भील जनजाति एक परिचय – भीलों के जीवन-निर्वाह तथा सामाजिक जीवन पर भौगोलिक वातावरण का प्रभाव | भीलों का आर्थिक व सामाजिक जीवन | भीलों के निवास के वातावरण, आर्थिक जीवन आर समाज का विवरण | भील जनजाति के निवास, अर्थव्यवस्था एवं समाज पर एक भौगोलिक निबन्ध
भील जनजाति एक परिचय-भील शब्द का अर्थ
भील जनजाति एक परिचय – भील शब्द का आविर्भाव द्रविड़ भाषा के ‘बोल’ शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ“कमान’ से है। भारत में दक्षिणी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान पश्चिमी मध्य प्रदेश में एक मानव समूह रहता है जिसका प्राचीन काल से अब तक का प्रधान लक्षण तक कमान रखना रहा है, उन्हें ही भील कहते हैं। धनुर्विद्या में यह जाति सदा से ही बहुत ही कुशल रही है। इस जाति के मनुष्य ही नही वरन् स्त्रियाँ भी धनुर्विद्या में बहुत ही कुशल होती हैं। यदि हम अपने देश के प्राचीन साहित्य पर दृष्टि डालें तो इस जाति के सम्बन्ध में बहुत वर्णन मिलता है। रामायण में शबरी और निषाद तथा महाभारत में एकलव्य और घटोत्कच भील ही थे। मेवाड़ के साथ तो इस जाति का गहरा सम्बन्ध रहा है। बहुत समय तक मेवाड़ में राजपूत राजाओं को राजतिलक करने का अधिकार केवल भीलों को ही था।यही नहीं एक समय था जब इस जाति की अपनी एक स्वतन्त्र सत्ता थी एवं मध्य में भील सरदारों के कई छोटे-छोटे राज्य थे जिनमें कोटा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा एवं भीलवाड़ा आदि राज्य प्रमुख थे। धीरे-धीरे यह जाति सभ्यता के पथ पर अग्रसर हो रही थी। काश इस जाति को मरीठों एवं “सर जॉन मैल्कम’ ने तंग नहीं किया होता तो ये भील आज असभ्ध नहीं होते वरन् हमारी तरह सभ्य होते, लेकिन मराठों के अत्याचारों से घबड़ा कर ये दुबारा अपने निवास स्थान घने जंगल एवं पहाड़ियों पर निवास करने लग गये।
लोग मराठों के अत्याचारों को न भूले और असर पाते ही गाँवों का जलाने लगे और यात्रियों को लूटने लगे। इस तरह एक भयंकर जाति के रूप में भारत में प्रसिद्ध हो गये। “सर जॉन मैल्कम” के काल में इस जाति का दमन किया जाने लगा। “सर जान मैल्कम” ने खानदेश और मालवा को जीत कर इनकी रीढ़ तोड़ दी। अंग्रेजों ने भी भीलों को मैदानी भाग से जाने वाली रसद रोक दील तथा लूटमार करने वालों को गिरफ्तार करना प्रारम्भ कर दिया, लेकिन इस समस्या का स्थाई हल निकालने के लिए अंग्रेजी सरकार ने कुछ नम्र उपायों को अपनाया जिनमें आत्मसमर्पण युग करने वाले लोगों को माफ कर दिया जाता था एवं मैदानी भाग में उन्हें बसने के लिये भूमि दी जाती थी। तथी से इसका जीवन-क्रम बदल गया और ये शान्तिपूर्वक रहने लगे।
निवास स्थान-
यदि हम भारत के मानचित्र पर 22° उत्तरी अक्षांश से 28° उ. अक्षांश तकएवं 74° पूर्वी देशान्तर से 80° पूर्वी देशान्तर तक दृष्टि डालें तो यह क्षेत्र भीलों का निवास-स्थान है। इसमें दक्षिणी पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश सम्मिलित हैं। भीलों के प्रमुख क्षेत्रों के नाम भीलवाड़ा, भीलपुर, भीलगाँव, भीलना, भीलसी, बड़ी सपरी, बरन, बीना, भोपाल, विलाश, इन्दौर एवं बाँसवाड़ा हैं।
आकृति-
भीलों का रंग सांवला, कद छोटा, चेहरा चौड़ा, नथुने बड़े, नाक चपटी और बड़ी, शरीर गठा हुआ, बाल लम्बे आर धुंघराले होते हैं।
प्रजाति, उपजाति एवं गोत्र-
