
चलचित्र का शिक्षा में उपयोग पर निबंध
प्रस्तावना- वर्तमान युग में चलचित्र विज्ञान का मुख्य आविष्कार है तथा मनोरंजन का सबसे सस्ता तथा सुगम साधन है। चलचित्र सभ्यता का महत्त्वपूर्ण अंग है एवं प्रत्येक व्यक्ति की चाह का मूर्त रूप है। विश्व के सभी देशों में वहाँ की प्रचलित सभ्यता एवं भाषा के आधार पर चलचित्रों का निर्माण होता है, जिनका लक्ष्य राजनीतिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक होता है। भारतवर्ष में प्रायः सभी प्रचलित भाषाओं में चलचित्रों का निर्माण होता है, परन्तु हिन्दी भाषा के चलचित्र सबसे अधिक लोकप्रिय है।
चलचित्रों का आविष्कार- सन् 1890 में अमेरिका के (एडीसन) नामक वैज्ञानिक ने समतल दीवार पर प्रकाश की किरणों से कुछ छायाचित्र प्रस्तुत कर चलचित्रों का आविष्कार किया था। धीरे-धीरे छायाचित्रों के माध्यम से मूक अभिनय को प्रस्तुत किया जाने लगा। सन् 1913 में भारतवर्ष में पहली बार ‘हरिश्चन्द्र’ नामक मूक फिल्म बनी थी किन्तु इसमें गतिशीलता मनुष्य के समान होती थी। बोलते चलचित्रों का श्रीगणेश सन् 1928 में हुआ था तथा पहली फिल्म ‘आलमआरा’ थी जिसका निर्माण सन् 1931 में मुम्बई की ‘इम्पीरियल फिल्म कम्पनी ने किया था। शनैः शनैः इन चलचित्रों में कथा, विज्ञान, भूगोल आदि का भी समावेश कर लिया गया। अब तो चलचित्रों ने एक क्रान्ति पैदा कर दी है जिनमें रंग बिरंगे चित्र देखे व सुने जा सकते हैं।
भारतवर्ष में चलचित्रों का विकास- इस क्षेत्र में भारतवर्ष अमेरिका के पश्चात् दूसरे स्थान पर है। सवाक चलचित्रों ने प्रारम्भ में अच्छे गायकों, वादकों एवं नागकों को अपनी ओर आकृष्ट किया था। इससे इन कला के धनी व्यक्तियों को पहचान मिलने लगी तथा उनकी रोजी-रोटी भी चलने लगा। यह व्यवसाय धीरे-धीरे उन्नति की ओर अग्रसर हुआ। इम्पीरियल के पश्चात् कई बड़ी कम्पनियाँ जैसे ‘न्यू थियेटर’, ‘रणजीत’ एवं ‘प्रकाश’ आदि भी इस व्यवसाय में आगे आए। निर्देशन के क्षेत्र में राजकपूर, व्ही शान्ताराम तथा अभिनेता चन्द्रमोहन ने अपना विशेष योगदान दिया। देश में जिस तीव्र गति से चलचित्रों का निर्माण हुआ, उसी तेज गति से सिनेमाघरों का भी निर्माण होने लगा। आज चलचित्र मनोरंजन का सबसे प्रमुख साधन है। भारतवर्ष के फिल्म निर्माता आज तीन प्रकार के चलचित्रों का निर्माण करते हैं। पहला सामाजिक चलचित्र, जो समाज की तत्कालीन गतिविधियों पर आधारित होता हैं तथा जिनमें समाज में प्रचलित विचारधाराएँ, अंधविश्वास, रीतियाँ, कुरीतियाँ आदि प्रस्तुत किए जाते हैं। दूसरे चलचित्र पारिवारिक परिपेक्ष्य के इर्द-गिर्द घूमते हैं। इनका व्यापक दृष्टिकोण पारिवारिक समस्याओं तथा आपसी रिश्तों का चित्रण करना होता है। तीसरे प्रकार के चलचित्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि ये शैक्षिक चलचित्र कहलाते हैं, जिनका आधार समाज में जागरुकता लाना होता है।
मानव जीवन में चलचित्रों का महत्त्व- चलचित्र शिक्षा एवं मनोरंजन दोनों लक्ष्यों की पूर्ति करने में सहायक है। देश की जिन सामाजिक प्रथाओं, कुरीतियों, अच्छाइयों, बुराइयों, प्राचीन संस्कृतियों आदि के बारे में हमने केवल पढ़ा है या किसी बुजुर्ग से सुना है; आज हम उनके बारे में देख सकते हैं। चलचित्र द्वारा इतिहास, भूगोल, समाज, विज्ञान, संस्कृति आदि का भी भरपूर ज्ञान प्राप्त होता है। आज के निर्माता-निर्देशक एक कदम और आगे की सोचकर महत्त्वपूर्ण घटनाओं तथा महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के जीवन-चरित्र आदि पर भी फिल्मे बना रहे हैं। भारत-पाक युद्ध के दृश्य, राष्ट्रपति की विदेश यात्रा या फिर गाँधी जी, नेहरू