रूपए की आत्मकथा पर निबंध
प्रस्तावना- ‘बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया’ वाली कहावत तो। किसी ने अवश्य ही सुनी होगी। यह रुपैया मैं ‘रुपया’ ही हूँ, जिसके लिए लोग अपनी जान तक देने को तैयार रहते हैं। में ही सारे विश्व का सरताज हूँ तथा मैं ही सारे विश्व को अपनी अँगुली के इशारे पर नचाने की ताकत रखता हूँ। मेरा शरीर चाँद की चाँदनी की भाँति सफेद तथा उसकी किरणों की भाँति चमकदार है। मेरा मुँह गोल है अर्थात् मैं इतना आकर्षक हूँ कि सभी मेरे दीवाने हैं। मुझे तो सभी इतना स्नेह करते हैं कि वे मेरी खातिर आपस में लड़ भी पड़ते हैं। भाई-भाई का दुश्मन बन जाता है तथा मेरे कारण ही मित्र दूसरे मित्र का शत्रु बन जाता है।
जन्म परिचय एवं प्रारम्भिक जीवन- मेरा जन्म उत्तरी अमेरिका के मैक्सिको प्रदेश में आज से सदियों पहले चाँदी के रूप में हुआ था। वर्तमान समय में मेरा जन्म ‘टकसाल’ में हुआ था। उन्हीं लोगों ने मेरा नामकरण ‘रुपया’ रख दिया। वहाँ विभिन्न धातुओं को गलाकर मेरे सुन्दर रूप का निर्माण किया गया। आज से 60-70 वर्ष पूर्व तक मैं शुद्ध चाँदी का ही होता था परन्तु आज मैं कई धातुओं का मिश्रण बन चुका हूँ। मैं धरती माता की सन्तान हूँ। वही मेरी माता और पिता दोनों हैं। सालों मैं अपनी धरती माँ की गोद में सुख-चैन की नींद सोता रहा हूँ। वह दुनिया अन्धकारपूर्ण तो जरूर थी लेकिन स्वर्ग से भी अधिक शान्तिपूर्ण थी। अपना घर तो सभी को प्यारा ही होता है।
धरती के गर्भ से टकसाल तक की यात्रा- मैं तो माँ की गोद में आराम से सो रहा था परन्तु निर्दयी श्रमिकों ने मेरी माँ के शरीर को क्षत-विक्षत कर मुझे उससे छीन लिया। मैं अपनी माँ से बिछुड़कर दुखी था, परन्तु वे खुश थे और कह रहे थे कि आखिर चाँदी मिल ही गयी। बाहर लाते ही मुझे जलती हुई अग्नि की भयानक लपटों में ऐसे डाल दिया गया जैसे कि वे मुझसे घृणा करते हों। सीता माँ की भाँति मेरी भी अग्निपरीक्षा हुई, किन्तु मैं शुद्ध होकर बाहर निकला और ठण्ड पाकर मैं जम गया। अब तो मेरा रूप एकदम निखर गया था। तब लोगों ने मेरा नाम ‘रजत’ रखा।
इसके पश्चात् मुझे पानी के जहाज द्वारा यात्रा करने का अवसर मिला। मैं एक देश से दूसरे देश होता हुआ किसी तरह भारत पहुँचा। जलयात्रा के दौरान मुझे बहुत अच्छा लगा। मेरे चारों और समुद्र तथा ऊपर नीला आसमान था। भारतीय बन्दरगाह पहुँचने पर कुलियों ने मुझे गोदियों में भरकर उतारा। यहाँ से मुझे कोलकाला स्थित टकसाल में भेज दिया गया। वहाँ फिर से मुझे अग्नि के हवाले कर दिया गया। भट्टी की गर्मी के कारण मैं न जाने कब बेहोश हो गया। होश तो मुझे तब आया जब मैंने स्वयं को गोलाकार रूप में पाया। मेरे एक ओर ‘एक रुपया’ लिखा था तथा दूसरी ओर ‘शेर का चिह्न’ अंकित था। मेरी आकृति पूर्णिमा के चाँद की भाँति गोल थी। जिस ओर मेरा नाम लिखा था उसमें मेरा जन्म सत्र भी लिखा गया जिससे लोगों को मेरी आयु का पता चलता रहे। मेरे जैसे मेरे हजारों साथी थे परन्तु हम सभी साथी बिछुड़ गए। टकसाल के पंडितों ने हमारा नाम ‘रुपया’ रख दिया और तभी से मैं ‘पुरुषवाचक’ बन गया।
