जनजातीय समाजों में सरकार की भूमिका
जनजातीय समाजों में सरकार की भूमिका का वर्णन कीजिए।
जनजातीय समाजों में सरकार की भूमिका- राज्य मनुष्यों का वह राजनीतिक संगठन है जो एक निश्चित भू-भाग में प्रभुतासम्पन्न है। इसी राज्य के संस्थात्मक अंग को सरकार कहते हैं। सरकार राज्य के नाम पर कार्य करती है और राज्य के शासन-प्रबन्ध को चलाती है। यह सरकार किसी-न-किसी रुप में तीन प्रकार के कार्यों की करने के लिए होती है – एक तो कानून बनाने का काम, दूसरे शासन प्रबन्ध करने और कानूनों को लागू करने का काम और तीसरे न्याय करने का काम। आदिम समाजों में किसी-न-किसी रुप में सरकार का अस्तित्व होता है, परन्तु सरकार के उक्त तीनों कार्य स्पष्ट नहीं होते। इन समाजों में बहुधा सरकार के कानून-सम्बन्धी, कार्यकारिणी तथा न्याय-सम्बन्धी पक्ष आधुनिक समाजों की भाँति एक- दूसरे से पृथक् न होकर एकसाथ घुले-मिले होते हैं। ऑस्ट्रेलिया की जनजातीय परिषद् कानून बनाती है, उसे लागू करती है और अपराधी को दण्डित भी करती है। प्रायः यही अवस्था अन्य जनजातीय समाजों में है। इसके अतिरिक्त श्री लोई के अनुसार, एक और विशेषता आदिम समाजों की सरकार की होती है और वह यह कि अधिक सभ्य या विकसित समाजों की तुलना में आदिम समाजों की सरकार कानून बनाने का काम बहुत ही कम करती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि आदिम समाजो में सामाजिक या राजनीतिक या आर्थिक जीवन के अधिकतर व्यवहारों का निर्धारण तथा नियमन या नियन्त्रण प्रथागत कानूनों के द्वारा ही होता है। यह देखना होता है कि व्यक्ति परम्परागत नियमों या प्रथाओं का पालन कर रहे हैं या नहीं। दूसरी बात यह है कि आदिम समाजों में जीवन सादा और सरल होता है, जिसके फलस्वरुप उसे नियन्त्रित करने के लिए असंख्य कानूनों की आवश्यकता भी नहीं होती; कुछ प्रथागत कानूनों से ही काम चल आता है। यही कारण है कि इन समाजों में सरकार को कानून पास करने से सम्बन्धित कार्य बहुत कम करने पड़ते हैं।
मॉर्गन (Morgan), मेन (Maine) आदि विद्वानों का कथन है कि आदिम समाजों में व्यक्तिवाद का बोलबाला होता है और वहाँ का कार्य आप-से-आप चलता रहता है। इसलिए इन समाजों में सरकार न तो सम्भव है और न ही वहाँ के लोगों को इसकी कोई आवश्यकता होती है। इन विद्वानों के अनुसार आदिकालीन समाजों में लोगों को सामाजिक समूहों में बाँधने का एकमात्र बन्धन नातेदारी होता है और इसी व्यवस्था के आधार पर सामाजिक जीवन नियन्त्रित तथा व्यवस्थित होता है। इसी नातेदारी-व्यवस्था को या उसके आधार पर होने वाले कार्यों को सरकार या सरकारी कार्य कहना उचित न होगा। इसी कारण उपरोक्त विद्वानों ने आदिम समाजों में सरकार के अस्तित्व को स्वीकार किया है। इसलिए श्री मॉर्गन ने अपनी विकासवादी योजना में एकतन्त्रीय सरकार (Monarchy) को काफी बाद का स्तर बताया है। परन्तु अधिकतर आधुनिक मानवशास्त्री श्री मॉर्गन के नत से सहमत नहीं हैं। इनका कहना है कि आदिकालीन समाजों का गहन अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि प्रत्येक आदिम समाज में किसी-न-किसी रूप में एक सरकार या एक शासन-व्यवस्था अवश्य ही है।
सरकार के प्रकार-
आदिम समाजों की शासन-व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए सरकार के स्वरूपों को पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है –
(1) अल्पजन-शासित सरकार (Oligarch) – जैसा नाम से ही स्पष्ट है, इस के हाथों में होती है। इस प्रकार की सरकार अधिनायकत्व (dictatorship) हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है।
(2) एकतन्त्र सरकार (Monarchy) – इस प्रकार की सरकार में शक्ति (कम-से- कम सैद्धान्तिक रुप में) एक व्यक्ति, राजा, के हाथों के केन्द्रित होती है।
