मानसिक या बौद्धिक विकास का अर्थ
मानसिक अथवा बौद्धिक विकास से तात्पर्य व्यक्ति की उन सभी मानसिक योग्यताओं और क्षमताओं में वृद्धि और विकास से है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति बदलते हुए परिवेश के साथ ठीक प्रकार समायोजन करता है और समस्त कठिनाइयों का हल ढूँढ़ने अपनी मानसिक शक्तियों को समर्थ पाता है। जन्म के समय बच्चे का केवल शरीर ही होता है और उस शरीर में अर्थहीन भावनाएँ होती हैं, लेकिन समय के साथ-साथ, धीरे-धीरे उसमें परिवर्तन आते हैं और इन्हीं परिवर्तनों को मानसिक विकास कहते हैं।
लॉक ने जन्म के समय बच्चे के मस्तिष्क को एक ‘कोरी स्लेट’ का नाम दिया है और अनुभव द्वारा ही मस्तिष्क में विचारों और अर्थ की उत्पत्ति होती है। प्रथम अनुभव किसी अर्थ के बिना होता है, परन्तु किसी अनुभव को दोहराते रहने से वह अनुभव मस्तिष्क के लिए महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं। ये अनुभव महत्त्वपूर्ण तभी बनते हैं जब विचार, स्मृतियाँ और संवेगात्मक दृष्टिकोण में सम्बन्ध स्थापित होता है। कोफ्का का कहना है कि, पहला पहला अनुभव भी अर्थ-विहीन नहीं होता। प्रत्येक अनुभव में किसी न किसी प्रकार का अर्थ विद्यमान रहता है। एक प्रकार के अर्थ से दूसरे प्रकार के अर्थ का ज्ञान होता है।
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मानसिक विकास का दो दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता है। प्रथम, परिमाणात्मक मानसिक परीक्षण, द्वितीय, गुणात्मक विकासात्मक मनोविज्ञान, प्रथम दृष्टिकोण के अनुसार इस बात का अध्ययन किया जाता है कि किसी विशेष आयु वर्ग के शिशुओं की तुलना में किसी विशेष शिशु की मानसिक योग्यताएँ कितनी हैं? दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार इस बात का पता लगाया जाता है कि शिशु किस तरह की योग्यताओं और प्रत्ययों का प्रदर्शन करता है।
परिमाणात्मक मानसिक अभिवृद्धि के अन्तर्गत व्यक्ति की बुद्धि शामिल है। गुणात्मक मानसिक वृद्धि के अन्तर्गत मानसिक प्रक्रियाओं का विकास सम्मिलित करते हैं।
बाल्यावस्था के दौरान विभिन्न मानसिक या बौद्धिक पक्षों का विकास
मानसिक विकास में विभिन्न प्रक्रियाओं का समावेश होता है। इन प्रक्रियाओं द्वारा बच्चा विभिन्न मानसिक क्षेत्रों में समय के साथ-साथ धीरे-धीरे विकसित होता रहता है। परिणामस्वरूप बच्चे की विभिन्न मानसिक योग्यताएँ और शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं। मानसिक विकास के क्षेत्रों या पहलुओं का ज्ञान अध्यापक को कक्षा में अत्यधिक समझदार बना देता है। अतः इनका अध्ययन अति आवश्यक है। मानसिक विकास की प्रक्रिया में निम्नलिखित पक्ष या क्षेत्र या पहलू शामिल होते हैं-
1. संवेदन और प्रत्यक्षीकरण-
प्रत्यक्षीकरण में वे सभी प्रक्रियाएँ शामिल हैं, जिनके द्वारा हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्रदान किए गए सभी सन्देशों को प्राप्त करते हैं।
