कविवर सूरदास पर निबंध
प्रस्तावना
महाकवि सूरदास हिन्दी काव्य जगत के भानु है। अपने इष्टदेव की आराधना अर्चना में इस कविवर ने तल्लीन होकर जो काव्य सृजन किया है, वह हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। भक्ति, संगीत तथा काव्य की त्रिवेणी आपके पदों में निरन्तर प्रवाहित है। हिन्दी साहित्य में मात्र सूरदास ही ऐसे कवि हुए हैं जिनकी तुलना कवि शिरोमणि तुलसीदास से की जाती है। ‘सूर सूर तुलसी ससि’ कहकर इस बात की पुष्टि हो जाती है कि सूरदास जी तुलसीदास के ही समान महान कवि थे।
जीवन परिचय
महाकवि सूरदास सगुणमार्गी कृष्ण भक्ति शाखा मुख्य कवि हैं। उनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में अनेक मत हैं। विद्वानों के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् 1535 (सन् 1478 ई.) में हस्तिनापुर (वर्तमान में दिल्ली) के निकट ‘सीही’ गाँव में हुआ था। आप जाति के सारस्वत ब्राह्मण थे। इनके जन्म से ही अन्धे होने तथा बाद में अन्धे होने के बारे में विद्वानों में विरोधाभास है। इसके अतिरिक्त आपकी शिक्षा-दीक्षा के विषय में भी कोई उचित जानकारी के प्राप्त नहीं हो पाई है। यह तो सर्वाविदित है कि सूरदास बचपन से ही विरक्त प्रवृत्ति के थे तथा संगीत प्रेमी थे। युवावस्था आपने आगरा तथा मथुरा के बीच गौ घाट पर रहने वाले साधुओं के साथ बिताई थी। संगीत के प्रति स्वभाविक रुचि होने के कारण समय मिलते ही आप तानपुरा पर गीत गुनगुनाने लगते थे। आप मरुघाट पर रहकर विनय के पद गाया करते थे। महाप्रभु बल्लभाचार्य आपके गुरु थे तथा उन्हीं से प्रेरणा पाकर आप भागवत के आधार पर कृष्ण की लीलाओं का गान करने लगे। आप श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन किया करते थे। बल्लभाचार्य के पुत्र बिट्ठलनाथ ने अष्टछाप के नाम से जिन आठ कृष्ण भक्त कवियों का संकलन किया, उनमें सूरदास श्रेष्ठतम कवि हैं। सूरदात जी की मृत्यु सम्वत् 1640 में ‘पारसोली’ ग्राम में हुई थी।
प्रसिद्ध रचनाएँ
सूरदास जी ने लगभग पच्चीस ग्रन्थों की रचना की थी, निम्नलिखित हैं- परन्तु विद्वानों ने उनके केवल तीन ग्रन्थों को ही प्रमाणिक माना है, जो निम्नलिखित हैं-
(1) सूरसागर
सूरसागर सूरदास जी की सर्वश्रेष्ठ एवं महानतम रचना है। इसमें कृष्ण लीला सम्बन्धी विभिन्न प्रसंगों के पद संग्रहीत हैं। इसमें कवि का ध्यान मुख्य रूप से कृष्ण की लीलावर्णन में ही रचा-बसा है। कृष्ण की बाल-लीला, रूप-माधुरी, प्रेम, विरह तथा भ्रमर गीत के प्रसंग कवि ने विस्तारपूर्वक वर्णित किए हैं। सूरदास के कुल पदों की संख्या करीब सवा लाख बताई जाती है, परन्तु अभी तक प्राप्त पदों की संख्या लगभग दस हजार है। सूरदास ने अपने पदों में कृष्ण-जन्म की बधाईयों से अपने पदों को प्रारम्भ कर उनके कौमार्यावस्था तक का वर्णन किया है। इस ग्रन्थ में सूरदास जी ने दर्शाया है कि बालकृष्ण हाथ में माता यशोदा द्वारा दिए गए नवनीत (मक्खन) को लिए हुए अपने सौन्दर्य से विशेष आकर्षण प्रकट कर रहे हैं-
“सोभित कर नवनीत लिए।
घुटखुनि चलत रेनु तन मंडित दधि मुख लेप किए।”
सामान्य बालकों की तरह कृष्ण का माता यशोदा से यह प्रश्न करना सचमुच बड़ा रोचक लगता है-
“मैया कबहि वढेगी चोटी।
किती बार मोहि दूध पिवत भई यह अजहुँ छोटी।
जो कहति बल की बेनी ज्यो हवै लॉबी मोटी॥”
कृष्ण जब कुछ बड़े हो जाते हैं; तब राधिका को पहली बार देखकर कैसे मोहित हो जाते हैं और उससे प्रश्न पूछने पर वह किस प्रकार से कृष्ण को उत्तर देती हैं, इसका वर्णन सूरदास ने संयोग शृंगार द्वारा बड़े ही स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत किया है-
बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहाँ रहति काकी है तू बेटी, देखी नहीं कबहूँ ब्रज खोरी।
काहे को हम ब्रज तन आवत, खेलति रहति आपनि पौरी।
सुनति रहति नंद के ढोटा, कुरत फिरत माखन-दधि चोरी।
तुम्हरो कहाँ चोरि हम लैहे, खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि, बातनि भूरइ राधिका गोरी॥
(2) सूरसारावली
यह एक छन्द संग्रह है तथा इसमें दो-दो पंक्तियों के ग्यारह सौ सात छन्दों का समावेश है, जिनमें होली के खेल के रूपक में सृष्टि रचना का वर्णन है।
(3) साहित्य लहरी
यह सूरदास के दृष्टकूट पदों की रचना है। इसमें राधा-कृष्ण के प्रेम, अनुराग, नायिका-भेद, अलंकार तथा रस का विवेचन है। इसमें एक सौ अठारह पद हैं। यह एक शृंगार रस प्रधान काव्य है, जिसने अन्य रसों का भी प्रतिपादन है।
साहित्यिक विशेषताएँ
सूरदास उच्च कोटि के भक्त कवि थे। भक्ति उनके लिए साधन मात्र न होकर साध्य थी। बल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित होने के कारण आपने पुष्टिमार्गीय भक्ति को ग्रहण किया था। वात्सल्य तथा माधुर्य भाव की भक्ति आपकी मुख्य भक्ति थी। सूर की गोपिकाएँ उनकी माधुर्य भक्ति का ही आदर्श स्वरूप हैं। आपके काव्य में विनय तथा दास्यभाव के भी अत्यन्त सुन्दर उदाहरण मिलते हैं।
“अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल’ पद में भक्त सूरदास नंदलाल से विनय करते हैं-“सूरदास की सवै अविधा दूरि करौ नन्दलाल।” सूरदास की अपनी लघुता तथा दीनता एवं अपने इष्टदेव कृष्ण की महत्ता का वर्णन उनके विनय पदों का मुख्य सार है। क्रीडावर्णन में भी सूरदास मानो सिद्धदस्त है। एक दिन साथियों में क्षोभ बढ़ गया क्योंकि कृष्ण ने दाव देने से मना कर दिया था, परन्तु बाल्यावस्था में तो साम्यवाद की प्रधानता रहती है, वहाँ न कोई छोटा है, न कोई बड़ा, न कोई धनी है न ही कोई निर्धन। इसका सूर ने कितना स्वाभाविक वर्णन किया है-
‘खेलत ने को काको गुसइयाँ।
हरि हारे, जीते श्रीदामा, बरबस ही कत करत रिसैयाँ।
जाति पाँति हमसे बढ़ नाहि, नाहिन बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति अधिकार जनावत याते, अधिक तुम्हारे है कहु गैयाँ।”
कला पक्षीय विशेषताएँ
सूर के काव्य का भाव-पक्ष ही नहीं अपितु कला पक्ष भी सर्वश्रेष्ठ है। ब्रजभाषा को काव्यपयोगी भाषा बनाकर उसमें माधुर्य संचार का श्रेष्ठ श्रेय सूरदास को ही जाता है। आपके काव्य में फारसी, उर्दू तथा संस्कृत के भी शब्द मिलते हैं। आपने सादृश्य मूलक (उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक) तथा श्लेष, वक्रोक्ति, यमक आदि अलंकारों का रमणीय प्रयोग किया है। सूरदास जी ने अपने काव्य के वर्णनात्मक भाग में चौपाई, चौबोला, दोहा रोला, रूपकाव्य, सोरण, सबैया आदि छन्दों का प्रयोग किया है। बाल-लीला तथा गोपी-प्रेम के प्रसंग में शैली सरस, प्रवाहपूर्ण तथा माधुर्यपूर्ण है, जबकि दृष्टकूट पदों में शैली अत्यन्त अस्पष्ट व कठिन हैं।
उपसंहार
कविवर तुलसीदास ने जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी के चरित्र-चित्रण के द्वारा समस्त जनमानस को जीवनादर्श का मार्गदर्शन कराया, वही महाकवि सूरदास जी ने लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की विविध हृदयस्पर्शी लीलाओं के द्वारा जनमानस को सरस तथा रोचक बनाने का अद्भुत प्रयास किया है। निःसन्देह हिन्दी साहित्य आप सरीखे कवि को पाकर धन्य हो गया है। अयोध्या सिंह ‘उपाध्याय’ जी के शब्दों में-“वास्तव में वे सागर के समान विशाल थे और उन्होंने सागर की ही उत्ताल-तरंग-माला संकलित की है। उनके काव्य में मौजूद शृंगार, हास्य, करुण, वात्सल्य आदि रसों का सुन्दर चित्रण अवर्णनीय हैं।”
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