हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता पर लेख
हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता- हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता हिन्दी साहित्य के विकास का अभिन्न अंग है। दोनों परस्पर एक-दूसरे का दर्पण हैं। इस दृष्टि से दोनों में द्वन्द्वात्मक (डायलेक्टिकल) और आवयविक (अश्वर्गेनिक) एकता सहज ही लक्षित की जा सकती है। वस्तुतः हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता हमारे आधुनिक साहित्यिक इतिहास का अत्यंत गौरवशाली स्वर्णिम पृष्ठ है। स्मरणीय है कि हिन्दी के गद्य साहित्य और नवीन एवं मीलिक गद्य-विधाओं का उदय ही हिन्दी पत्रकारिता की सर्जनात्मक कोख से हुआ था।
यह पत्रकारिता ही आरंभकालीन हिन्दी समाचार पत्रों के पृष्ष्ठों पर धीरे-धीरे उभरने वाली अर्ध-साहित्यिक पत्रकारिता से क्रमशः विकसित होते हुए, भारतेन्दु युग में साहित्यिक पत्रकारिता के रूप में प्रस्फुटित हुई थी।
भारतेन्दु हरिशचन्द्र (सन् 1850-1885 ई0) की पत्रिकाओं कविवचनसुधा (1867 ई०), हरिशन्द्र मैगजीन (1873 ई0) और हरिशचन्द्र चंद्रिका (1874 ई0) से ही हमें वास्तविक अर्थों में हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के दर्शन होते हैं। हिन्दी की आरंभकालीन साहित्यिक पत्रकारिता से ही हिन्दी गद्य का चलता हुआ रूप निखर कर सामने आया और भारतेन्दु युग से गद्य-विधाओं और गद्य साहित्य की अखंड परंपरा का अबाध आविर्भाव हुआ।
पृष्ठभूमिः छापेखानों की और पत्रों की शुरुआत- अठारहवीं शताब्दी में भारत के कई नगरों ,गोआ, बंबई, सूरत, कलकत्ता और मद्रास में अनेक छापेखाने (प्रिंटिंग प्रेस) कायम हो गए थे स हालाँकि, हालैंड में 1430 ई0 में पहले प्रिंटिंग प्रेस के लगभग सवा सदी बाद, गोआ में 1556 ई0 में भारत का पहला प्रेस कायम हुआ था। परमेश्वरन थंकप्पन नायर के शब्दों में न केवल, “हिन्दी और उर्दू की पत्रकारिता का जन्म कलकत्ता में हुआ,” बल्कि “कलकत्ता को पूरे दक्षिण-पूर्व एषिया में पत्रकारिता का जन्म स्थान माना जा सकता है। कलकत्ता से ही 1765 ई० में एक डच विलियम बोल्ट ने पत्रकारिता के आरंभिक प्रयास किए थे और अंतत: 1766 में अपना पहला”नोटिस” छापा था।
कुछ विद्वानों की मान्यता है कि, भारत में पत्रकारिता का आरंभ 1774 ई0 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार की ओर से मुद्रित एवं प्रकाशित “केलकेटा गजेट” से हुआ था। जो कि सही नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह स्वतंत्र पत्रकारिता नहीं थी। इसलिए अधिकांश विद्वानों का मत है, जो प्रायः स्वीकार्य भी है, कि भारत में पत्रकारिता की शुरुआत एक आयरिश जेम्स अश्वगस्टस हिकी ने 27 जून,1780 ई0 को अंग्रेजी में “बंगाल गजेंट अश्वफ केलकेटा एडवरटाइजर्स” नामक साप्ताहिक निकाल कर की।
हिन्दी का स्वरूप और हिन्दी पत्रों का आरंभ- डॉ. शिवमंगलं राय के अनुसार “सन् 1779 आते-आते प्रथम भारतीय बाबू राम ने भी कलकत्ता में अपना प्रेस खड़ा कर लिया। हालाँकि प्रिओल्कर और नाइक ने देवनागरी में छपाई का समय 1796 में निर्धारित किया है, जबकि कुछ विद्वान इसे और भी पहले बताते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि 1786 से पहले तक तो कलकत्ता में देवनागरी टाइप.