट्टी, खनिज, जलाशय, प्राकृतिक वनस्पति, जीव-जन्तु, मानव आदि संसाधनों की मात्रा तथा विशेषता के द्वारा होता है। उदाहरण के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों में जहाँ उपजाऊ मिट्टी की बहुलता तथा खनिज पदार्थों का अभाव पाया जाता है, कृषि प्रधान आर्थिक भूदृश्य का विकास होता है। इसी प्रकार छोटा नागपुर पठार पर औद्योगिक खनिज पदार्थों तथा शक्ति संसाधनों (कोयला) की उपलब्धता तथा कृषि योग्य मिट्टी की कमी के कारण वहाँ औद्योगिक भूदृश्य का विकास हुआ है। प्रायः अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों के अनुसार ही आर्थिक क्रियाओं एवं आर्थिक भूदृश्यों का निर्धारण होता है किन्तु विकसित अर्थव्यवस्था में औद्योगिक कच्चे मालों तथा शक्ति संसाधनों, श्रमिकों आदि को दूर से भी मंगाया जा सकता है। जापान इसका विशिष्ट उदाहरण है जो विश्व का विकसित औद्योगिक देश है तथा अधिकांश औद्योगिक कच्चे मालों को विदेशों से आयात करता है। प्रायः देखा गया है कि संसाधनों की उपलब्धता में परिवर्तन होने पर आर्थिक क्रियाओं तथा तज्जनित आर्थिक भूदृश्य में भी परिवर्तन हो जाता है।
(ख) प्रौद्योगिकीय विकास- किसी भी क्षेत्र के आर्थिक विकास में वहाँ उपलब्ध प्रौद्योगिकी का प्रमुख हाथ होता है। आर्थिक भूदृश्य के स्वरूप के निर्धारण में संसाधनों की विविधता तथा उपलब्धता से अधिक योगदान संसाधनों के उपयोग की प्रौद्योगिकी का होता है। प्रोद्योगिकीय विकास संसाधनों का निर्माता और विनाशक दोनों होता है। किसी भी देश-काल में संसाधनों का विकास एवं उपयोग की नवीनतम प्रौद्योगिकी का प्रयेग आवश्यक होता है। किसी अर्थव्यवस्था को उन्नत स्वरूप प्रदान करने में उच्च प्रौद्योगिकी का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है। विविध प्रकार के यन्त्रों, उपकरणों तथा उत्पादन विधियों के आविष्कार तथा परिमार्जन से नवीन प्रौद्योगिकी का विकास होता है जिसके प्रयोग से उत्पादन में वृद्धि होती है तथा उत्पादित वस्तुओं की गुणवत्ता में भी सुधार होता है। कृषि, विनिर्माण उद्योग तथा अन्य विविध आर्थिक क्षेत्रों में नयी-नयी उत्पादन पद्धतियों और आधुनिक यन्त्रों तथा उपकरणों के प्रयोग से उत्पादन में तीव्र वृद्धि होती है।
वर्तमान समय में विश्व के जिन देशों में प्रौद्योगिकी का विकास अधिक हुआ है, वहाँ औद्योगीकरण तथा नगरीकरण का स्तर अत्यन्त ऊंचा है। ऐसे देश विकसित देशों की श्रेणी में आते हैं। अनेक विकासशील देश प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न होते हुए भी निम्न प्रौद्योगिकीय ज्ञान के कारण अविकसित पड़े हुए हैं। इस प्रकार आर्थिक प्रदेशों के सीमांकन में प्रौद्योगिकीय विकास को एक महत्वपूर्ण मापदण्ड के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
(ग) आर्थिक विकास की अवस्था- किसी का आर्थिक भूदृश्य उस क्षेत्र के आर्थिक विकास की अवस्था के अनुसार विकसित होता है। रोस्टोव आदि कई अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक विकास की कई अवस्थाओं का निर्धारण किया है। प्रायः सभी आधुनिक देश आर्थिक विकास के पथ पर इन अवस्थाओं से होकर ही आगे बढ़ते हैं।
आर्थिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था वस्तु संग्रह तथा आखेट प्रधान होती है जिसके पश्चात् पशुचारण, आदिम कृषि, स्थायी कृषि, वाणिज्यिक कृषि तथा औद्योगिक एवं नगरीकरण की अवस्थाएँ आती हैं। आर्थिक विकास की प्रत्येक अवस्था की विशिष्ट संरचना प्रौद्योगिकीय विकास तथा समस्याएँ पायी जाती हैं। अतः आर्थिक विकास की अवस्था के अनुसार विभिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न प्रकार के आर्थिक भूदृश्य का भी विकास होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि आर्थिक प्रदेशों के सीमांकन में आर्थिक विकास की अवस्थाओं का सहारा लिया जा सकता है।