लेकिन बालक की प्रत्यक्ष ज्ञान योग्यता उसकी संवेदन क्षमता में वृद्धि होने से बढ़ती है और उसकी संवेदन क्षमता उसकी ज्ञानेन्द्रियों अर्थात् कान, नाक, जीभ आदि के विकास द्वारा बढ़ती है। जीवन के प्रथम वर्षों में प्रत्यक्षीकरण का विकास ही अत्यधिक होता है। प्रारम्भ में तो बच्चे की संवेदन क्षमता और प्रत्यक्षीकरण अविकसित होते हैं। साधारण भाषा में हम यह कह सकते हैं कि प्रारम्भ में बच्चों में वस्तुओं को पहचानने या अर्थ जानने की योग्यता विकसित नहीं होती।
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प्रत्यक्षीकरण और संवेदन का आपस में गहरा सम्बन्ध है। क्योंकि सबसे पहले संवेदन द्वारा ही ज्ञानेन्द्रियों से हमें सूचनाएँ प्राप्त होती हैं, और फिर हम उसका अर्थ निकालते हैं। यह अर्थ निकालने की प्रक्रिया ही प्रत्यक्षीकरण कहलाती है। प्रत्यक्षीकरण के अन्तर्गत कुछ प्रत्यक्ष ज्ञान योग्यताएँ प्रमुख होती हैं, जैसे- दृश्य, श्रव्य, स्वाद, सूँघना और स्पर्श इत्यादि।
इन्द्रियाँ जन्म के समय से ही विकसित होती हैं और जन्म के पश्चात् उनमें परिपक्वता आने लगती है। इन इन्द्रियों को साधारण माना गया है, लेकिन गिबसन के अनुसार यही इन्द्रियाँ बच्चे का ‘संवेदी तंत्र’ बनाती हैं, क्योंकि ये इन्द्रियाँ दूसरी संवेदी प्रक्रियाओं के साथ अन्तः क्रिया करती है। उदाहरणार्थ, सूँघना और स्वाद दोनों ही दृश्य-संवेदन से सम्बन्धित होते हैं।
विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में तो बच्चे की दृष्टि स्थित नहीं होती। वह अपने आसपास की वस्तुओं पर नजर नहीं टिका सकता, लेकिन वह नज़र टिकाने का प्रयास अवश्य करता है। यह संवेदन की पहली अवस्था होती है।
व्यक्तियों में, वस्तुओं में विभेदीकरण करना, ध्वनि को पहचानना आदि प्रत्यक्षीकरण की क्षमता के विकास की ओर संकेत करते हैं। धीरे-धीरे वह सभी ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग शुरू कर देता है। उसमें अपने आसपास के वातावरण को जानने की आकांक्षा पैदा होती है।
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प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया इस उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट की जा सकती है बच्चा किसी वस्तु को एक कोने पर रखने का प्रयत्न करता है तो वह उसे मेज़ पर न रखकर मेज़ की ऊँचाई से कम या ज्यादा रखकर या इधर-उधर करके छोड़ देता है और वह समझता है कि उसने उस वस्तु को मेज़ पर रख दिया है। विकास की अवस्थाओं के साथ-साथ उसकी प्रत्यक्ष ज्ञान की योग्यता भी बढ़ती रहती है। परिपक्वता ग्रहण करने के पश्चात् वह उस वस्तु को नीचे या इधर-उधर कदापि नहीं गिरने देगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मानसिक विकास की प्रक्रिया में संवेदन और प्रत्यक्षीकरण के विकास का
कितना महत्व है। संक्षेप में, संवेदन और प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी तथ्य निम्नलिखित हैं-
(i) समस्त ज्ञानेन्द्रियों द्वारा संदेश प्राप्त करने की प्रक्रिया ही अर्थ जानने की प्रक्रिया ही क्रमशः संवेदन और प्रत्यक्षीकरण हैं।
(ii) बहुत छोटे बच्चों में संवेदन और प्रत्यक्षीकरण अविकसित होते हैं।
