हिन्दी काव्य में प्रकृति चित्रण
प्रस्तावना- प्रकृति शब्द का शाब्दिक अर्थ है ‘स्वभाव’ । किसी पदार्थ या प्राणी का वह विशिष्ट भौतिक सारभूत तथा सहज एवं स्वभाविक गुण या तत्त्व जो उसके स्वरूप के मूल में होता है तथा जिसमें कभी कोई भी परिवर्तन अथवा विकार नहीं होता। उदाहरण के तौर पर, प्रत्येक वस्तु अथवा प्राणी का जन्म और मृत्यु प्रकृति का ही अंग हैं। प्रकृति जीवनयापन का वह सरल तथा सहज रूप है, जिस पर आधुनिक सभ्यता का प्रभाव नहीं पड़ता। प्रकृति के इस अनूठे योगदान के कारण ही हिन्दी काव्य में कवियों ने प्रकृति का पूर्ण चित्रण किया है।
काव्य प्रकृति का सही अर्थ- काव्य की दृष्टि से प्रकृति को अकृत्रिम वातावरण कहा जा सकता है। प्रकृति ईश्वर की क्रिया का मूर्त कारण है। अन. प्रकृति तथा मनुष्य का बहुत निकट सम्बन्ध है। मनुष्य को प्रकृति से अलग करना नामुमकिन है। आज विज्ञान का विकास हो रहा है किन्तु प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में विज्ञान भी प्रकृति से जुड़ा हुआ है। वन्य पशु-पक्षी, जीव-जन्तु आज भी प्रकृति की गोद में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं। मानव तो आदिकाल से ही प्रकृति से जुड़ा रहा है। आज का सभ्य मानव बड़े-बड़े बंगलों में रह रहा है किन्तु ये भी तो प्रकृति के बिना नहीं बनाए जा सकते।
भारतवर्ष की प्राकृतिक सुन्दरता ही ऐसी है जो कवियों को अपनी ओर बरबस ही खींच लेती है। इसके उत्तर में हिमालय है। विशाल नदियाँ घने वन, गहरे सागर तथा बड़ी-बड़ी झील तथा मरुस्थल भी भारत जैसे विश्व के किसी भी देश में नहीं हैं। भारत भूमि की प्राकृतिक छटा अवर्णनीय है। बर्फीली चोटियाँ, कल-कल करते झरने एवं नदियाँ, सूर्य की चमचमाती किरणे प्रातः एवं सायं सहसा किसके मन को आकर्षित नहीं करती? जयशंकर प्रसाद ने भी भारत की प्राकृतिक छटा का वर्णन इस प्रकार किया है-
“हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार।
उषा ने हँस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरक हार।
जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक।
व्यभक्ता पुंज हुआ नष्ट, अखिल संस्कृति हो उठी अश्येम।”
हिन्दी साहित्य तथा काव्य में प्रकृति-चित्रण- अलग-अलग साहित्यकारों ने अपने साहित्य में प्रकृति को विभिन्न रूपों में दर्शाया है। महाकवि कालिदास का ‘मेघदूत’ पूर्णतया प्रकृति पर आधारित काव्य है। कालिदास के पक्ष को सांत्वना देने वाला एकमात्र मेघ ही है, उससे अच्छा कोई दूसरा दूत हो नहीं सकता। श्रीराम भगवान प्रकृति के माध्यम से ही 14 वर्षों तक वनवास झेल पाए थे। वे तो सीता हरण के पश्चात् अपनी पत्नी का पता प्रकृति से ही पूछते थे-
‘हे खग मृग मधुर कर श्रेणी, तुम देखी सीता मृग नैनी।’
इसी प्रकार कालिदास की शकुन्तला की ही भाँति सीता की सखी प्रकृति से अच्छी और कोई हो ही नहीं सकती।
प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण आदिकाल से ही कवि अपने काव्य में करते आए हैं। चन्द्र वरपाई एक विद्यापति थे। उनके काव्य-अध्ययन से पता चलता है कि आदिकाल के कवि भी प्रकृति से प्रभावित रहे हैं। उन्होंने प्रकृति को उपमा, उद्दीपन एवं मानवीकरण रूप में चित्रित किया है।
भक्तिकालीन कवियों ने भी प्रकृति का अपने काव्य में उचित चित्रण किया है। कबीर का रहस्यवाद तो पूर्णतया प्रकृति पर ही निर्भर है-सम्पूर्ण जगत् तथा ब्रह्मा के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने ‘कमलिनि’ का सहारा लिया-‘काहे री नलिनी तूं कुम्हिलानी, तेरे ही नाल सरोवर पानी। ठीक इसी प्रकार ‘सूरदास’ जी का वियोग वर्णन भी प्रकृति के माध्यम से सम्पूर्ण हुआ है-
“मधुबन तुम कत रहत हरे, देखियत कालिन्दी अतिकारी।”
रीतिकालीन कवियों ने भी प्रकृति चित्रण में कोई कमी नहीं छोड़ी है। प्रसिद्ध रीतिकाल कवि बिहारी का एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है-
“साधन कुंज छाया सुखद-शीतल मन्द समीर।
मन है जात अजौ बहि, उहि जमुना के तीर।”
बिहारी ने तो प्रकृति चित्रण का अनूठा रूप ही प्रस्तुत किया है-
“सोहत आठेपीत पट, स्याम सलौने गात।
मनौ नीलमनि सैल पर, आतपु परयौ प्रभात।”
प्रकृति के प्रति लगाव आधुनिक कवियों में भी कम नहीं है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के युग में प्रकृति के आलम्बन, उद्दीपन एवं उपमा रूप के दर्शन होते हैं। हरिऔध, अयोध्यासिंह उपाध्याय एवं मैथिलीशरण गुप्त के प्रकृति चित्रण अवर्णनीय है। ‘प्रिय प्रवास’ में कवि ‘हरिऔध’ ने प्रकृति के विभिन्न चित्र अंकित किए हैं जैसे-
“दिवस का अवसान समीप्य
गगन मन कुछ लोहित हो चला।
तरूशिखा पर भी अब राजती।
कमलिनी-कुंज वल्लभ की प्रभा।”
प्रकृति के ही कवि सुमित्रानन्दन पन्त का तो पूरा काव्य ही प्रकृति के रंग में रंगा है-
“प्रथम रश्मि का आना रंगिणि, तूने कैसे पहिचाना।
कहाँ-कहाँ है बाल विहंगिनी, पाया तूं ने यह गाना।”
कुछ कवियों ने प्रकृति को अलंकार से सुसज्जित कर प्रस्तुत किया है। रामकुमार वर्मा के काव्य का एक उदाहरण यह है-
“इस सोते संसार बीच, जगकर-सजकर रजनी वाले।
कहाँ बेचने ले जाती हो, ये गजरे तारो वाले।”
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की मीठी वाणी से निकला प्रकृति का एक रूपक चित्रण देखिए-
“आए महत बसन्त
मखमल के झूले पड़े हाथी सा टीला
बैठे किशुक छगलगा बाँध पाग पीला।”
उपसंहार- इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्रकृति के महत्त्व को किसी भी युग में कम नहीं आंका जा सकता। मनुष्य प्रकृति से न तो अलग हुआ है और न ही हो सकता है। प्रकृति के बिना मनुष्य तो जीवित ही नहीं रह सकता।
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