सी. एस. वेंकटाचर ने भीलो की प्रजाति के सम्बन्ध में कहा है “भील लोग आर्यन तथा द्राविड़ियन से भी पहले भारत में निवास करते थें सम्भवतः ये लोग सहारा के जलवायु सम्बन्धी संकट के समय इधर-उधर फैलते हुए भारत में पहुंचे थे। भील मुंडा जाति का एक उपविभाग है जो आदि द्राविड़ियन भारत में फैला हुआ था।”
भील जाति कई उप-जातियों में भी बंटी हुई है। इनकी मुख्य उप-जातियाँ निम्न हैं-नहाल, पॉगी, मोची, मटवारी, खोतील, कोतवाल, दांगची, नौरा, करीट, बरिया, पर्वी, पोवेरा, उल्वी उसांव, बुर्दा। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भीलों में अनेक जातियाँ पाई जाती हैं जो यह प्रमाणित करती हैं कि जाति-पाँति के बन्धनों में भील भी विश्वास करते हैं। इन जातियों में अनेक गोत्र भी है जिनमें मुख्य रोहनिया, सोनगर, ऑवलिया, मरवाल, मोरी, पंवार, मेरा, मासरया, मेंहदा, सिसोदिया, राठौर, परमार, सोलंकी, अवाशा, जवास, भूमिया, कचेरा, जावरा और चौमड आदि हैं। भीलों के उपर्युक्त गोत्रों से स्पष्ट मालूम होता है कि इनका मिश्रण राजपूतों के साथ अधिक हुआ है। सोलंकी, राठौर, सिसोदिया, पवार गोत्र भीलों में भी हैं और राजपूतों में भी।
स्वभाव तथा रहन-सहन-
भील स्वभाव से वीर, साहसी और स्वामिभक्त होते होते हैं। इतिहास में हमें भीलों की वीरता, साहस एवं स्वामिभक्त का वर्णन मिलता है। भील अपने वचन के पक्के एवं मनमौजी स्वभाव के होते हैं। स्वाभाव से ये इतने सीधे होते हैं कि कोई भी इनकी ठग सकता है। भारतीय किसान के लिए कही गई कहावत कि “भारतीय कियान ऋण में जन्म लेता है, ऋण में पलता है एवं ऋण में ही मरता है’, भीलों की सरलता एवं निर्धनता के कारण इन पर भी लागू होती है कि “एक भील ऋण में जनम लेता है, ऋण में ही पलता है और ऋण में ही मरता है।” क्योंकि महाजन इनसे इतना अधिक ब्याज लेते हैंकि एक भील अपने जीवनकाल में 100 रुपये का कर्ज नहीं चुका पाता है, क्योंकि भील एक तो स्वभाव से सीधे होते हैं, दूसरे ये धर्मभीहरु भी होते हैं। ये अन्याय सह सकते हैं, परन्तु लिये हुए कर्ज को मय ब्याज के चुकाने से इंकार नहीं कर सकतें यही नहीं, ये दिल के धनी भी होते हैं। इनके दरवाजे से कोई भी अतिथि बिना भोजन पाये वापस नही जाता है।
भील, परिश्रमी भी होते हैं भूखा टूटा भील यद्यपि शरीर से दुबला व कमजोर होता है, परन्तु मजदूती एवं साहस में कम नहीं होता जब हमें साधारण बुखार होता है तो चारपाई का सहारा लेते हैं, लेकिन भील बुखार के पूरे जोश में अपने सिर 5-10 सेर गीली मिट्टी थोपे हुए दिन पर हल चलाता है। कड़कडाती ठंडी रातों को केवल एक लंगोटी में ही काट देते हैं। कई दिन भूखे परिश्रम करके मक्का का दलिया, खाकर सारे परिश्रम एवं भूख की पीड़ा को भूल जाता है।
भीलों का पहनावा तथा साज-सज्जा-
चूँकि भील निर्धन और पिछड़े हुए हैं, इसलिए इनकी वेशभूषा तथा साज-सज्जा दनके वातावरण एवं सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल ही है। भीलों पुरुष एवं स्त्रियों के पहनावे में बहुत अन्तर पाया जाता है।
भील पुरुष शरीर पर वस्त्र नहीं पहनते हैं। जंगलों में निवास करने वाले भील पुरुष प्रायः एक लंगोटी में ही अपना जीवन बिताते हैं, परन्तु जो भील परिवार खेती करते हैं और बस्तियों के समीप आकर रहने लगे हैं, वे मोटा कपड़ा पहनते हैं जिसे ये लोग अंगरखा कहते हैं।
