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शारीरिक विकास से आप क्या समझते हैं? शारीरिक विकास की मुख्य विशेषताओं की विवेचना कीजिए।

शारीरिक विकास का अर्थ तथा शारीरिक विकास की विशेषताएँ
शारीरिक विकास का अर्थ तथा शारीरिक विकास की विशेषताएँ

शारीरिक विकास का अर्थ | Sharirik Vikas ka Arth

नवजात शिशु पर्याप्त पोषण व उपयुक्त देखभाल के फलस्वरूप ऊँचाई व भार में उस समय तक बढ़ता रहता है, जब तक शारीरिक विकास परिपक्वता की अवस्था को प्राप्त नहीं हो जाता है। शारीरिक विकास अत्यधिक तीव्र गति से होता है।

एक सूक्ष्म जीव कोष नौ महीने के अंदर (जन्म के समय) एक मानव शिशु बन जाता है। जन्म के पश्चात् भी विभिन्न विकासात्मक अवस्थाओं के अंतर्गत शारीरिक विकास निरंतर होता रहता है। लगभग बीस साल में बालक पूर्ण वयस्क शरीर प्राप्त कर लेता है। इसके पश्चात् केवल शारीरिक भार में अंतर होता रहता है।

शारीरिक विकास से तात्पर्य, सामान्य शारीरिक रचना, शरीर की ऊँचाई, भार, शारीरिक अवयवों का अनुपात, आंतरिक अंगों, हड्डियों तथा मांसपेशियों का विकास, स्नायु मंडल तथा मस्तिष्क तथा अन्तःस्रावी ग्रंथियों के विकास से है। इनमें से किसी भी एक अंग के विकास के कुंठित हो जाने से बालक के शारीरिक स्वास्थ्य पर ही प्रभाव नहीं पड़ता, वरन् उसका मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, क्रियात्मक विकास आदि भी प्रभावित होता है, क्योंकि बालक का शारीरिक विकास उसके अन्य सभी प्रकार के विकासों के साथ किसी न किसी रूप में सम्बन्धित होता है और इसी पर बालक का बौद्धिक, व्यावहारिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक समायोजन निर्भर करता है।

बालक का शारीरिक विकास शरीर के निम्नलिखित चार क्षेत्रों को प्रभावित करता है

1. स्नायुमंडल का विकास-स्नायु मंडल के विकास के साथ संवेगों तथा बुद्धि का विकास होता. है। बालक के व्यवहार संवेगों अथवा बुद्धि द्वारा संचालित होते हैं। संवेगात्मक स्थिरता तथा बौद्धिक प्रगति के कारण बालक के व्यवहार संयत तथा संतुलित होने लगते हैं।

2. मांसपेशियों में अभिवृद्धि- मांसपेशियों में अभिवृद्धि के साथ बालक में अपने अंगों पर नियंत्रण करने की शक्ति आ जाती है। गामक विकास के साथ बालक की क्रियाशीलता में वृद्धि हो जाती है तथा उसके कार्यकाल व्यवस्थित होने लगते हैं।

3. अंतःस्त्रावी ग्रंथियों का विकास- अंतःस्रावी ग्रंथियों के उचित विकास तथा उनकी सक्रियता द्वारा बालक का शरीरिक विकास प्रभावित होता है।

4. शारीरिक ढांचे में विकास- शारीरिक ढांचे में विकास का अर्थ बालक के शरीर की रचना, भार, लम्बाई तथा अंगों के अनुपात में स्थायित्व आने से है। शरीरिक विकास उत्तम स्वास्थ्य पर निर्भर करता है तथा स्वस्थ व्यक्ति में ही संतुलित व्यक्तित्व का विकास संभव हो पाता है।

शारीरिक विकास की विशेषताएँ | sharirik vikas ki visheshtaen

शारीरिक विकास की अपनी कुछ विशेषताएँ होती हैं, जो भिन्न-भिन्न आयु स्तर पर अलग-अलग होती हैं। बचपन तथा किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक विकास क मुख्य विशेषताएँ निम्न प्रकार से हैं

1. शरीरिक विकास सामान्यतः बाल्यकाल तथा किशोरावस्था में समान गति से नहीं होता— छः से ग्यारह वर्ष की आयु बचपन काल तथा 12 साल से लेकर 20 साल की आयु किशोरावस्था कहलाती है। इन अवस्थाओं में शारीरिक विकास में काफी उतार-चढ़ाव आते हैं। बाल्यकाल में वृद्धि की गति बहुत धीमी होती है, परंतु किशोरावस्था में वृद्धि की यह गति तीव्र हो जाती है। बालकों और बालिकाओं में विकास का स्वभाव प्रायः एक सा होता है। परंतु 12, 13 वर्षों में यानी किशोरावस्था में लड़कियों की औसत लम्बाई, लड़कों की औसत लम्बाई से अधिक होती है, क्योंकि किशोरावस्था के अन्त तब जब बालक में लगभग परिपक्वता आ चुकी होती है, उसकी अनेक हड्डियाँ परस्पर संयुक्त हो जाती है।