ही उपलब्ध नहीं था। परमेश्वरन नायर के अनुसार “देवनागरी लिपि में छपाई के काम की शुरुआत कलकत्ता से ही हुई थी” और वहीं से आरंभकालीन हिन्दी का साहित्य भी प्रचुर मात्रा में लिखा गया था तथा1827 तक पूरे उत्तर भारत में हिन्दी का स्वरूप उभर कर सामने आ गया था। इससे स्पष्ट है कि अंग्रेजों द्वारा फोर्ट विलियम से हिन्दी गद्य के तथाकथित “निर्माण” और देवनागरी लिपि में फारसी-बोझिज्ञ तथाकथित “हिन्दुस्तानी” भाषा के “विकास” एवं उसकी “लोकप्रियता” के दावे निराधार और झूठे प्रमाणित होते हैं। श्रीरामपुर (सीरामपुर) के मिशनरियों के हिन्दी मासिक “दिग्दर्शन” (1817-18) के दो माह के भीतर “बेंगाल ग्याजेट” और “समाचार दर्पण” दो बाँग्ला साप्ताहिक पत्र निकले तथा 30 मई, 1826 को पहला हिन्दी समाचार पत्र साप्ताहिक “उदंतमात्तंड” उदित हुआ। इसके संपादक, मुद्रक और प्रकाशक पं0 युगलकोशोर शुक्ल स्वयं एक सहृदय कवि एवं सुलेक्जक थेय अत: आरंभ से ही इस पत्र का रुझान लगभग अर्ध-साहित्यिक था।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भी अपने “हिन्दी साहित्य का इतिहास’ (मुद्रण: सं0 1995) में इसे हिन्दी का पहला पत्र बताते हुए लिखते हैं कि उदंतमातांडके बाद काशी के “सुधाकर’ और आगरा के “बुद्धि प्रकाश” आदि के प्रयासों से अदालती भाषा उर्दू बनाई जाने पर भी, वुक्रम की 20वीं शताब्दी के आरंभ के पहले से ही (यानी सन् 1840-45ई0 के पहले से ही) हिन्दी खड़ी बोली गद्य की परंपरा हिन्दी साहित्य में अच्छी तरह चल पड़ी य उसमें पुस्तकें छपने लगी, अखबार निकलने लगे। कहना ना होगा कि इन अखबारों के अर्ध-साहित्यिक रूप से ही क्रमशः साहित्यिक प्तरकारिता का विकास हुआ।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इस पत्रकारिता, नवोदित गद्य-साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता का स्वरूप आरंभ से ही राजनीतिक और विचारधारात्मक रहा है। अर्थात उपनिवेशवाद- विरोधी और लोकोन्मुख भले ही उन पत्रकारों और लेखकों ने औपनिवेशिक विदेशी सत्ता, उसके कठोर सेंसरशिप और दमनकारी पेअशासन-तंत्र की आँखों में धूल झोंकते हुए केसे भी संकेतात्मक, छद्म और प्रतीकवादी तरीके क्यों न अपनाएँ हो। हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपनी आँखों से सन् 1857 का “गदर” उसके असफल रहने पर उन प्रथम स्वाधीनता-संग्रामियों का निर्मम नरसंहार और सामान्य भारतवासियों का नृशंस दमन देखा था।
आचार्य शुक्ल 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से गद्य-साहित्य की परंपरा का संबंध जोड़ते हुए “इतिहास’ में लिखते हैं कि “गद्य-रचना की दृष्टि से ३३३ संवत 1914 (अर्थात 1857 ई0) के बलवे (गदर) के पीछे ही हिन्दी गद्य-साहित्य की परंपरा अच्छी चली” । इस तरह हम देखते हैं कि हिन्दी पत्रकारिता से ही साहित्यिक पत्रकारिता और गद्य साहित्य का विकास होता है और दूसरे, आरंभकाल से ही जुझारू गद्य-साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता का संबंध हमारे साम्राज्यवाद-विरोधी संग्राम से भी बड़ा प्रत्यक्ष और गहरा था।
हिन्दी गद्य का निर्माण- डॉ. नामवर सिंह इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि पत्रकारिता को ही लें। सही है कि हिन्दी गद्य का निर्माण स्वाधीनता संग्राम के जुझारु और लड़ाकूपन के बीच हुआ। संघर्ष के हथियार के रूप में निस्संदेह, साहित्य के पहले उसका यह रूप हिन्दी पत्रकारिता, सबसे पहले और सबसे ज्यादा भारतेन्दु की पत्रकारिता में प्रस्फुटित और विकसित हुआ था।
अशोक वाजपेयी के शब्दों में, गद्य के निर्माण में पत्रकारिता का भी कुछ न कुछ हाथ होता है। पुराने जमाने से ही था, जो बहुत अच्छे गद्यकार थे ,वे बहुत अच्छे पत्रकार भी थे। इन्हीं तथ्यों को उजागर करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा बहुत पहले यह लिख चुके थे कि भारतेन्दु से लेकर प्रेमचन्द तक हिन्दी साहित्य की परंपरा में यह बात ध्यान देने योग्य है कि सभी बड़े साहित्यकार पत्रकार भी थे। पत्रकारिता उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गई थी। यह पत्रकारिता एक सजग और लड़ाकू पत्रकारिता थी। प्रेमचंद भी एक सफल संपादक थे और “हंस” के जरिये उन्होंने साहित्यकारों की एक नई पीढ़ी को शिक्षित किया। कहना न होगा कि साहित्यिक पत्रकारिता की यह भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