ऊंची कसी हुई धोती तथा मोटा साफा बांधते हैं। भ्रमण के समय तीर-कमान प्रत्येक भील के साथ रहती है जो इस प्रकार बनी होती है कि कमान बाँस की होती है तथा तीर भी बाँस का होता है, लेकिन इनकी नाम बहुत सीधी तथा तेज धार वाली लोहे की बनी होती है। भील. पुरुष तथा बालक हाथ पाँवों में लोहे या पीतल के कड़े पहनते हैं। सामाजिक अवसरों तथा उत्सवों पर चमकदार रंगों वाले कपड़े पहनते हैं। स्त्रियाँ अधिकतर लाल रंग के लहंगे एवं ओढ़नी ओढ़ती हैं। कुर्ते के स्थान पर एक प्रकार की अंगिया पहनती हैं जिसे ये अंगरखी कहती हैं। स्त्रियों के शरीर पर पिग्मी स्त्रियों की भाँति अनेक प्रकार के गुदने गुदे हुए होते हैं। स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार के आभूषण भी पहनती हैं जिसके हाथों में हाथी दाँत के मोटे कड़े, गले में चाँदी की मोटी हँसली, कानों में लम्बी-लम्बी बालियाँ, माथे पर लाख या चाँदी का झालर, हाथ और पाँवों की उंगलियों में पीतल या कगलट के छल्ले, नाक में नथ गले में मूंगों की माला पहनती हैं।
आवास-
भील जिन बस्तियों में रहते हैं, उन्हें “पाल” कहते हैं। हर एक “पाल” में भीलों का एक नेता होता है जिसे मध्य भारत में “तरबी” कहा जाता है एवं राजस्थान में उसे “गमेती’ के नाम से पुकारते हैं। जो भू-भाग पहाड़ी एवं ऊँचा होता है उसे ये लोग डौंगर (डूंगर) कहते हैं। भीलों के घर बांस, टट्ठरों या बेजोड़ पत्थरों के बने होते हैं। जो भील गाँवों में निवास करते हैं वे झोपड़ियों में रहते हैं और जो शहरों में रहते हैं वे मिट्टी या पत्थरों के मकानों में रहते हैं। मकान बनाने के लिए लोग ढालू स्थान चुनते हैं। प्रत्येक घर से मिले हुए ये एक या दो झोपड़े भी बनाते हैं। इन झोपड़ों में ये अपने मवेशी रखते हैं। वर्षा की कमी तथा उद्योगों के अभाव में ये इधर-उधर हटते-बढ़ते रहते हैं। जो भील परिवार गाँव के बन्धनों में बंधना नहीं चाहते, वे जंगलों में ही घूमते हैं।
जीवन-निर्वाह के साधन-
भील, जिनका भारतीय जनजातियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है, इनका मुख्य धन्धा एवं व्यवसाय कृषि करना है। वह भी एक फसली, क्योंकि इनके निवास-क्षेत्र में वर्षा कम होती है। शेष समय में इनका धन्धा जंगली जानवरों का शिकार करना, जंगल में शहद इकट्ठा करना, लाख एवं लकड़ी का संग्रह करना, पशु चराना और दूध की वस्तुएँ तैशर करना, मछली पकड़ना, मजदूरी करना और डलिया तथा टोकरे आदि बनाकर कस्बों में बेचना होता है।
भोजन-सामग्री-
भीलों की भोजन-सामग्री में मुख्य मक्का और प्याज है। ज्वार, जौ, लावा, कूरा और सांवा भी प्रयोग में लाते हैं। संकअकालीन समय में जंगली कन्द-मूल खाकर और यहाँ तक कि मरे हुए जानवरों का माँस खाकर निर्वाह करते हैं। इनमें जो सबसे बड़ा अवगुण है वह शराब पीना है। ये महुए, जौ और मकई की शराब बनाते है। देवी देवताओं की पूजा में भी ये शराब चढ़ाते हैं। शराब के मोह में ये अपनी प्यारी से प्यारी वस्तु को भी छोड़ देते है। एक नहीं बीसियों उदाहरण ऐसे हैं जब इन्होंने अपने शराब के नशे छोटे-छोटे नन्हें-नन्हें बच्चे को भी चन्द रुपयों में और शराब के लालच में विधर्मियों को बेच दिया, किन्तु अब यह प्रथा नष्ट होती जा रही है।
शादी-विवाह-
भीलों में 15 वर्ष की लड़की और 20 वर्ष के लड़के की शादी हो जानी चाहिए। इनमें शादी की तीन रीतियाँ हैं-
