नदी की आत्मकथा
प्रस्तावना- मेरा नाम ‘नदी’ है तथा छोटे रूप में मेरा नाम नहर’ है। जब ऊँचे पर्वत-शिखरों पर स्थित बर्फ के ढेर पिघलने लगते हैं, तो मैं जन्म लेती हूँ। पर्वत शृंखलाओं की गोद में उछलती, कूदती, मचलती हुई मैं धरती पर अवतरित होती हूँ। उस समय मुझ में बाल्यावस्था की चंचलता तथा स्वछंद मन का उत्साह होता है। कविवर गोपालसिंह ‘नेपाली’ ने मेरे उसी स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया है-
हिमगिरि से निकल निकल,
यह विमल दूध – सा हिम का जल,
कर निनाद कलकल छलछल,
बहता आता नीचे पल पल,
तन का चंचल, मन का विहल।
जीवन परिचय- मेरे पिता श्री समुद्र है तो पर्वत श्रृंखला मेरी माँ है। अपनी माँ के आँचल से निकलकर कहीं धारा के रूप में तो कहीं झरने के रूप में नाचती-गाती आगे बढ़ती हुई मैं धरती के वक्षस्थल का प्रक्षालन करती हूँ, सिंचन करती हूँ तथा अन्त में अपने पिता की गोद, विशाल जलनिधि में शरण लेती हूँ। समय-समय पर मेरे नए नाम पड़ गए हैं जैसे नदी, नहर, तटिनी, सरिता, प्रवाहिनी, क्षिप्रा इत्यादि। कुछ लोगों ने मेरी विशालता देखकर मुझे ‘दरिया’ कहा तो ने सर-सर की ध्वनि करते हुए बहने के कारण ‘सरिता’ भी कहा। कुछ ने मेरे तेज प्रवाह के कारण मुझे ‘प्रवाहिनी’ भी कहा। दो तटों के मध्य बहने के कारण मेरा नाम ‘तटिनी’ पड़ा तथा तेज गति से बहने के कारण मैं ‘क्षिप्रा’ कहलाने लगी। इस प्रकार सबने अपनी रुचि के अनुरूप मेरा नामकरण किया।
उद्गम एवं विकास- मेरा उद्गम बर्फानी पर्वतों की कोख से होता है। जब तक मैं वहाँ रहती हूँ तब तक शान्त रहती हूँ परन्तु कुछ समय पश्चात् शिला खण्ड के अन्तराल से उत्पन्न मधुर संगीत करती हुई आगे बढ़ती जाती हूँ। उस समय मेरी तीव्रता के समक्ष रास्ते के पत्थर, वनस्पतियाँ आदि भी मुझे रोक नहीं पाते हैं। कितनी ही बार मेरे पथ में बड़े-बड़े शिलाखण्ड आकर बाधा उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं, परन्तु मेरी निष्ठा के समक्ष वे भी झुक जाते हैं। तत्पश्चात् पहाड़ों व जंगलों को पार करती हुई मैं मैदानी क्षेत्रों में पहुँच जाती हूँ। मैं जहाँ-जहाँ से भी गुजरती हूँ वहाँ किनारों को ‘तट’ का नाम दे दिया जाता है। जहाँ पहुँच कर मेरा विस्तार होने लगता है, वहाँ मेरे किनारों पर पक्के तट तथा बाँध बना दिए जाते हैं। मैदानी इलाकों में मेरे तटों के आस-पास घाट तथा छोटी बड़ी अनेक बस्तियाँ स्थापित हो जाती हैं फिर शनैः शनैः वहाँ गाँव व नगर भी बस जाते हैं। अयोध्या, काशी, मथुरा, गया, अवन्तिका, तथा द्वारिका आदि असंख्य धार्मिक एवं पवित्र स्थान मेरे ही तट पर बसे वर्तमान भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, इन्दिरा गाँधी, लाल बहादुर शास्त्री, राजीव गाँधी, चरण सिंह आदि की समाधियाँ भी मेरे तट पर ही विद्यमान हैं। लोग तो मुझे ‘मोक्ष दायिनी’ मानकर मेरी आरती भी उतारते हैं।
