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सामाजिक एकता का अर्थ एवं राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में शिक्षा की भूमिका

सामाजिक एकता का अर्थ एवं राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में शिक्षा की भूमिका
सामाजिक एकता का अर्थ एवं राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में शिक्षा की भूमिका

सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकीकरण से आप क्या समझते हैं ? सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में शिक्षा की भूमिका की चर्चा कीजिए।

सामाजिक एकता से आप क्या समझते हैं ?

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है। समाज की पहली इकाई परिवार होता है। परिवार का तात्पर्य एक पति-पत्नी से उत्पन्न सन्तानों के समूह को ही परिवार नहीं माना जाता है अपितु उन सदस्यों के मध्य आपसी भावनात्मक सम्बन्धों पर परिवार का अस्तित्व निर्भर करता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सामाजिक एकता का तात्पर्य समाज के सदस्यों के मध्य आपसी भावनात्मक सम्बन्धों का अध्ययन अर्थात उनके भावनात्मक सम्बन्धों का अध्ययन है। मनुष्य समाज का एक भावनात्मक प्राणी है। भावना के कारण ही वे एक-दूसरे के साथ जुड़ते हैं और भावना के कारण ही वे एक-दूसरे से दूरी बनाते हैं। जब दो या दो से अधिक व्यक्ति रक्त, जाति, स्थान, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, भाषा, साहित्य, धर्म, आचार-विचार आदि किसी भी समानता के कारण एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं और किसी अन्य कारण से उनमें सरलता से अलगाव की सम्भावना नहीं होती है तो हम कहते हैं कि उनके बीच सामाजिक भावात्मक एकता है। प्रायः किसी जाति, समुदाय और राष्ट्र के व्यक्तियों के बीच भावात्मक एकता होती है और जब यह भावात्मक एकता समाप्त होती है तो उनका अस्तित्व अर्थात उनका सामाजिक आधार खतरे में पड़ जाता है।

कोई भी राष्ट्र कितना भी छोटा क्यों न हो उसमें अनेक जाति और धर्म के लोग रहते हैं। इसके रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, मान्यता, विश्वास और मूल्यों में विभिन्नता होती है। वस्तु स्थिति यह है कि इन भिन्नताओं को समाप्त नहीं किया जा सकता। तब आवश्यकता होती है इन भिन्नताओं को स्वीकार करने की, राष्ट्रीय हित को सदैव सामने रखने की। इस स्थिति में ही भावनात्मक एवं सामाजिक एकता सम्भव है।

“सामाजिक एवं भावनात्मक एकता का अर्थ विभिन्नताओं की समाप्ति नहीं, इसका अर्थ है कि व्यक्तियों को मतभेद का अधिकार है और अपनी इस भिन्नता को, वे बिना किसी भय एवं तर्क के आधार पर अभिव्यक्त कर सकते हैं, किन्तु राष्ट्रीय एकता और आधारभूत निष्ठाओं को दृष्टि में रखते हुए।”

सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में शिक्षा की भूमिका

मनुष्य एक सामाजिक – प्राणी है। समाज के अभाव में न तो चैन, सुखपूर्वक वह रह सकता है और न ही प्रगति कर सकता है। यही कारण है कि मनुष्य अपने समाज, समुदाय, परिवार के प्रति भावात्मक रूप से सम्बद्ध रहता है।

परिवार, जाति अथवा धार्मिक सम्प्रदाय किसी को ले लीजिए इनके सदस्यों के मध्य भावात्मक एकता होती है जो इस समाज या समुदाय की एकता के रूप में जानी जाती है। इस भावात्मक एकता के अभाव में कोई भी समूह, समुदाय या समाज अधिक दिनों तक जीवित या अस्तित्व में नहीं रह सकता। किसी राष्ट्र के अस्तित्व के लिए यह परम आवश्यक है कि उसके सदस्यों में भावात्मक एकता हो। इसे ही दूसरे शब्दों में राष्ट्रीय एकता कहते हैं। सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकता के मार्ग में कई कठिनाइयाँ आती हैं। जैसे-