1. शादी जो माता-पिता द्वारा तय की जाती है-
इस प्रथा में सम्बन्ध तय करने का भार लड़के के माता-पिता पर होता है। वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष वालों के यहाँ सगाई करने जाते हैं। यदि लड़की के माता-पिता उस सगाई को मान लेते हैं तो वर पक्ष के लोग पंचों को 5 से 7 रुपया देते हैं जिनसे गुड़ और शराब मंगाई जाती है, जिसे उस जाति के लोग खाते-पीते हैं। यह उनका बैट्रोडल कहलाता है।
बैट्रोडल तय होने पर वर-वधू दोनों के यहाँ उबटन आदि होता है और उसी दिन से 7 दिन तक वर और वधू दोनों अपने-अपने घर जमीन पर पैर नहीं रखते और उनके दोस्त उन्हें कंघों पर रखते हैं तथा अपने-अपने गाँव की परिक्रमा (कंधों पर ही) करते हैं।
इस अवसर पर वर वधू को मौन धारण करना पड़ता है, जबकि सभी अन्य लोग खूब हँसते हूँ। यदि वर या वधू हंस देती है तो बहुत बड़ा अपशकुल माना जाता है। इस उत्सव को बाना बैठना” कहते हैं।
“बाना बैठना” के बाद पंडाल बनाया जाता है जिस पर जामुन और आम की पत्तियाँ डाली जाती हैं। कभी-कभी पंडाल को फलों से भी सजाया जाता है। इस पंडाल के नीचे सबसे पहले चार अविवाहित लड़के और लड़कियाँ खाना खाते हैं, इनके बाद दोस्त और सम्बन्धी खाना खाते हैं। इसके पश्चात् वर आता है और पण्डाल के नीचे बैठ जाता है फिर वर की माँ आती है और लड़की के ऊपर फिराकर पण्डाल के चारों किनारों पर रोटी के टुकड़े फेंकती है। इसके बाद दूल्हा बारात सहित लड़की के घर चल देता है। यह उत्सव “पण्डाल पूजा” कहलाता है।
जब बारात लड़की वाले के यहाँ पहुँच जाती है तो लड़की लड़के को अंगूठी देती है और लड़का लड़की को “कंगन” देता है। इसके बाद दोनों मण्डप की परिक्रमा करते हैं, यह “कनकन उत्सव” कहलाता है। इसके पश्चात् लड़की दीपक जलाती है तथा ज्यों ही वर मण्डप के अन्दर आता है उसका कर्त्तव्य होता है कि वह दीपक को बुझा दे इसके बाद पण्डितों द्वारा होम किया जाता है। इस अवसर पर वर और वधू दोनों खूब सजाये जाते हैं। इस प्रकार विवाह कार्यक्रम समाप्त हो जाता है।
2. शक्ति से शादी-
भीलों में दूसरे तरह का विवाह शक्ति के द्वारा होता है, इसमें लड़का किसी लड़की को भगाकर ले जाता है। यदि लड़का और लड़की दोनों की इच्छा आपस करने की होती है तो लड़के वाला लड़की के पिता और लड़की द्वारा माँगा हुआ धन देना पड़ता है। यदि वह धन चुका सकता है तो लड़के का पिता और खुद लड़का दोनों लडकी वाले के यहाँ जाते हैं और माँगा हुआ धन देते हैं एवं लड़की वालों को एक भोज देते हैं। इसके पश्चात् उनका विवाह ठीक उसी प्रकार से होता है, जिस प्रकार शादी जो माता-पिता द्वारा तय की जाती है।
3. होली-त्यौहार पर शादी-
जैसवाड़ा, तलुका पंचमहल, पंचवाड़ा जिलों में “गोल गधेडो” प्रथा का भी प्रचलन है। इसके अनुसार होली पर एक मजबूत लट्ठा गाड़ देजे हैं, उसके सिरे पर नारियल का फल और गुड़ बाँध देते हैं। युवक और युवतियाँ उसके चारों ओर नृत्य करते हैं। युवतियाँ लट्टे के चारों ओर एक गोला बनाकर नाचती हैं। जवयुवक बाहर से नाचता हुआ आता है। और युवतियों के बीच से निकलकर अन्दर से लड़े के पास जाकर नारियल और गुड़ को लेने का प्रयत्न करता है। ऐसा करने में युवतियाँ उसकी बहुत बुरी हालत करती हैं। यदि वह लट्टे तक पहुँचने में सफल हो जाता है तो युवतियाँ उसको उसके कपड़ों से पकड़ती हैं। उसे बाँस की छड़ियों से मारती हैं। उसके सिर से बाल नोचती हैं। यही नही यह भी कि उसके शरीर के माँस तक नोच लेती हैं।