मेरी उपयोगिता- मैं सदा प्राणिमात्र की सेवा में तत्पर रहती हूँ क्योंकि जन-कल्याण की कामना ही मेरा लक्ष्य है। मैं भूमि-सिंचन करती हूँ। मेरे अन्दर से नहरें निकलकर तथा बाँध बनाकर खेतों की सिंचाई की जाती है तथा सिंचाई से भूमि उपजाऊ होकर अन्न पैदा करती है। अनाज से पूरी दुनिया के प्राणी अपनी क्षुधा-पूर्ति करते हैं। इसके अतिरिक्त प्राणियों की प्यास भी बुझाती हूँ। लोग मेरे जल में स्नान करके स्वयं को पवित्र व आनन्दित महसूस करते हैं। इससे उनका स्वास्थ्यवर्धन भी होता है क्योंकि मेरा जल अमृत होता है। लोगों का मत है कि यदि मरते व्यक्ति के मुँह मे मेरे जल की कुछ बूंदे डाल दी जाए तो वह आसानी से मुक्ति पा लेता है। लोग मेरे अन्दर स्नान कर स्वयं को पुण्य का भागीदार मानते हैं तभी तो कार्तिक पूर्णिमा, अमावस्या, पूर्णमासी, कुम्भ-स्नान, गंगा-दशहरा तथा अन्य पर्वो पर मेरे दर्शन, स्नान तथा मेरे जल से सूर्य-वन्दन करते हैं। हिन्दू धर्म में मुझे बहुत उच्च स्थान प्राप्त है।
इसके अतिरिक्त मुझे विद्युत पैदा करने के लिए भी प्रयोग में लाया जाता जाती है। में परिवहन के लिए भी बहुत उपयोगी हूँ। प्राचीन काल में तो सम्पूर्ण व्यापारही मर द्वारा हाताधा किन्तु आज जब यातायात के नवीन साधनों का आविष्कार हो चुका है, तब भी मैं जन सेवा कर रही हूँ। आज भी मेरे तट पर बसे नगर व्यापारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं। इसके अतिरिक्त में लोगों का मनोरंजन भी करती हूँ क्योंकि लोग मेरी जलधारा में तैरने व नौका-बिहार का आनन्द लेते हैं। मैं तो मनुष्य के मरने के पश्चात् भी उसकी अस्थियों को अपने भीतर समा लेती हूँ।
मेरा कष्टकारी रूप- मेरा मनमोहिनी वाला रूप तो सभी पसन्द करते हैं, किन्तु जब मैं अशान्त हो जाती हूँ तो सभी परेशान हो जाते हैं। अतिवृष्टि के कारण बरसाती नाले जब मुझमें समाते हैं तो मैं बाढ़ का रूप धारण कर चारों ओर विनाश लीला पैदा कर देती हूँ। जब-जब बरसाती नाले मेरे शुद्ध एवं पवित्र जल में मिलकर उसको अपवित्र करने लगते हैं तो मेरा वक्षस्थल फट जाता है। उस समय मेरा क्रोध साँतवें आसमान पर पहुँच जाता है और मैं धन, जन, सम्पत्ति, वनस्पति, पशु-पक्षी सभी का विनाश कर बैठती हूँ। परन्तु जैसे ही मेरा क्रोध शान्त होता है मैं पुनः अपने कल्याणकारी रूप में लौट आती हूँ।
सागर से मिलन- मैं निरन्तर बहती ही रहती हूँ अर्थात् मेरी ज़िद के आगे कोई भी नहीं टिक पाता। अनेक बाधाओं का पूरी हिम्मत से सामना करते हुए तथा एक लम्बी तथा दुर्गम यात्रा करते हुए मैं थक गई हूँ इसलिए अपने पिता सागर की गोद में सो जाना चाहती हूँ। मैंने पर्वतों से लेकर सागर तक की लम्बी यात्रा के दौरान अनेक घटनाएँ होते देखी हैं। अपने ऊपर बने पुलों पर से सैनिकों की टोलियो, राजनेताओं, डाकुओं, राजा-महाराजाओं, संन्यासियों आदि को गुजरते हुए देखा है।
उपसंहार- मैं तो धैर्य और सन्तोष की साक्षात् प्रतिमा हूँ। मैं कभी भी अपने उद्देश्य से पथभ्रष्ट नहीं होती। आज लोग मुझे गन्दा कर रहे हैं, मेरे अन्दर कूड़ा-करकट डाल देते हैं, परन्तु मैं शान्त रहकर सब कुछ सहती रहती हूँ। हाँ, कभी-कभी बहुत गुस्सा आता है इसलिए मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मेरी रक्षा करें, मैं भी सदा आपकी सेवा में तत्पर रहूँगी।
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