जी के जीवन पर आधारित फिल्मे बन रही हैं, जिनसे हमें उस समय की भी भरपूर जानकारी प्राप्त हो रही है, जब हम पैदा भी नहीं हुए थे या फिर हम उस समय वहाँ नहीं थे। आज हम अपनी दिन भर की थकान के पश्चात् बड़ी सुगमता से काव्य, संगीत, चित्र तथा अभिनय जैसी उपयोगी कलाओं का चलचित्रों के माध्यम से पूर्ण ज्ञान भी प्राप्त कर रहे हैं तथा मनोरंज भी कर रहे हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में तो चलचित्रों का महत्त्व अभूतपूर्व है। प्रौढ़ शिक्षा तथा अल्पव्यस्क छात्रों की शिक्षा के लिए चलचित्रों का माध्यम अत्यन्त सराहनीय है। अनेक गूढ़ तथा जटिल विषयों को चलचित्र के माध्यम से विद्यार्थी सुगमता से समझ लेते हैं क्योंकि जो बात सुनकर या पढ़कर समझ में नहीं आती, उसे अपनी आँखों से देखकर बड़ी आसानी से मसझा जा सकता है। बच्चों को जो विषय मुश्किल एवं नीरस लगते हैं, वही विषय चलचित्रों के माध्यम से आसानी से समझ में आ जाते हैं। प्रौढ़ पुरुषों पर कृषि के नवीन साधनों, नवीन उद्योगों है। सेना-सम्बन्धी चित्रों को देखने से जहाँ नवयुवकों में देश सेवा का भाव जागृत एवं स्वास्थ्य रक्षा के सम्बन्ध में चलचित्रों द्वारा चिरस्थायी प्रभाव डाला जा सकता होता है वही ‘एड्स’ जैसी खतरनाक बीमारियों के बारे में चित्र देखकर उनमें जागरुकता आती है साथ ही उन्हें उस बीमारी के विषय में भी पता चलता है।
सामाजिक सुधार की दृष्टि से भी इन चलचित्रों का कम महत्त्व नहीं है। बाल-विवाह, बेमेल-विवाह, बाल-श्रम, सती-प्रथा जैसी कुरीतियों का जो अन्त हमारे समाज सुधारक अपने सहस्रों भाषणों द्वारा नहीं कर पाए वह कार्य चलचित्रों ने कर दिखाया है। कई चलचित्र दहेज-प्रथा का भद्दा पहलू चित्रित कर चुके हैं तो कई चलचित्र दहेज-प्रथा, बाल-विवाह आदि को समूल नष्ट करने का प्रयत्न कर रहे हैं।
मानव जीवन में चलचित्र की हानियाँ- चलचित्रों के माध्यम से जहाँ समाज इतना लाभान्वित हो रहा है, वहीं इससे होने वाले हानियों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। शिक्षाप्रद चलचित्र का निर्माण सस्ते मनोरंजन की तुलना में कम ही होता है। आज के निर्माता निर्देशक मजदूरों आदि को ध्यान में रखकर फिल्में बनाते हैं क्योंकि वे फिल्मे ही चलती हैं जिनमें कामोतेजक नृत्य तथा अश्लील दृश्य होते हैं। आज समाज में नए-नए फैशन का रोग फैल रहा है। युवा वर्ग भी उसी भद्दे फैशन का अनुसरण करता है, वह भी फिल्म के हीरों की भाँति अपनी मनपसन्द लड़की को हासिल करना चाहता है, रातोरात धनवान बनना चाहता है, सुख-सुविधाएँ चाहता है। वह यह भूल जाता है कि वास्तविकता तथा फिल्मों में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। ये चलचित्र ही आज की युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट कर रहे हैं। चोरी, अपहरण, बलात्कार, हत्याओं के नए-नए तरीके जो फिल्मों में दिखाए जाते हैं, वही आज का युवा वर्ग वास्तविक जिन्दगी में अपना रहा है। वास्तव में आज जो अनुशासनहीनता तथा अपराधीकरण का वातावरण दिखाई पड़ रहा है, वह आधुनिक चलचित्रों की ही देन है।
उपसंहार- यदि फिल्म निर्माता केवल स्वार्थी न होकर जन-कल्याण के लिए शिक्षाप्रद फिल्में बनाए तो चलचित्रों से अच्छा मनोरंजन एवं शिक्षा का दूसरा कोई माध्यम नहीं है। हमारा भी यह कर्तव्य बनता है कि हम अधिक फिल्मे न देखकर कुछ चुनिन्दा तथा अच्छी एवं ज्ञानवर्धक फिल्में ही देखें, जिससे हमारा मनोरंजन भी होगा तथा ज्ञानवर्धन भी। यदि चलचित्रों की कुछ हानियों को नज़रअन्दाज कर दिया जाए तो इसके लाभ ही लाभ हैं।
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