  1. जातिवाद, भाषावाद, साम्प्रदायिकता और प्रान्तीयता
  2. राज्यों की भेदभाव पूर्ण नीति
  3. सत्ता प्राप्त करने हेतु वोट की राजनीति
  4. बढ़ती हुई जनसंख्या तथा बेरोजगारी
  5. समाज में आर्थिक विषमता
  6. विस्तारवादी नीति के समर्थक अन्य राष्ट्रों का हस्तक्षेप
  7. उदार शिक्षा का अभाव
  8. धार्मिक व नैतिक शिक्षा का अभाव
  9. जातिगत, क्षेत्रगत आधार पर भेद-भाव, आरक्षण

सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकता के निर्माण में शिक्षा को निम्नवत रूप से संगठित किया जाना आवश्यक है –

(1) शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन- सैद्धान्तिक रूप से शिक्षा के अनेकों उद्देश्यों को स्वीकार किया गया है। किन्तु आज शिक्षा परीक्षा प्रधान बनी हुयी है। अपेक्षाकृत बच्चों के स्वास्थ्य, आचरण, कौशल का विकास, नैतिकता, परोपकार, राष्ट्रीय प्रेम जैसे उद्देश्यों का अभाव है। इसे परिवर्तित करने की आवश्यकता है।

(2) शिक्षा के पाठ्यचर्या में परिवर्तन- विद्यालयी पाठ्यचर्या में ऐसे विषयों प्रकरणों को 1 सम्मिलित किया जाए जिनसे समाज सेवा, राष्ट्र सेवा, नैतिकता के गुणों को विकसित करने में सहायता मिले। राष्ट्रीय त्यौहारों को मनाना महापुरुषों के विषय में ज्ञान प्राप्त करना तथा उनके आदर्शों को जीवन में अपनाने के लिए प्रेरित करना इत्यादि।

(3) सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय पर्वों को मनाना- प्रायः विद्यालयों में सामाजिक, राष्ट्रीय तथा धार्मिक पर्वों में या तो अवकाश रहता है या फिर औपचारिकता मात्र कर दी जाती है। इससे युवाओं में समाज, राष्ट्र तथा धर्म के प्रति आस्था का भाव उत्पन्न नहीं होता है। आवश्यकता है कि विद्यालयों में इन पर्वों पर विशेष कार्यक्रमों का विधिवत आयोजन किया जाए तथा छात्रों एवं शिक्षकों की भागेदारी सुनिश्चित हो ।

(4) अन्तर्राज्यीय सांस्कृतिक एवं खेलकूद कार्यक्रमों का आयोजन – शिक्षण संस्थानों में अथवा विभागीय स्तर के कार्यक्रमों में यथासम्भव अन्तर्राज्यीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा अन्तर्राज्यीय खेलकूदों का आयोजन किये जाने से छात्रों को दूसरे प्रदेश की संस्कृति तथा दूसरे प्रान्त के खिलाड़ियों के साथ खेलकूद में स्वस्थ प्रतिस्पर्धात्मक भावना का विकास करने तथा अपना मूल्यांकन करने का अवसर मिलता है तथा एक-दूसरे से परिचित भी होते हैं। जो सामयिक तथा राष्ट्रीय एकता के लिए नितान्त आवश्यक है।

(5) अन्तर्प्रान्तीय प्रदर्शनियों का आयोजन – अन्तर्प्रान्तीय प्रदर्शनियों के आयोजन से एक-दूसरे प्रान्त की संस्कृति, सभ्यता, खानपान, परिधान तथा अन्य दैनिक उपभोग की वस्तुओं, साहित्यों, धार्मिक अनुष्ठान सम्बन्धी सामग्रियों को जानने तथा प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध होना सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता को विकसित करने में अत्यन्त सहायक होती है।

(6) अन्तर्राज्यीय शैक्षिक भ्रमण के आयोजन- से जहाँ छात्रों को दूसरे राज्यों के भौगोलिक, सामाजिक, शैक्षिक, ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है वहीं दूसरी ओर उनके आपसी मेल-मिलाप से एकता की भावना का विकास होता है। इन भ्रमणों के आयोजन से ज्ञान में वृद्धि, आत्मविश्वास में वृद्धि होती है तथा बहुत सारा व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त होता है जोकि किसी किताब या स्कूल में नहीं प्राप्त किया जा सकता।

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