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सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषा | सामाजिक परिवर्तनों के सम्बन्ध में प्रमुख धारणाएँ

सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषा | सामाजिक परिवर्तनों के सम्बन्ध में प्रमुख धारणाएँ
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषा | सामाजिक परिवर्तनों के सम्बन्ध में प्रमुख धारणाएँ

सामाजिक परिवर्तन का क्या अर्थ है ? इनसे सम्बन्धित धारणाओं का वर्णन कीजिए। 

सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Social Change)

सामाजिक परिवर्तन से तात्पर्य समाज में होने वाले परिवर्तनों से है। यह हम जानते हैं कि समाज का निर्माण मानव से होता है तथा मानव के जीवन में परिवर्तन होते रहते हैं। मानव के विचारों, आचार-विचार, व्यवहार, आदर्शों में परिवर्तन समय के साथ-साथ होते रहते हैं तथा इसी कारण मानव के जीवन में भी परिवर्तन होता रहता है। मानव के जीवन में परिवर्तन होने से स्वाभाविक है कि समाज में भी परिवर्तन होता है क्योंकि समाज मानव से ही बनता है। जिस प्रकार मानव का जीवन गतिशील है उसी प्रकार समाज भी गतिशील है। इस प्रकार कोई भी समाज ऐसा नहीं है जो परिवर्तनों से अछूता हो। यदि हम अपने समाज की ही बात करें तो हमारे पूर्वजों ने यह कभी भी नहीं सोचा होगा कि आगे भविष्य में रेडियो, टी० वी०, कम्प्यूटर, इण्टरनेट आदि वस्तुएँ आयेंगी। आज समाज में नई-नई मशीनों, यातायात के साधनों, दृश्य व श्रवण यन्त्रों, औद्योगिक व प्रौद्योगिकी क्रान्ति से जीवन व समाज के प्रत्येक क्षेत्र में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। इन परिवर्तनों को ही हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।

सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध में प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषायें निम्न प्रकार हैं-

सर जोन्स के अनुसार सामाजिक परिवर्तन वह शब्द है जो सामाजिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक संगठन के किसी अंग में अन्तर अथवा रूपान्तर को वर्णन करने के लिए प्रयोग किया जाता है।

गिलिन तथा गिलिन के शब्दों में सामाजिक परिवर्तन जीवन की मानी गई रीतियों से होने वाले परिवर्तन को कहते हैं चाहे ये परिवर्तन भौगोलिक दशाओं के परिवर्तन में हुए हों अथवा सांस्कृतिक साधनों में, अथवा जनसंख्या की रचना या सिद्धान्तों के परिवर्तन में अथवा प्रसार से अथवा समूह के अन्दर की आविष्कारों के फलस्वरूप ही हुए

मेरिल तथा एल्ड्रेज के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का अर्थ है कि बहुत बड़ी संख्या में व्यक्ति ऐसे कार्य कर रहे हैं जो कुछ दिनों पहले अथवा उनके पूर्वजों के कार्य से भिन्न हैं अर्थात् जब मानव व्यवहार संशोधित हो रहा है तो वह सामाजिक परिवर्तन का संकेत है।

सामाजिक परिवर्तनों के सम्बन्ध में प्रमुख धारणाएँ

सामाजिक परिवर्तनों के सम्बन्ध में अनेक समाजशास्त्रियों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये हैं जो निम्न प्रकार हैं-

1. प्रसिद्ध समाजशास्त्री ब्राउन ने कहा है कि सामाजिक परिवर्तन तथा सांस्कृतिक परिवर्तन में कोई अन्तर नहीं है उनका मानना है कि सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन का ही एक महत्त्वपूर्ण भाग है।

2. चौपिन ने अपनी धारणा के अनुसार, परिवर्तनों को तीन भागों में बाँटा है –

  1. वे परिवर्तन जो भौतिक संस्कृति से सम्बन्धित हैं।
  2. वे परिवर्तन जो अभौतिक संस्कृति से सम्बन्धित हैं।
  3. वे परिवर्तन जो संयुक्त संस्कृति से सम्बद्ध हैं।

इन तीनों भागों के तीन उदाहरण क्रमश: सामाजिक व्यवस्था आदर्श तथा शासन के रूप व संगठन हैं।

3. स्पेन्सर के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक उद्विकास एक ही वस्तु हैं। उसके अनुसार सामाजिक परिवर्तन समरूप धीरे-धीरे तथा प्रगतिशील होते हैं। स्पेन्सर का विश्वास था कि जिस प्रकार हम कम सन्तोषजनक स्थिति से अधिक सन्तोषजनक स्थिति की ओर बढ़ते हैं, सामाजिक परिवर्तन को भी विकास की निश्चित अवस्थायों में होकर बढ़ना पड़ता है।

4. लिस्टर वार्ड के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन सामाजिक लक्ष्यों तथा आकांक्षाओं पर आधारित होते हैं। इसलिए यह विकास के सिद्धान्त पर आधारित न होकर योजनाबद्ध, बुद्धि युक्त व सोद्देश्य होता है। प्रत्येक मानव अपनी बुद्धि के अनुसार उन लक्ष्यों को निर्धारित करता है जिन्हें वह प्राप्त कर सकता है उन लक्ष्यों को प्राप्त करने से ही सामाजिक परिवर्तन होता है।

5. ऑगबर्न के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन तथा सांस्कृतिक परिवर्तन में कोई अन्तर नहीं है उनके अनुसार, संस्कृति के दो रूप हैं- (i) भौतिक, (ii) अभौतिक ।

भौतिक संस्कृति में नई मशीनें, रेडियो, टी० वी०, संचार साधन, यातायात साधन आदि आते हैं तथा अभौतिक संस्कृति में आदर्श, विचार, विश्वास, आदतें, धारणायें, रीति-रिवाज, परम्पराएँ व मनोवृत्तियाँ आदि आते हैं। ऑगबर्न का मानना था कि पहले भौतिक तत्त्वों में परिवर्तन होता है उसके बाद अभौतिक तत्त्वों में। इस प्रकार भौतिक तत्त्वों के परिवर्तन में सामाजिक परिवर्तन निहित है। जब भौतिक संस्कृति की अपेक्षा अभौतिक संस्कृति पीछे रह जाती है तो सामाजिक व सांस्कृतिक विलम्बना उत्पन्न हो जाती है। यह केवल शिक्षा के द्वारा ही दूर हो सकती है।

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