महान कवि कबीरदास
प्रस्तावना
हिन्दी भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानाश्रयी शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि संत कबीरदास जी हैं। अधिकांश विद्वानों का मत है कबीरदास जी का जन्म सन् 1455 ई. में काशी की एक विधवा ब्राह्मणों के गर्भ से हुआ था। उस विधवा ने लोकलाज के भय से पैदा होते ही आपको तालाब के किनारे छोड़ दिया था, तब ‘नीरू’ नामक जुलाहे ने आपका पालन पोषण किया। आपकी मृत्यु सन् 1556 ई. में हुई थी।
शिक्षा
कबीरदास का जीवन एक अच्छे तथा कुशल गृहस्थ की भाँति व्यतीत हुआ। घर-गृहस्थी से अवकाश न मिल पाने के कारण आपकी शिक्षा नहीं हो पाई। स्वयं के अशिक्षित होने के विषय में स्वयं कबीरदास जी ने लिखा है-
“मसि भगद छुऔ नहिं, कलम गयो नहिं हाथ।”
कबीरदास जी को भले ही पुस्तकीय ज्ञान न प्राप्त हुआ हो, परन्तु उन्हें सांसारिक अनुभव भरपूर मात्रा में प्राप्त था। उन्होंने तत्कालीन हिंदू संत रामानन्द जी से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की थी। इस विषय में कबीरदास जी ने स्वयं लिखा है-
“काशी में हम प्रकट भए, रामानन्द चेताए।”
यह बात तो सर्वविदित ही है कि आपका पालन पोषण काशी के जुलाहे दम्पत्ति नीरु तथा लीमा ने किया था। उन्होंने आपका विवाह ‘लोई’ नामक सुन्दर कन्या से करा दिया, जिससे ‘कमाल’, ‘कमाली’ नामक पुत्र-पुत्री उत्पन्न हुए। अपने पुत्र के विषय स्वयं कबीरदास जी ने लिखा है-
“बूडा वंश कबीर का, ऊपजा पूत कमाल॥”
वैयक्तिक विशेषताएँ
कबीरदास जी के विषय में अध्ययन करने से यह तो स्पष्ट ही हो जाता है कि आप तत्कालीन हिन्दू धर्म प्रवर्तक और प्रचारक आचार्य शंकर के अद्वैतवाद से प्रभावित थे। आप किसी भी प्रकार के अवतारवादी दृष्टिकोण के पक्षधर नहीं थे वरन् आपका जीवन दर्शन तथा आचरण सभी कुछ सर्वशक्ति सम्पन्न केवल परब्रह्म से ही प्रभावित था। आपने सगुण मतावलाम्बियों का विरोध करते हुए कहा है कि-
“दशरथ सूत तिहुँ लोक बखाना। राम का मरम नहीं है जाना॥”
आप एक महान समाज-सुधारक तथा चिन्तक भी थे। उनकी सामाजिक चेतना में जात-पाँत, छूआछूत, वर्ण भेद आदि के लिए कोई जगह नहीं थी। आपने अपने समय में प्रचलित अंधविश्वासों व धर्म के खोखले प्रदर्शन का भरपूर विरोध किया तथा सर्वसमन्वय का प्रबलता से पक्ष लिया। मूर्ति पूजा के विरोध में आपने कहा है
“कंकर पत्थर जोरि के मस्जिद लई चिनाय।
इसी प्रकार हिन्दुओं की मूर्ति पूजा के विरोध में आपने कहा है-
”पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजू पहार।
ताते या चक्की भली, पीस खाय संसार।
हम भी पाहन पूजते, होते धन के रोझ
सतगुरु की किरपा भई, सिर से उतरया बोझ॥”
जातिगत ऊँच-नीच का तीव्र विरोध करते हुए आपने सभी को मानवता का पथगामी बनने के लिए कहा-
“साई के सब जीव हैं, कीरी कुंजर दोय।”
“जाति-पाँति पूछै नाहि कोऊ।
हरि को भजै सो हरि को होऊ॥”
उन्होंने एक ओर ब्राह्मणों को उनके झूठे ब्राह्माणत्व का विरोध करते हुए फटकार लगाई-
” जो जू बाँभन बांभनी आया।
आन राह हवै क्यो नहिं आया॥”
दूसरी ओर मुसलमानों के आडम्बरो का विरोध करते हुए कहा है-
“दिन को रोजा रखत है, राति हनत है गाय।
तो खून वह वन्दगी, कैसे खुशी खुदाय ॥”
प्रसिद्ध रचनाएँ
कबीरदास की तीन प्रसिद्ध रचनाएँ हैं-‘साखी, ‘सबद’ तथा रमैनी। इन तीनों कृतियों में आपने समस्त संसार के व्यापार का चित्रण किया है। कबीरदास की साखियाँ अत्यन्त लोकप्रिय है, जिन्हें पढ़ने व मनन करने से अज्ञानी तथा मोहग्रस्त व्यक्ति भी जीवन को श्रेष्ठ बना सकता है।
कबीरदास जी ने अपनी रचनाओं में गुरु-महिमा का जो स्वरूप खींचकर प्रस्तुत किया है, वह अन्यत्र नहीं मिलता। गुरु को ईश्वर से भी बड़ा मानते हुए आपने कहा है-
1. गुरु गाविन्द दोऊ खड़े, काके लागो पाय,
बहिलारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय॥
2.सत गुर का महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार॥
3. कबीर हरि के रुठने, गुरु के सरने जाए।
कह कबीर गुरु रुठते, हरि नाहिं होत सहाए ।
काव्यगत विशेषताएँ
कबीरदास जी की भाषा तद्भव, देशज तथा विदेशी शब्दों के मेल से बनी भाषा है, जिसमें लोक-प्रचलित शब्दों की बहुतायत है। लोकोक्तियों तथा मुहावरों का सुन्दर प्रयोग किया गया है। शैली-बोधमन्य होने के साथ-साथ चित्रात्मक है। ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीरदास को ‘वाणी का तानाशाह’ कहा किसी कवि का यह कथन कबीरदास जी की लोकप्रियता सिद्ध करता है-
“तत्व तत्त्व सूरा कही, तुलसी कही अनूठि।
बची खुची कवीरा कही, और कहीं सब झूठि॥”
उपसंहार
सन्त कवि कबीरदास जी का व्यक्तित्व निःसन्देह ही समन्वयवादी था। वे अपने युगीन-परिस्थितियों के पूर्ण अनुभवी थे तथा इन्हीं परिस्थितियों के वशीभूत होकर आपने सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाया। उनका यह सुधारात्मक दृष्टिकोण मृतप्राय हो गए समाज में आज भी प्रेरणा-संचार करता है।
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