(3) वृद्धतन्त्र (Gerontocracy) – इस प्रकार की सरकार में राजकीय शक्ति एक वर्ग के रुप में बड़े-बूढ़ों के हाथों में रहती है।
(4) प्रजातन्त्र (Democracy) – इस प्रकार की सरकार में शासन-प्रबन्ध का काम समाज या राज्य के अधिकतर लोगों द्वारा होता है।
(5) ईश्वरतन्त्र (Theocracy) – इस प्रकार की सरकार में अलौकिक शक्ति का प्रभाव अत्यधिक होता है और ईश्वर के प्रतिनिधि के रुप में पुरोहित वर्ग या अन्य धार्मिक विशेषज्ञ के हाथों में राजकीय शक्ति होती है।
आदिम-समाजों का अध्ययन करने पर उपरोक्त पाँचों प्रकार की सरकारों का दर्शन होता है। उदाहरणार्थ, ऑस्ट्रेलिया की अनेक जनजातियों में वृद्धतन्त्र (Gerontocracy) शासन का रुप पाया जाता है। उत्तरी अमेरिका की अनेक जनजातियों में सरकार का प्रजातान्त्रिक रुप देखने को मिलता है। इन समाजों में शासन-व्यवस्था बहुमत द्वारा संचालित होती है। ईश्वरतन्त्र (Theocracy) का दर्शन अफ्रीका तथा ओसिआनिया (Oceania) की कुछ जनजातियों में होता है। ट्रोब्रियंड निवासियों में भी इस प्रकार की सरकार की कुछ झलक देखने को मिलती है। पूर्वी अफ्रीका के यूगाण्डा में बहुत- सी जनजातियाँ एक राजा के शासन में रहती हैं। प्रत्येक जनजाति का इस एकतन्त्र (Monarchy) कर्तव्य रहता है जिसे पूरा करना पड़ता है। ऑस्ट्रेलिया तथा भारत की कुछ जनजातियों में अल्पजन-शासित सरकार (Oligarchy) पाई जाती है।
आदिम समाजों की सरकारों का वर्गीकरण अन्य आधारों पर भी किया जा सकता है। डॉ. दुबे के अनुसार आदि-जगत् की राजकीय शासन-व्यवस्थाएँ तीन मुख्य सिद्धान्तों पर आश्रित रहती हैं। प्रथम श्रेणी के अन्तर्गत ऐसी सरकार आती हैं जिसका मूल आधार सम्बन्ध-प्रथा होती है। दूसरी श्रेणी की सरकार स्थानीयता के सिद्धान्त पर आधारित होती है, और तीसरी श्रेणी में हम उस प्रकार की सरकार को रख सकते हैं जो विशेष हितों के संगठन पर आश्रित रहती है।
स्थानीय सरकार-
अनेक जनजातियाँ में सामाजिक नियन्त्रण तथा शासन स्थानीय आधार पर होता है। इन समाजों में राजकीय शासन-व्यवस्था की मूल इकाई गाँव होती है। प्रायः गाँव आत्म- निर्भर होता है और सारा शासन-प्रबन्ध स्वयं चलाता है। गाँव का शासन प्रायः कुछ लोगों की पंचायत द्वारा संचालित होता है। सभी आवश्यक अधिकार इसी के हाथ में रहते हैं। इस प्रकार की शासन- व्यवस्था एस्कीमो, अण्डमान प्रायद्वीप के आदिवासी, बुशमैन तथा ऑस्ट्रेलिया की अनेक जनजातियों में पाई जाती हैं। इस प्रकार की सरकार के अधीन 20 से 100 व्यक्तियों की जनसंख्या तथा 100 व्यक्तियों की जनसंख्या तथा 100 या अधिक वर्गमील भूमि होती है। ये व्यक्ति प्रायः आपस में रक्त- सम्बन्धी होते हैं, इस कारण इनमें सामुदायिक भावना अधिक प्रबल होती है जिसके फलस्वरुप समग्र गाँव के सदस्य एक साथ मिलकर अपनी रक्षा करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर शत्रु-पक्ष को चुनौती देते हैं। जनसंख्या अधिक बढ़ जाने पर एक स्थानीय समुदाय दो भागों में बँट जाता है और उनमें से एक भाग एक भू-भाग में बसकर एक दूसरे स्थानीय समुदाय का निर्माण करता है। इस प्रकार से पृथक् होने वाला भाग अपने मूल समुदाय के अपना समस्त सम्बन्ध नहीं तोड़ता है, बल्कि उसके साथ सम्पर्क बनाए रखते हए उसी की तरह अपनी शासन-व्यवस्था चलाता है।
मुखिया –
अति आदिम शासकीय अधिकारी मुखिया होता था। यह मुखिया प्रायः जन्मगत रूप से अपने पद को प्राप्त करता है और उस पर उसके समुदाय के सभी सदस्यों का अत्यधिक तो विश्वास होता है। मुखिया अपने समूह से सम्बन्धित सभी विषयों की देख-रेख करता है और सभी अवसरों पर उपस्थित रहकर अन्य व्यक्तियों को आवश्यक निर्देश देता रहता है। कुछ समाजों में इसी मुखिया के निरीक्षण में लोग शिकार आदि करने को जाते हैं। यह मुखिया ही आपसी झगड़ों का निपटारा करता है और उसके निर्णय को सब लोग मान लेते हैं क्योंकि सब पर उसका रौब होता है। कुछ भी हो, पर मुखिया एक प्रजातान्त्रिक शासक होता है, निरंकुश शासक नहीं।