(iii) संवेदन और प्रत्यक्षीकरण में गहरा सम्बन्ध होता है।
(iv) इन्द्रियाँ जन्म के समय से ही विकसित होती हैं तथा जन्म के पश्चात् वे और परिपक्व हो जाती हैं।
(v) प्रारम्भिक संवेदन की अवस्था है बच्चे की दृष्टि का अस्थिर होना।
(vi) अन्तर ढूँढ़ने की योग्यता का अर्थ है- प्रत्यक्षीकरण क्षमता में वृद्धि का होना।
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2. भाषा का विकास-
मानसिक विकास भाषा के विकास के साथ भी जुड़ा हुआ है। इस आयु में भाषा का विकास अधिकतर ‘क्यों’ और ‘कैसे’ पर ही आश्रित होता है। ‘क्यो’ और ‘कैसे’ दोनों ही परस्पर सम्बन्धित हैं। बच्चे में वयस्कों की भाषा का अनुकरण ही होता है। जैसे— विकास भी विकास की अवस्थाओं के अनुसार ही होता है। जैसे-
(i) प्रारम्भ में बालक चिल्लाता है या किलकारी जैसी ध्वनियाँ निकालता रहता है।
(ii) यही किलकारियाँ बच्चों की इच्छाओं की संकेतक होती हैं।
(iii) जन्म के बाद प्रथम वर्ष में बच्चा कुछ शब्द सीख जाता है तथा फिर उसका शब्द भंडार बढ़ने लगता है।
(iv) भाषा के विकास में अनुकरण का बहुत महत्त्व होता है।
(v) कई बार बच्चों में भाषा सम्बन्धी दोष भी उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे—तुतलाना, हकलाना आदि।
(vi) शब्द-कोष में वृद्धि होने से उनमें वाक्य निर्माण और अपने भावों को व्यक्त करने की क्षमता में भी वृद्धि होने से उनमें वाक्य निर्माण और अपने भावों को व्यक्त करने की क्षमता में भी वृद्धि होती रहती हैं।
(vii) बचपन में कुछ शब्दों के विकास से लेकर किशोरावस्था तक भाषा विकास में परिपक्वता आ जाती है।
(viii) किशोरों का वातावरण भी भाषा कौशलों के विकास का उत्तरदायी है। बच्चे जो बेहतर सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से सम्बन्ध रखते हैं, उनें भाषा की योग्यताओं का उत्तम विकास होता है।
(ix) परिवार में अकेला बच्चा हो तो उसका भाषाई विकास अधिक देखा गया है, क्योंकि बच्चा वयस्कों की भाषा का अनुकरण करता है। जुड़वा बच्चे एक-दूसरे की भाषा का अनुकरण करते हैं।
(x) बुद्धि और भाषाई कौशल भी आपस में सम्बन्धित होते हैं। उच्च-बुद्धि स्तर वो बालकों में भाषाई कौशलों का स्तर भी उच्च ही होता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बच्चों की भाषा के विकास में घर के वातावरण का बहुत हाथ होता है। अध्यापक भी परिवार की सहायता से बच्चों को भाषा विकास के लिए आवश्यक प्रशिक्षण प्रदान कर सकता है।
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3. बोध शक्ति का विकास-
बोध शक्ति के अन्तर्गत विभिन्न सप्रत्ययों या धारणाओं का विकास सम्मिलित है, जैसे स्वयं का प्रत्यय स्थान का प्रत्यय, भार, संख्या, आकार, स्वरूप तथा सौन्दर्यात्मक अनुभूति। इस प्रकार के प्रत्ययों का विकास बच्चों में धीरे-धीरे होता है। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार से है-