‘परिणामस्वरूप हड्डियों में कड़ापन पर्याप्त मात्रा में आ चुका होता है। 5 से 6 वर्ष की अवधि तक मांसपेशियों का विकास तीव्र गति से बढ़ता है। किशोरावस्था में मांसपेशियों का विकास जन्म से बीस गुणा हो जाता है। किशोरावस्था में पहुँचते-पहुँचते बालक का सिर उसके शरीर की लम्बाई के दसवें भाग बराबर हो जाता है। हाथ-पैरों की वृद्धि भी इस काल में अन्त तक तीव्र गति से पूरी हो जाती है।

बाल्यकाल में दूध के दांत झड़कर नये दाँत निकल आते हैं। दाँतों के विकास में भी व्यक्तिगत भिन्नता पाई जाती है। बालिकाओं में बालकों की अपेक्षा अस्थायी दाँत शीघ्र निकलते गिरते हैं। किशोरावस्था तक 27, 28 दाँत निकल आते हैं।

2. बाल्यकाल तथा किशोरावस्था में विकास शिरोपुच्छीय तथा समीपो- दूरस्थ होता है – इन अवस्थाओं में विकास निम्न दो तरीकों से होता है-

(i) सिर से पैर तक (शिरोपुच्छ-क्रम)

(ii) शरीर के मध्य से दूर दिशा तक (समीपो-दूरस्थ क्रम)

(i) शिरोपुच्छ-क्रम – शिरोपुच्छ क्रम में सिर के पास वाले क्षेत्रों को प्राथमिकता मिलती है। छोटे बच्चों के सिर का भाग उसके नीचे के भाग से ज्यादा विकसित होता है, परिणामस्वरूप बच्चे का सिर ज्यादा बड़ा दिखाई देता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है उसके नीचे का भाग विकसित होता जाता है।

(ii) समीपो दूरस्थ क्रम- यह क्रम शरीर के मध्य भाग से दूर दिशा में होता है। शरीर के मध्य से पास वाले भागों को अभिवृद्धि में प्राथमिकता मिलती है। जैसे कुहनी, उंगलियों का विकास, पूरे हाथ या पैर के बाद होता है।

3. बाल्यकाल व किशोरावस्था में वृद्धि व विकास में अंतर होता है – यद्यपि बाल्यकाल व  किशोरावस्था में शारीरिक विकास का क्रम-सा होता है, फिर भी इन अवस्थाओं में व्यक्तिगत भिन्नता, जो कि शारीरिक ऊँचाई, भार तथा शारीरिक अंगों के अनुपात में पाई जा सकती है। उदाहरण के लिए, यदि हम एक ही आयु वर्ग के बालकों की लम्बाई व भार का अध्ययन करें तो पायेंगे कि उनकी लम्बाई व भार में बहुत व्यक्तिगत भिन्नता है। इसी तरह एक ही आयु वर्ग के किशोरों की लम्बाई व भार का अध्ययन करें, तो हम पायेंगे कि उनमें भी व्यक्तिगत भिन्नताएँ हैं।

4. शारीरिक विकास में बाल्यकाल तथा किशोरावस्था में लैंगिक अंतर भी पाया जाता है – शारीरिक विकास में इन दोनों अवस्थाओं में लैंगिक अंतर भी पाया जाता है। लड़कियों के कद में वृद्धि 9 वर्ष की आयु से शुरू होती है और 12 या 13 वर्ष की आयु तक यह वृद्धि अधिकतम सीमा तक पहुँच चुकी होती है, जबकि लड़कों में यह वृद्धि 11 वर्ष से प्रारंभ हो 14 से 15 साल तक की आयु के बीच अधिकतम सीमा तक पहुँचती है। लड़कियों में लड़कों की अपेक्षा लैंगिक परिपक्वता भी लगभग दो वर्ष पहले आ जाती है। लैंगिक परिपक्वता ग्रहण करने से ढाई से साढ़े तीन वर्ष की अवधि में लड़कियों के कद में सबसे अधिक वृद्धि होती है।

