नारी शिक्षा का महत्त्व
प्रस्तावना- शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। मानवीय संसाधनों के सम्पूर्ण विकास, परिवार एवं राष्ट्र के सुधार, बच्चों के चरित्र-निर्माण, पति के आर्थिक सहयोग एवं स्वयं के उत्थान हेतु नारी-शिक्षा का बहुत महत्त्व है। एक पुरुष की शिक्षा का अर्थ एक व्यक्ति विशेष की शिक्षा है जबकि एक नारी की शिक्षा का अर्थ एक पूरे परिवार की शिक्षा है
नारी-शिक्षा का महत्त्व- नारी शिक्षा का प्रत्येक क्षेत्र में महत्त्व है फिर चाहे वह बेटी, बहन, माँ या पत्नी ही क्यों न हो। बहन व बेटी के रूप में शिक्षित नारी अपने परिवार की आर्थिक मदद कर सकती है। शिक्षित नारी जागरुक भी होती है इसलिए वह कोई भी अनैतिक कार्य करने के विषय में नहीं सोचती। तीसरे वह अपने भाई तथा पिता पर बोझ नहीं बनती क्योंकि वह अपने पैरों पर खड़ी होकर आसानी से सुयोग्य पति का वरण कर सकती है।
शिक्षित पत्नी तो परिवार के लिए वरदान होती है। वह सुख, शान्ति व ऐश्वर्य की वर्द्धक होती है। वह कलह की विरोधिनी बनकर घर में प्यार व खुशी का सागर बहाती है। शास्त्रों में भी श्रेष्ठ पत्नी के छह प्रमुख लक्षण बताए
“कार्येषु मन्त्री, करणेषु दासी, भोज्येषु माता, रमणेषु रम्भा।
धर्मानुकूला, क्षमयाधरित्री, भार्या च षाड्गुण्यवतीह दुर्लभा ॥”
‘कार्येषुमन्त्री’ का अर्थ है, जो स्त्री पति के कामकाज में मन्त्री के समान उसे सही सलाह दे सकती हो, जिससे पति सही निर्णय ले सके। यह कार्य एक सुशिक्षित नारी ही कर सकती है, कारण बौद्धिक विकास एवं उचित निर्णय की क्षमता अध्ययन करने से ही आती है। ‘करणेषु दासी’ अर्थात् पति की सेवा सुश्रुषा एक दासी के समान कुशलतापूर्वक कर सके। शिक्षा के अभाव में वह सेवा के अर्थ एवं महत्त्व को न समझते हुए अपना अधिकतर समय लड़ाई-झगड़े में ही व्यतीत कर देंगी। भोज्येषु माता’ अर्थात् माँ के समान स्वास्थ्यवर्द्धक, स्वादिष्ट एवं रुचिकर भोजन वाली पत्नी ही अच्छी पत्नी कहलाने का अधिका रखती है। ‘रमणेषु रम्भा’ का अर्थ हुआ कि पत्नी बिस्तर पर पति को एक अप्सरा की भाँति सुख दे सके। अशिक्षित नारी पति की भावनाओं को कभी नहीं समझ सकती कि किस समय उसे किस वस्तु की आवश्यकता है।
‘धर्मानुकूला’ अर्थात् अच्छी पत्नी वही है जो धर्म अधर्म का अन्तर समझती हो तथा धर्म के अनुसार आचरण करती है। यहाँ तात्पर्य ऐसी स्त्री से है जो समय आने पर पति को उसका धर्म समझाए तथा स्वयं भी सही रास्ते पर चले। ‘क्षमयाधरित्री’ अर्थात् उसमें क्षमादान का गुण अवश्य हो। उसमें धरती के समान सहनशीलता हो। एक परिवार में साथ-साथ रहते हुए झगड़े होते ही हैं परन्तु समझदार पत्नी दूसरे की गलती को क्षमा करने के लिए विशाल हृदय की मल्लिका होती है। यह गुण अध्ययन बुद्धि से ही विकसित हो सकता है तथा ‘बुद्धि’ तो शिक्षा से ही आती है।
इस प्रकार पत्नी के रूप में एक स्त्री बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वह विवाह करके एक नए वातावरण में नए-नए लोगों के साथ रहती है। जब तक वह अपने पति के विचारों को ही नहीं समझेगी, तब तक वह परिवार को एक सूत्र में नहीं बाँध सकती तथा यह कार्य एक सुशिक्षित, समझदार एवं सुयोग्य नारी ही कर सकती है। वह जोड़ने में विश्वास रखती है, न कि तोड़ने में। माता के रूप में तो नारी शिक्षा का महत्त्व कई गुना बढ़ जाता है क्योंकि बच्चे