(i) स्वयं की धारणा या प्रत्यय – जब बच्चा यह समझने लगे कि उसका किन-किन चीजों से सम्बन्ध है तो इसका अर्थ है वह स्वयं ही धारणा यह प्रत्यय प्रस्तुत कर रहा है। उसे भूख-प्यास लगती है और वह खाना और पानी माँगता है। वह अपने कपड़े माँगता है। वह अपने उन खिलौनों को माँगता है जिन्हें उसे दूर छुपा रख दिया गया होता है। ऐसा वह 2-3 वर्ष की आयु तक करना शुरू कर देता है और धीरे-धीरे वह स्वयं को और वस्तुओं से जोड़ लेता है। इसका अर्थ यह हुआ कि उसमें स्वयं के बारे में धारणा का विकास हो गया है।
(ii) समय की धारणा या प्रत्यय – 4-5 वर्षों की आयु तक तो बच्चा 2-3 दिन पहले हुई घटनाओं को जोड़ने का प्रयास करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि उसमें समय सम्बन्धी धारणा विकसित हो गई हैं। वह कल, आज, परसों, सप्ताह, महीने, वर्ष आदि का अर्थ समझने लगता है। दिन, सप्ताह, महीने, वर्ष, घंटे, मिनट आदि की अवधि का ज्ञान भी धीरे-धीरे उसे होने लगता है।
(iii) स्थान की धारणा या संप्रत्यय- जब बालक यह समझना शुरू कर दे कि उसे किसी वस्तु को कहाँ रखना है या उसे कहाँ बैठना है और कहाँ नहीं बैठना, तब उसका अर्थ है कि उसमें ‘स्थान’ सम्बन्धी धारणा विकसित हो गई है। उसे 2-3 वर्ष की आयु के पश्चात् शुरू हो जाता है।
(iv) भार की धारणा या प्रत्यय – आयु बढ़ने के साथ-साथ बच्चों को यह स्पष्ट होने लगता है कि कौन-सी चीज़ भारी है और कौन-सी हल्की 4-5 वर्ष की आयु तक बच्चा यह बताने लगता है कि वह क्या-क्या नहीं उठा सकता।
(v) संख्याओं का प्रत्यय या धारणा-शुरू में बच्चा संख्याओं से अनभिज्ञ होता है, लेकिन 2 3 वर्षों की आयु तक अपनी ऊँगलियों को गिनने के योग्य हो जाता है। वह गिनने के प्रयास में गलती भी कर सकता है। इस प्रकार बच्चों में संख्याओं सम्बन्धी धारणा का विकास होता है।
(vi) आकार का प्रत्यय धारणा- मानसिक विकास का एक आवश्यक पक्ष है, बालक में आकार सम्बन्धी धारणा का विकास होना। इसका अनुभव तब लगता है जब बच्चा विभिन्न चीज़ों को उनके आकार के अनुसार व्यवस्थित करता है, जैसे किसी खिलौने के विभिन्न भागों को ।
(vii) स्वरूप का प्रत्यय या धारणा- जब बच्चा किसी त्रिकोण, वृत्त या सीधी लाईन को समझने लगता है, तब हम कहते हैं कि उसमें ‘स्वरूप सम्बन्धी धारणा का विकास हो गया है। इस विकास के समय वह त्रिभुज, वृत्त, रेखा इत्यादि शब्दों का प्रयोग करने लगता है।
(viii) सौन्दर्यात्मक अनुभूति – बच्चे अक्सर सुन्दर वस्तुओं से प्रेम करते हैं। वे रंगों को अधिक पसंद करते हैं। बच्चे कागज़ पर चित्रों की ड्राईंग करते हैं तथा उन्हें वे अपने माता-पिता को दिखाते हैं। वे सुन्दर कपड़े पहन कर ही बाहर जाना पसंद करते हैं। बच्चों के इस प्रकार के विकास से यह स्पष्ट होता है। कि मानसिक विकास का सम्बन्ध सौन्दर्यात्मक अनुभूति से भी है।
ये सभी प्रत्यय या धारणाएँ एक-दूसरे पर आश्रित हैं तथा बच्चों में एक साथ ही विकसित होती हैं। अतः यह कहना बहुत कठिन है कि बच्चे में किस धारणा का विकास किस धारणा के पश्चात् होता है।
4. तर्क शक्ति और निर्णय लेना-
