जीवन में अनुशासन का महत्त्व पर निबंध
प्रस्तावना- मानव को विधाता की सर्वश्रेष्ठ कृति माना जाता है क्योंकि चरित्रबल, विवेकशीलता, कर्त्तव्यनिष्ठा एवं अनुशासनप्रियता जैसे गुण मानव में ही पाए जाते हैं। अनुशासन एक सद्वृत्ति है, एक जीवन-दर्शन है तथा सभ्य जीवन की पहचान है। अनुशासन किसी कानून अथवा अंकुश से नहीं, अपितु स्वेच्छा द्वारा जाग्रत होता है। निःसन्देह यह स्वाधीनता की स्थिति है। अनुशासन नियमों का परिमार्जित स्वरूप है जिसके पालन से मनुष्य में व्यवहारिकता आती है। अनुशासन एक संस्कार है, जिसका निर्माण उसके सामाजिक परिवेश में ही होता है।
अनुशासन का तात्पर्य- अनुशासन दो शब्दों अनु + शासन के मेल से बना है। ‘अनु’ उपसर्ग है जिसका अर्थ है ‘पश्चात्’ । ‘शासन’ शब्द संस्कृत की ‘शास्’ धातु से निर्मित है जिसका अर्थ शासन करना होता है। अनुशासन से तात्पर्य है उच्च सत्ताओं की आज्ञाओं का निर्विवाद पालन करना एवं उनका उल्लंघन करने पर दण्ड को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना। अनुशासन ‘आत्मिक’ एवं ‘बाह्मा’ दो प्रकार होता है। आत्मिक अनुशासन में व्यक्ति अपनी इच्छानुसार अनुशासन में रहकर आचरण करता है जबकि बारा अनुशासन किसी बाहरी सत्ता के भय अथवा दण्ड द्वारा स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार आत्मिक अनुशासन ही बेहतर है क्योंकि जो कार्य अपनी इच्छानुसार किया जाता है वही कार्य सर्वोत्तम होता है।
मानव-जीवन में अनुशासन का महत्त्व- मानव को प्रत्येक कदम पर अनुशासित जीवन जीना पड़ता है। व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन, राष्ट्रीय जीवन आदि अनुशासन में रहकर जिए जाए तो वे मानव जीवन में स्थायित्व तथा उन्नति लाते हैं। सामाजिक संस्थाओं में तो अनुशासन का महत्त्व कई गुना बढ़ जाता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अनुशासन आवश्यक है। अनुशासन सुव्यवस्था का मूल तत्त्व है। व्यक्तिगत स्तर पर जो व्यक्ति अनुशासन रहते हुए अपने स्वार्थों के लिए अपनी इच्छा से जीता है, वह प्रत्येक कदम पर विषम परिस्थितियों का सामना करता है। ऐसा व्यक्ति समाज में न तो सम्मान में न पाता है न ही प्रतिष्ठा। ऐसा व्यक्ति समाज व राष्ट्र की प्रगति में भी बाधक बनता है परन्तु जिस व्यक्ति के जीवन में अनुशासन होता है, वह बड़ी से बड़ी बाधा को भी हँसकर झेल जाता है। जिस प्रकार किसी भी विद्यालय की स्थिति का ज्ञान वहाँ के विद्यार्थियों की अनुशासनप्रियता द्वारा पता चलता है, उसी प्रकार किसी भी राष्ट्र अथवा समाज के चरित्र का अध्ययन उसके नागरिकों को देखकर किया जा सकता है। अनुशासन का दूसरा नाम ‘मर्यादित आचरण’ है अर्थात् दूसरों की सुख-सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए शुभाचरण करना ही अनुशासन है। उदाहरणतया, किसी के बीमार होने पर शोर न करना, कूड़ा-करकट इधर-उधर न फेंकना, सभी के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करना आदि अनुशासनप्रियता के ही उदाहरण हैं। कोई व्यक्ति कितना भी बलशाली, धनवान या सत्ता सम्पन्न क्यों न हो, उसके उत्कर्ष का मार्ग अनुशासन द्वारा ही प्रशस्त होता है।
प्रकृति में अनुशासन- यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो हम पाएँगे कि आकाश से लेकर पाताल तक सभी स्थानों पर अनुशासन का महत्त्व है। पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, सूर्य-चन्द्रमा, धरती-अम्बर सभी अनुशासन में रहकर कार्य करते हैं। लघुतम चीटियों को पंक्तिबद्ध चलता देखकर, हाथी को महावत की आज्ञा का पालन करते हुए देखकर अनुशासन का ध्यान आ जाता है। आकाश में पक्षीगण मालाकार होकर उड़ते हैं। दिन रात का क्रम, यथासमय ऋतु परिवर्तन, सूर्य-चन्द्रमा, नक्षत्रों आदि का उदयास्त भी अनुशासन का महत्त्व प्रदर्शित करते हैं। इस बात को जयशंकर प्रसादजी ने इस प्रकार शब्दबद्ध किया है-
“सिर नीचा कर जिसकी सत्ता सब करते स्वीकार यहाँ।
मौन भाव से प्रवचन करते, जिसका वह अस्तित्व कहाँ॥”