(घ) अवसंरचना की उपलब्धता- किसी देश या प्रदेश की अवसरंचना या अवस्थापना वहाँ के संसाधन उपयोग एवं आर्थिक विकास को आधार प्रदान करती है। अवसरंचना के अन्तर्गत आर्थिक विकास के लिए आवश्यक तथा आधारभूत साधनों एवं सुविधाओं को सम्मिलित किया जाता है जैसे परिवहन के साधन (सड़क, रेलमार्ग आदि), संचार के साधन (रेडियों, दूरदर्शन, समाचार-पत्र, डाक-तार), शक्ति के साधन (विद्युत व्यवस्था) आदि, सिंचन सुविधा (नहर, तालाब, कुआं, नलकूप आदि), शिक्षा एवं प्रशिक्षण सुविधाएं, बैंकिंग व्यवस्था आदि। इन साधनों की उपलब्धता के आधार पर किसी क्षेत्र के आर्थिक विकास की दिशा और दशा का निर्धारण होता है। अतः किसी देश या प्रदेश की आर्थिक दशा अथवा विकास स्तर का अनुमान उसकी अवसंरचना सम्बन्धी दशाओं से लगाया जा सकता है। ऐसा देखा गया है कि आर्थिक रूप से विकसित तथा सम्पन्न क्षेत्र में अवसंरचना के अधिकांश तत्व पर्याप्त मात्रा में उपस्थित होते हैं। अतः अवसंरचना की उपलब्धता को भी आर्थिक प्रदेशों के सीमांकन में एक मापदण्ड के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
(घ) कार्यात्मक विशिष्टता- विश्व के सभी भागों में समान प्रकार की आर्थिक क्रियाएँ नहीं पायी जाती हैं, बल्कि इसके विभिन्न भागों में उपलब्ध संसाधन आधार, विकास, आर्थिक स्तर, अवसंरचना आदि के अनुसार विभिन्न प्रकार की आर्थिक क्रियाओं वाले विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र पाये जाते हैं।
उदाहरण के लिए घास के मैदानों में जहाँ कृषि फसलों के उत्पादन के लिए पर्याप्त वर्षा (आर्द्रता) तथा उपजाऊ मिट्टी का अभाव पाया जाता है, वहाँ पशुचारण ही व्यवसाय पाया जाता है। उपजाऊ मिट्टी तथा पर्याप्त वर्षा वाले मैदानी भागों में प्रायः कृषि की प्रमुखता पायी जाती है। उच्च प्रौद्योगिकी तथा औद्योगिक कच्ची सामग्रियों एवं शक्ति संसाधनों प्रमुख आर्थिक से सम्पन्न देशों में औद्योगीकरण तथा नगरीकरण का उच्च विकास पाया जाता है। उष्ण मरुस्थलों तथा टुण्ड्रा प्रदेश में मानव विकास के लिए विपरीत भौगोलिक परिस्थितियों के कारण आर्थिक भूदृश्य का विकास अत्यल्प या नगण्य पाया जाता है।
(ङ) जनांकिकीय प्रतिरूप- किसी देश का जनांकिकीय स्वरूप सामान्यतः उसके आर्थिक विकास के स्तर का अनुगामी या सहचर होता है। जनांकिकीय प्रतिरूप के अन्तर्गत किसी देश की जन्म दर, मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर, जनसंख्या की वृद्धि दर, जनसंख्या घनत्व, कृषि घनत्व (प्रति इकाई कृषिगत भूमि पर खेतिहर जनसंख्या), पोषण घनत्व (प्रति इकाई अन्न उत्पादक भूमि पर जनसंख्या) आदि को सम्मिलित किया जाता है। वर्तमान समय सर्वाधिक मान्यता प्राप्त जनांकिकीय संक्रमण सिद्धान्त का यह निष्कर्ष है कि जैसे-जैसे किसी अर्थव्यवस्था का विकास होता है उसकी जनकिकीय संरचना में भी परिवर्तन होता है। विकास की आरम्भिक अवस्था में जन्म दर और मृत्यु दर दोनों उच्च होते हैं जिनमें अर्थव्यवस्था के क्रमिक विकास से हास की प्रवृत्ति पायी जाती है। इस प्रकार आदिम समाज में जन्मदर और मृत्युदरं दोनों उच्च होते जनसंख्या वृद्धि दर अतिमंद तथा जनसंख्या अल्प और लगभग स्थायी होती है। विकासशील अर्थव्यवस्था में मृत्युदर की तुलना में जन्मदर अधिक ऊंची रहने के कारण जनसंख्या में तीव्र वृद्धि होती है और जनसंख्या विस्फोट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। विकसित देशों में जन्मदर और मृत्युदर दोनों न्यूनतम स्तर पर होते हैं और दोनों का अन्तर अत्यल्प या नगण्य रह जाने के कारण जनसंख्या वृद्धि लगभग रूक जाती है अथवा अत्यन्त मंद रहती है।
इसी प्रकार अल्पविकसित तथा कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में कृषि घनत्व अधिक पाया जाता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि किसी देश के आर्थिक भूदृश्य के निर्धारण में जनांकिकीय प्रतिरूप को भी आधार बनाया जा सकता है।
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