4. मनोरंजन-
भील मनोरंजन के बड़े शौकीन होते हैं। विवाह और उत्सवों पर खूब नाचते और गाते हैं। जब कोई अतिथि आता तो उसके स्वागत में नाच-गानों का आयोजन किया जाता है। जब ये शहर से अपन गाँव लौटते हैं तो रास्ते की थकान को दूर करने के लिये रास्ते में भील और भीलने निडर होकर हाथ में हाथ डाले नाचते-गाते आते हैं। नाच गाने के अलावा इनके खेल भी बड़े मनोरंजक होते हैं। मकर संक्रान्ति पर डोटादडी, मारदडी, दशहरा पर दशहरा की नकली लड़ाई, यमद्वितीया पर नेजा खेल बड़े प्रसिद्ध हैं। इनके अलावा होली, दीपावली पर भी अनेक प्रकार के खेल खेले जाते हैं। इनमें चुटकले, मुहावरों एवं कहावतों का प्रचलन अधिक है। घोर दीनता और गरीबी में इनकी विनोद-प्रियता देखकर आश्चर्य होता है।
5. विश्वास-
भील लोग देवी-देवताओं का बहुत मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं। माता की पूजा प्रायः होती रहती है। ये लोग शिवाजी और हनुमान जी के बड़े भक्त होते हैं। ये लोग जादू- टोने के अधिक शिकार हैं तथा ये शकुन और अपशकुन में बहुत विश्वास करते हैं। ये भूत-प्रेतों में भी अधिक विश्वास करते हैं। पुनर्जनम में भी अधिक विश्वास करते हैं। ये मृतकों को जलाते हैं, माड़ते नहीं है।
भीलों के उपर्युक्त वर्णन का अध्ययन करने पर हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल
नेहरू की एक पंक्ति जो उन्होंने भीलों के बारे में कही थी, अपने में बहुत सत्यता लिए हुए है ,वह है –
“सचमुच भील बड़ी ही भली कौम है।” -पंडित जवाहर लाल नेहरू
Important Links
- थारू जनजाति – निवास क्षेत्र, अर्थव्यवस्था एवं समाज
- गद्दी जनजाति – निवास क्षेत्र, अर्थव्यवस्था एवं समाज Gaddi Tribe in hindi
- सेमांग जनजाति – निवास क्षेत्र, अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक संगठन की प्रकृति
- बुशमैन जनजाति – निवास क्षेत्र, अर्थव्यवस्था एवं समाज Bushman Janjati in hindi
- एस्किमो जनजाति – निवास क्षेत्र, अर्थव्यवस्था एवं समाज eskimo janjati in hindi
- खिरगीज जनजाति – निवास क्षेत्र, अर्थव्यवस्था एवं समाज kirghiz tribes in hindi
- पिग्मी जनजाति निवास स्थान Pigmi Janjaati in Hindi
- भारतीय कृषि का विकास | Development of Indian agriculture in Hindi
- भूमंडलीय ऊष्मीकरण एवं ग्रीन हाउस प्रभाव | Global warming & greenhouse effect
- प्रमुख शैक्षिक विचारधाराएँ या दर्शन | Main Educational Thoughts or Philosophies
- नगरीय जीवन की विशेषताएँ | Characteristics of civilian life in Hindi
- भूमिका (Role) का अर्थ, परिभाषा एवं प्रमुख विशेषताएँ
- परिस्थितिशास्त्रीय (ecological) पतन का अर्थ, कारण एवं इससे बाचव के कारण
- प्राथमिक समूह का समाजशास्त्रीय अर्थ तथा महत्व – Sociology
- जनसंख्या स्थानान्तरण या प्रवास से आशय (Meaning of Population Migration)
- भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारण और नियंत्रित करने के उपाय
- निश्चयवाद और नवनिश्चयवाद (Determinism And Neo-Determinism in Hindi)
- मानव भूगोल का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, विषय-क्षेत्र और महत्त्व
- प्राथमिक व्यवसाय: पशुपालन, पशुधन का महत्व, तथा मत्स्य-पालन