मेरी जीवन यात्रा का आरम्भ- अब मेरी जीवन यात्रा प्रारम्भ हुई। अपने अनगिनत सेवकों द्वारा मुझे लोहे के सन्दूकों में बंद कर बैंक लाया गया, जिसका नाम ‘रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया’ था। वहाँ कुछ दिन तक छोटे-बड़े कोषाध्यक्षों के साथ मैं उछलता-कूदता जीवन का मधुर आनन्द लेने लगा। लेकिन कुछ समय बाद इतना शोरगुल सुन मैं परेशान रहने लगा। किसी तरह मैं एक सेठ के हाथ लग गया। अब मुझे कुछ स्वतन्त्रता तथा शान्ति प्राप्त हुई। इसके बाद मेरा भ्रमणकारी जीवन प्रारम्भ हो गया। वर्षो तक घूम फिर कर मैं अनेक लोगों के पास जाता रहा। मैं जिसके पास भी जाता, सभी मेरा पूरा ध्यान रखते, यहाँ तक कि यदि गलती से मैं फर्श पर गिर जाता तो मुझे उठाकर माथे से लगाते । इसके पश्चात् मैंने बाजार में वस्तुएँ खरीदने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। मेरे माध्यम से लोग तरह-तरह के सामान खरीदते। मैं किसी को सोना खरीदवाता, तो किसी को चाँदी। कोई मेरे माध्यम से मीठा खरीदकर खाता तो स्त्रियाँ साड़ियाँ खरीदकर प्रसन्न हो जाती। मैं लोगों के ज्ञान अर्जन के लिए पुस्तकें भी खरीदवाता। बच्चे खिलौने खरीदते तो बूढ़े लाठियाँ भी मेरे माध्यम से खरीद पाते। मुझे भी यूमने-फिरने में आनन्द आता। दूसरों के चेहरे पर प्रसन्नता देकर मैं भी खुश हो जाता। लेकिन जो लोग मुझे दबाकर रखते हैं मुझे उनसे घृणा होती है और मैं सोचता हूँ कि मैं किसी ऐसे व्यक्ति के पास चला जाऊँ जो मुझे स्वतन्त्र रखे।
मैंने अपने सैकड़ों साथियों के साथ देशाटन भी किया है तथा अनेक धार्मिक स्थानों पर भी मैं जा चुका हूँ। अयोध्या, उज्जैन, काशी, हरिद्वार, इलाहाबाद तथा और भी न जाने कितने तीर्थस्थानों पर मैंने यात्राएँ की हैं। मैं कभी धनी की कीमती तिजोरी में रहा तो तभी निर्धन की झोपड़ी में। अर्थात् जितना मैं घूमता हूँ, शायद ही कोई घूम पाता हो। मैंने अपने गोल रूप को सार्थक कर दिया है क्योंकि मैं भी गोल पहिए की भाँति घूमता ही रहता हूँ।
उपसंहार- जब तक मेरा रूप मनमोहक रहता है, मेरी चमक-दमक बनी रहती है, सभी मेरा सम्मान करते हैं। मैं पूजा की थाली में भी स्थान पाता कन्याओं की माँग में सिन्दूर भी मेरे द्वारा ही भरा जाता है। महानतम ऋषि मुनि भी मेरे बिना नहीं रह सकते। विश्व के अनेक युद्ध मेरे कारण ही लड़े जाते हैं। परन्तु मानव बहुत स्वार्थी होता है। जब घूमघूम कर मैं थक जाता तथा मेरी चमक कम हो जाती है तथा मेरे शरीर में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं तो वे मुझे ‘खोटा’ कहकर छोड़ देते हैं और मेरी कीमत भी कम समझने लगते हैं। परन्तु जब मैं नवीन शरीर धारण कर लेता हूँ तो वे पुनः मुझसे प्यार करने लगते हैं।
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