भारतेन्दु और प्रेमचंद के अलावा यही बात पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी, निराला, मुक्तिबोध, यशपाल, हरिशंकर परसाई, नामवर सिंह और नंदकिशोर नवल के बारे में भी कही जा सकती है। साहित्य और पत्रकारिता के इन घनिष्ठ संबंधों की ओर संकेत करते हुए प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित लिखते हैं कि “हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में पत्रकारिता की अनन्य देन रही है। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से युग-प्रवृत्तियों का प्रवर्तन हुआ है, विभिन्न विचारधाराओं का उन्मेश हुआ है और विशिष्ट प्रतिबाओं की खोज हुई है। वस्तुतः साहित्य और पत्रकारिता परस्पर पूरक और पर्याय जैसे हैं। शायद इसीलिए लोग पत्रकारिता को “जल्दी में लिखा हुआ साहित्य” और साहित्य को “पत्रकारिता का श्रेष्ठतम रूप” भी कहते हैं। साहित्यिक पत्रकारिता के प्रसंग में तो यह मणि-काँचन योग और भी प्रत्यक्ष है।
साहित्यिक पत्रकारिता का उदय- सेंट फॉक्स साहित्यिक पत्रकारिता के आरंभ का बड़ा दिलचस्प विवरण देते हुए बताते हैं कि रेनाडो नामक पेरिस के एक डश्वक्टर अपने अस्पताल के रोगियों के मन-बहलाव के लिए अद्भुत घटनाओं, रोचक किस्सों, अलौकिक विवरणों और दिलचस्प खबरों को जमा करके बीमारों को पढ़ने देने लगे। डॉ. रेनाडो का विश्वास था कि ऐसे मनोरंजन से रोगियों को शांत और प्रसन्न रखा जा सकता है और उन्हें शीघ्र निरोग भी किया जा सकता है। कहना न होगा कि उन्हें इसमें आशातीत सफलता भी मिली।
इससे उत्साहित होकर, पेरिस प्रशासन की अनुमति से, रेनाडो ने 1632 ई0 से ऐसी सामग्री संकलित कर एक नियमित साप्ताहिक पत्रिका शुरु कर दी, जो आम लोगों में भी खासी लोकप्रिय हो गई। रेनाडो के अनुकरण पर पेरिस से ही सांसद डेनिस द सैलो ने 1650 ई0 में ‘जर्नल द सैवेत्रास” नामक एक साहित्यिक पत्र आरंभ किया। आइजक डिजरेजी के मतानुसार साहित्य और समालोचना की यही सबसे पहली पत्रिका है। ऐसी ही दूसरी पत्रिका 1684 में बेल ने निकाली इसका नाम “वावेत्स द ला रिपब्लिक द लेटर्स” था।
फॉअस के बाद इंग्लैंड से भी अनेक साहित्यिक पत्र निकलने लगे। इनमें डेनियल डेफो का “द रिव्यू” पहला अंग्रेजी पत्र था, जिसके लिए उन्हें 1703 में जेल भी जाना पड़ा था। तत्पश्चात रिचर्ड स्टील का “द टैटलर”,फिर स्टील और ऐडिसन द्वारा मार्च,1711 से मिलकर निकाला गया “द स्पेक्टेटर तथा साहित्य समालोचना की विख्यात पत्रिका “द मंथली रिव्यूज” के नाम विशेश उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त,”जेंटिलमेन्स मैगजीन”,”द क्रिटिकल” तथा डॉ. सैम्युल जश्वनसन की दोनों सुप्रसिद्ध पत्रिकाओं “द रैम्बलर” और “द आइडलर” का भी विशेश ऐतिहासिक महत्तव है। अंग्रेजी साहित्य के विकास में इनका अमूल्य योगदान माना जाता है।
वस्तुतः फ्रांसीसी क्रांति के बाद 1749-50 से तो यूरोप के प्रायः सभी देशों से अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित और लोकप्रिय होने ली सयूरोपीय “रेनाँसाँ” (पुनर्जागरण), मध्य वर्ग के उदय और जातीय चेतना (नैशनेल्टी की चेतना के बोध) के विकास से इस साहित्यिक पत्रकारिता की शुरुआत का सीधा संबंध था, ठीक वैसे ही, जैसे कि कालांतर में भारतीय भाषाओं में विशेष रूप से हिन्दी में, साहित्यिक पत्रकारिता का गहरा संबंध नवोदित भारतीय मध्य वर्ग की उत्तरोत्तर क्रमशः होती हुई लोकतांत्रिक चेतना, जातीय नवोन्मेश और साम्राज्य-विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम से भलीभाँति परिलक्षित किया जा सकता है।
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