बच्चों में तर्क शक्ति और निर्णय लेने की शक्ति का संकेत हमें तब मिलता है जब वह अपने विचारों की अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से करने लगे। 2 वर्ष की आयु तक वह प्रवाह सहित बोलने लगता है। जब वह ‘क्यों का प्रयोग अधिक करने लगता है तो उसका अर्थ है कि उसमें तर्क-शक्ति का विकास हो चुका हैं जब वह यह कहने लगता है कि वह ‘यह पुस्तक नहीं पढ़ेगा’ तो इसका अर्थ हुआ कि उसमें निर्णय लेने की क्षमता का विकास हुआ है। तर्क-शक्ति और निर्णय लेने की शक्ति का सम्बन्ध भाषा के विकास के साथ होता है।
5. ध्यान, कल्पना और स्मरण शक्ति का विकास-
यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि बच्चे में ध्यान की शक्ति कब उत्पन्न होती है। लेकिन वह इस शक्ति का प्रदर्शन 1 या 2 वर्ष की आयु से करने लगता है। 4-5 वर्ष की आयु तक वह रंगीन खिलौनों की ओर अधिक ध्यान देता है। कई बार बच्चा किसी एक ही प्रकार के खिलौने की ओर ध्यान केन्द्रित करता है। इसी को ध्यान कहते हैं। कोई भी बच्चा अपनी रुचि की चीज़ों की ओर ध्यान देता है।
इसी प्रकार भाषा के विकास के साथ ही बच्चे में कल्पना शक्ति का विकास होता है, क्योंकि कल्पना के दौरान बच्चा अपने मन से बातें करता है। किसी बच्चे की क्रियाओं में कल्पना के चिह्न देखने कठिन नहीं होते। उसके द्वारा स्वप्न देखना ही कल्पना करना है तथा उसके द्वारा नाटकीय रूप देना भी कल्पना शक्ति का संकेतक है। वह सिपाही, चोर, अध्यापक, ड्राईवर आदि का अभिनय करता है। कल्पना शक्ति में वैयक्तिक भिन्नता होती है।
स्मरण शक्ति भी मानसिक विकास का महत्त्वपूर्ण पक्ष माना जाता है। प्रारम्भिक अवस्था में बालक की स्मरण शक्ति के बारे में अनुमान लगाना कठिन है। लेकिन आयु वृद्धि, परिपक्वता और अनुभवों के
माध्यम से धीरे-धीरे इसका विकास होता रहता है। भाषा के विकास के साथ तो स्मरण शक्ति और भी बढ़ जाती है। दो वर्ष की आयु तक बच्चे काफी कुछ याद रख सकते हैं। व्यक्ति और वस्तुओं के बारे में स्मरण शक्ति प्रथम दो वर्षों में अत्यधिक विकसित हो जाती है। इससे आगे की अवस्था में परिस्थितियों और घटनाओं के बारे में स्मरण शक्ति का विकास होना शुरू हो जाता है। प्रारम्भिक अवस्थाओं में स्मरण शक्ति – रटने पर आधारित होती है। किसी प्रकार का तर्क या सूझ-बूझ बच्चों में देखने को नहीं मिलती। किशोरावस्था और प्रौढ़ावस्था में पहुँच कर व्यक्ति में तर्क और सूझ-बूझ का विकास हो जाता है। प्रौढ़ावस्था के अन्त में स्मरण शक्ति क्षीण होनी शुरू हो जाती है।
6. नैतिक धारणाएँ या प्रत्यय –
नैतिक प्रत्ययों या धारणाओं के विकास से हमें मानसिक विकास का संकेत मिलता है। बच्चा कुछ समय लेता है, नैतिकता की भावना का प्रदर्शन करने के लिए प्रारम्भ में बच्चा अनैतिक होता है। बच्चा जब आस-पास की चीज़ों को समझना शुरू करता है तो वह अच्छे और बुरे के बारे में भी सोचना शुरू कर देता है । वह यह सोचना शुरू कर देता है कि दूसरों को हानि नहीं पहुँचाई जानी चाहिए। बच्चों में नैतिक धारणाओं या प्रत्ययों के विकास के लिए माता-पिता तथा अन्य पारिवारिक सदस्य उत्तरदायी होते हैं। अतः हमें बच्चों के चारों ओर एक उत्तम नैतिक वातावरण का निर्माण करना चाहिए।
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