अर्थात् यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् किसी न किसी अनुशासन में बँधा अपना जीवनयापन कर रहा है। यदि कभी भी ये सभी नियमों का उल्लंघन करना प्रारंभ कर दें, दिन के बाद रात ही न हो या फिर चन्द्रमा उदय ही नहीं हो, तो सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा या शायद फिर कोई भी जी ही नहीं पाएगा।
विद्यार्थी एवं अनुशासन- यूँ तो हमारे सम्पूर्ण जीवन में अनुशासन का स्थान सर्वोपरि है, परन्तु विद्यार्थी जीवन में अनुशासन एक नियम है। प्राचीनकाल में तो आश्रमों एवं गुरुकुलों की शिक्षा में विद्यार्थियों को कठोर नियमों का पालन करना पड़ता था। आज चाहे शिक्षा पद्धति कितनी भी परिवर्तित क्यों न हो गई हो, परन्तु जीवन को सरल, सुन्दर बनाने के लिए अनुशासन में रहना आज भी बेहद आवश्यक है। चरित्र का निर्माण अनुशासन से ही होता है क्योंकि चरित्रहीन व्यक्ति को मृतप्राय है। विद्यार्थी जीवन ही उसके भावी जीवन की आधाराशिला है इसीलिए शिक्षा ग्रहण करते समय ही उसे अपने भीतर अनुशासन जैसे गुणों का विकास करना चाहिए। अनुशासित व्यक्ति ही अपने जीवन को सुचारू रूप से चला सकता है।
आधुनिक विद्यार्थी में व्याप्त अनुशासनहीनता- आज विद्यार्थियों में बढ़ती अनुशासनहीनता एक चिन्ता का विषय बन चुका है जिसके पीछे अनेक कारण हैं। आधुनिक शिक्षा पद्धति, जोकि अंग्रेजों की देर है, अनुशासनहीनता का एक मुख्य कारण है। दूसरे आज शिक्षण- संस्थाएँ राजनीति के अखाड़े बन चुकी हैं। आज विभिन्न राजनैतिक दल विद्यार्थियों को अनुशासनहीनता के गर्त में गिरा रहे हैं। आज नित्य प्रति समाचार पत्रों में छात्रों की अनुशासनहीनता जैसे बलात्कार, हत्या, शिक्षकों के साथ मार काट, साथियों की हत्या, लूटपाट आदि के किस्से पढ़ने को मिलते हैं, जिन्हें पढ़कर बहुत दुख व लज्जा होती है। इस सबके लिए शिक्षा-पद्धति के साथ-साथ माता-पिता का उदासीनपूर्ण रवैया व उनका व्यस्त जीवन भी उत्तरदायी है। आज के माता-पिता बचपन में ही बच्चों को समय नहीं दे पाते हैं, उन्हें अच्छे संस्कार नहीं दे पाते हैं जिसका परिणाम अनैतिक कार्यों के रूप में सामने आता है। इसके अतिरिक्त बढ़ती बेरोजगारी, भविष्य की अनिश्चितता, सर्वव्यापी भ्रष्टाचार, विद्यालयों में शिक्षकों की गुटबाजी, राजनीतिज्ञों की स्वार्थलोलुपता, घरेलू व सामाजिक वातावरण, सस्ती फिल्में व सस्ता साहित्य, फैशन, आधुनिकता आदि भी विद्यार्थियों में फैलती अनुशासनहीनता के लिए उत्तरदायी है।
अनुशासनहीनता दूर करने के उपाय- निरन्तर बढ़ती अनुशासनहीनता को देखते हुए ही नेहरूजी ने कहा था, “छात्रों में जो अतिरिक्त शक्ति है, यदि उसे दूसरे साधनों की ओर मोड़ दिया जाए, तो अनुशासनहीनता की समस्या सुलझ सकती है।” कारण साफ है, यह बढ़ती हुई अनुशासनहीनता प्रगति तथा हित में बाधक है। यदि विद्यार्थी ऐसे ही अनुशासनहीन बना रहा समाज की तथा उसे सही मार्गदर्शन नहीं मिला, तो लोकतन्त्र का भविष्य तो निश्चित तौर पर संकट में पड़ जाएगा। शिक्षण संस्थाओं में व्याप्त वातावरण को सुधारने की दिशा में ठोस प्रयत्न किए जाने चाहिए। छात्रों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास किया जाना चाहिए, शिक्षा को रोजगार से जोड़कर बेकारी की समस्या को दूर किया जाना चाहिए तथा इसके साथ ही नैतिक शिक्षा को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। शिक्षण-संस्थाओं में अनुशासन सम्बन्धी गोष्ठियाँ आयोजित की जानी चाहिए जिनमें महापुरुषों की जीवनियों पर प्रकाश डाला जाए। साथ ही विद्यार्थियों को उत्तम साहित्य एवं अच्छे चलचित्र के प्रति प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि शिक्षकों एवं माता-पिता को भी अपनी जिम्मेदारी का सही पालन करना चाहिए।
उपसंहार- अनुशासन एक अमूल्य पूँजी है। अनुशासन के बिना जीवन बिना पतवार की नाव के समान है, जो कभी भी डूब सकती है। अनुशासन ही जीवन का सच्चा सार है, सफलता की कुंजी है, चरित्र का आभूषण एवं राष्ट्र का गौरव है। अतः जिस प्रकार हम अपने शरीर को अलंकृत करने के लिए आभूषण पहनते हैं, इसी प्रकार अपने जीवन को अलंकृत करने के लिए हमें अनुशासन रूपी आभूषण ग्रहण करना चाहिए।
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