लड़कियाँ 12 वर्ष की आयु तथा लड़के 14 वर्ष की आयु तक अपना अधिकतम भार ग्रहण कर लेते हैं। बालिकाओं में बालकों की अपेक्षा दूध के दाँत जन्दी निकलते हैं और गिरते हैं। जब तक सारे दाँत नहीं निकल आते, बालिकायें दाँतों के विकास में हर आयु पर बालकों से आगे होती हैं। बालकों में बालिकाओं की अपेक्षा पेशीय शक्ति अधिक होती है। बालिकाओं का पाचन तंत्र बालकों की अपेक्षा कम विकसित होता है।

शरीर के विभन्न भागों में विकास का तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चलता है कि लड़कों में वक्षीय परिधि तथा कलाई लड़कियों की अपेक्षा अधिक चौड़ी होती है, जबकि लड़कियों की जांघ ज्यादा चौड़ी होती है। बालक के फेफड़े लगभग 20 वर्ष की आयु तथा बालिकाओं के फेफड़े लगभग 17 वर्ष की आयु में पूर्ण विकसित होते हैं।

5. विभिन्न शारीरिक गुण एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं, न कि प्रतिलोभी–प्रायः यह देखा जाता है कि लोगों की धारणा होती है कि यदि बालक विकास के एक पक्ष में अधिक अच्छा है तो वह विकास के अन्य पक्ष में पिछड़ा हुआ होगा। उदाहरणार्थ पहलवान बालकों व किशोरों के बारे में धारणा बना ली जाती है कि ये अधिक बुद्धिमान नहीं होते हैं, परंतु इस तथ्य के कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं। अमेरिका के एक मनोवैज्ञानिक हरमन ने यह सिद्ध किया है कि एक व्यक्ति में बहुत से वांछित गुण पाये जाते हैं। एक ही व्यक्ति में उसकी लम्बाई, भार, चालक, कुशलताओं, बीमारियों से लड़ने की शक्ति, लम्बी आयु आदि में काफी घनिष्ठ सम्बन्ध होता है ।

अतः निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि विकास समान गति से नहीं होता। बाल्यकाल में यह धीमी गति से होता है, परंतु किशोरावस्था में इसकी गति तीव्र हो जाती है। यह विकास शिरोपुच्छीय तथा समीपो-दूरस्थ नियमों पर आधारित होता है, जिसमें लैंगिक व व्यक्तिगत भिन्नताएँ पाई जाती हैं ।

6. बालों का विकास – बाल्यकाल की अंतिक अवस्था तथा पूर्व किशोरावस्था में पेट के निचले वाले क्षेत्र, बगलों, टांगों आदि पर बाल उग आते हैं। लड़कियों की छाती विकसित अवस्था में होती है। लड़कों में दाढ़ी, मूंछ आदि विकसित अवस्था में होती है।

7. आवाज में परिवर्तन – पूर्व किशोरावस्था में लड़के व लड़कियों की आवाज में परिवर्तन आना शुरू हो जाता है। धीरे-धीरे लड़कियों की आवाज पतली व लड़कों की आवाज मोटी होनी शुरू हो जाती

8. वीर्यपात और हावारी का आरंभ – पूर्व किशोरावस्था में काम ग्रंथियाँ काम करना आरंभ कर देती हैं। लड़कों में वीर्य ग्रंथियाँ तथा लड़कियों में महावारी का चक्र शुरू हो जाता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि विभिन्न शारीरिक गुण एक-दूसरे के प्रतिलोभी नहीं होते, बल्कि एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं।

अतः शारीरिक विकास की उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर यह कहा जा सकता है। शारीरिक विकास की गति स्थिर नहीं होती, वरन् पृथक् आयु अंतराल में भिन्न होती है।

हरलॉक के अनुसार- “अभिवृद्धि लयात्मक होती है, नियमित नहीं।” विकास प्रक्रिया में तीव्रता तथा मन्दता का एक क्रम होता है तथा सभी व्यक्तियों में विकास चक्र निश्चित समय पर नहीं प्रकट होते । व्यक्तिगत विभेद के कारण विकास चक्र की गति तथा अंतराल में भिन्नता होती है। विभिन्न अंगों के विकास की गति भी अलग-अलग अवस्थाओं में समानता नहीं होती। टॉमसन का कथन है, “मानव शरीर समग्र के रूप में अभिवृद्धि नहीं करता, न ही यह सभी दिशाओं में एक साथ विकसित होता है। “

शरीर के सभी अंगों के आकार का विकास अलग-अलग नियमों के अंतर्गत होता है। शरीर के कुछ अवयवों का विकास एक निश्चित अवस्था में ही होता है। 

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