माँ जैसे ही बनते हैं। माँ ही बच्चों की सही परवरिश करती है, पिता तो अधिकतर समय काम के सिलसिले में बाहर ही व्यतीत करते हैं। इस दिशा में नारी बच्चों की प्रथम ‘गुरु’ होती है। माँ के संस्कारों का प्रतिबिम्ब बच्चों में प्रदर्शित होता है। माँ के व्यवहार, संस्कार आदि का सीधा प्रभाव बच्चे पर पड़ता है। एक शिक्षित माता ही बच्चों के कोमल एवं उर्वर मन-मस्तिष्क में उन समस्त संस्कारों के बीज बो सकती है, जो आगे चलकर उसमें सामाजिक, आत्मिक एवं राष्ट्रीय उत्थान के लिए परमावश्यक है। हमारे वेद-पुराण ऐसी अद्भुत माताओं के चमत्कारों से भरे पड़े हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को समाज में विशेष स्थान दिलवाया। अभिमन्यु ने माँ के गर्भ में ही चक्रव्यूह को तोड़ने की शिक्षा ले ली थी। शिवाजी को ‘शिवा’ बनाने में उनकी माता जीजाबाई का विशेष योगदान था। अतः माताओं का शिक्षित होना देश,समाज, परिवार, राष्ट्र सभी के लिए हितकर है।
माता, पत्नी, बेटी, बहन के अतिरिक्त एक शिक्षित नारी ही अच्छी बहू अछी भाभी एवं दूसरे रिश्ते भलीभाँति निभा पाती है। वह जानती है कि समाज में रिश्ते कितने महत्त्वपूर्ण होते हैं। वह सबका दिल जीतकर एक आदर्श उपस्थित करती है।
अशिक्षित नारी की दयनीय स्थिति- अशिक्षित नारी स्वयं को समाज के नियम-कायदों के अनुकूल नहीं ढाल सकती। वह अपने को नितांत अकेला पाती है क्योंकि अशिक्षित नारी में न तो आत्मविश्वास होता है, न ही आत्मनिर्भरता, न आत्मसंयम होता है, न ही आत्मसम्मान। ये गुण तो शिक्षा द्वारा ही विकसित होते हैं। अशिक्षित नारी तो अंधविश्वासों, कुरीतियों, जादू-टोनो, बुराईयाँ आदि की उपासिका होती है। अशिक्षित नारी का जीवन सर्वत्र अन्धकारमय होता है। अशिक्षित नारी सदैव विवाह पूर्व पुत्र पिता तथा भाईयों पर बोझ बनकर रहती है, तो विवाह पश्चात् पति, सास-ससुर की अवहेलना झेलती है तथा बुढ़ापे में बच्चों के तिरस्कार की पात्र बनती है। कारण वह स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकती इसीलिए वह इस दुनिया में सम्मान पाने के लिए शिक्षित होना आवश्यक है।
शिक्षित नारी की सम्मानीय स्थिति- शिक्षित नारी प्रत्येक स्थान पर सम्मान की पात्र बनती है। वह कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों के स्थान पर वैज्ञानिक तथ्यों पर विश्वास करती है तथा प्रगति की राह पर अनवरत अग्रसर रहती है। नारी शिक्षा का ही परिणाम है कि आज प्रत्येक सरकारी व निजी संस्थान में नारियाँ बड़ी कुशलतापूर्वक कार्यरत हैं। वे प्रत्येक क्षेत्र में अपनी योग्यता प्रमाणित कर रही हैं। शिक्षित नारी अपना पारिवारिक जीवन स्वर्गमय बना कर देश, समाज व राष्ट्र की प्रगति में पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर आगे बढ़ रही है। आज की शिक्षित नारी नौकरी कर अपने परिवार की आर्थिक सहायता कर रही है, अध्यापिका बनकर राष्ट्र को शिक्षित कर रही है, नर्स बनकर आहतों को राहत पहुँचा रही है, लिपिक बनकर कार्यालय कार्य संचालन में सहयोग दे रही है तो विधिवेता बनकर समाज को न्याय प्रदान कर रही है।
उपसंहार- आज हमारी सरकार भी नारी शिक्षा के महत्त्व को भली-भाँति समझ चुकी है तभी तो आज मुक्त कंठ से यही नारा लगाया जा रहा है-
“पढ़ी लिखी लड़की, रोशनी घर की॥”
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