प्रधान-
उन समाजों में, जहाँ राजनीतिक संगठन अधिक विकसित है, शासकीय अधिकारी प्रधान होता है। प्रधान मुखिया से सत्ता तथा सामाजिक सम्मान में भिन्न है क्योंकि इन विषयों में प्रधान की स्थिति मुखिया से ऊँची होती है। यह प्रधान वंशानुगत हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता अर्थात् पिता से पुत्र को प्रधान का अधिकार मिल सकता है या विशेष योग्यातों और प्रवृत्तियों के आधार पर उसका निर्वाचन अथवा नियुक्ति भी हो सकती है। प्रधान की शक्ति या सत्ता तथा कार्य भी विभिन्न समाजों में अलग-अलग होता है। उत्तरी अमेरिका की जनजातियों में प्रधान को अत्यधिक अधिकार नहीं प्राप्त होता है। इन समाजों में बहुधा दो प्रकार के प्रधान पाए जाते हैं – एक तो शान्ति के प्रधान (peace chiefs) और दूसरे युद्ध के प्रधान (war chiefs)। शान्ति-प्रधान जनजातीय परिषद् (tribal council) का मुखिया होत् है तथा अन्दरुनी सम्बन्धों को नियमित करता है। कुछ विशेष अपराधों के विषय में न्याय करना भी इसका काम होता है। चीईनी, ओमाह, इरोकूई, आदि जनजातियों में शान्ति-प्रधान का चुनाव एक निश्चित समय के लिए ही होता है। युद्ध-प्रधान सभी जनजातियों में युद्धों का संचालन करते हैं। यह पद किसी भी ऐसे व्यक्ति को मिल सकता है जो युद्ध के विषय में विशेष योग्यता रखता है।
वंशानुगत एकतन्त्र या राजा –
कतिपय संस्कृतियों में शासकीय अधिकारी वंशानुगत राजा होता है। इनमें वंशानुसंक्रमण के सिद्धान्त के आधार पर पिता से पुत्र को अपने अधिकार और पद प्राप्त होता है। राजकीय शासन-व्यवस्था को दृढ़ तथा सुनिश्चित बनाने के लिए ही ऐसा किया जाता है। शक्तिशाली जनजातियों में परस्पर लड़ाई-झगड़े होते रहते हैं जिनमें ‘खून का बदला खून’ वाले सिद्धान्त पर अमल किया जाता है। इसके लिए निश्चित अर्थात् वंशानुगत राजा की आवश्यकता होती है। साथ ही, यह हो सकता है कि एक जनजाती के सदस्यों में ही समाज के इस सर्वोच्च पद को प्राप्त करने के लिए कटु प्रतिद्वन्द्विता शुरु हो जिससे सम्पूर्ण संगठन को खतरा हो सकता है। इस स्थिति से बचने के लिए ही वंशानुगत राजा को ही शासकीय अधिकार तथा पद देने की प्रथा का प्रचलन है। परन्तु कभी-कभी ये राजा निकम्मे निकल जाते हैं और सम्पूर्ण राजकीय शासन-व्यवस्था एक असंगठित स्थिति में हो जाती है। फिर भी अधिकतर विकसित आदिम समाजों में वंशानुगत राजा ही पाए जाते हैं। पॉलीनेशिया तथा अफ्रीका की जनजातियों में पिता की मृत्यु के बाद राजा का पद सबसे बड़े लड़के को प्राप्त होता है। परन्तु अधिकतर जनजातियों में यह चुनाव शाही परिषद् (royal council) द्वारा होता है जो राजा के सबसे योग्य पुत्र को राजा का पद प्रदान करती है।
परिषद्-
सभी आदि-समाजों में शासन-व्यवस्था चलाने के लिए एक परिषद् हुआ करती है। आदिम समाजों में बहुधा यह परिषद् बड़े-बूढ़ों की परिषद् होती है जो प्रजातान्त्रिक आधारों पर गठित होती है। कतिपय संस्कृतियों में वयस्क पुरुष इस परिषद् के सदस्य होते हैं, परन्तु ऑस्ट्रेलिया तथा भारत की जनजातियों में यह अधिकार केवल समुदाय के बड़े-बूढों को ही प्राप्त होता है। अधिकतर जनजातियों में परिषद् अपना निर्णय बहुमत के आधार पर देती है, परन्तु अमेरिकन इण्डियनों में परिषद् का कोई भी निर्णय केवल सर्वसम्मति से ही हो सकता है। इसका प्रमुख कार्य शासक को शासन-प्रबन्ध-सम्बन्धी विषयों में सलाह देना तथा गम्भीर विषयों पर विचार-विमर्श करके निर्णय लेना होता है। इस परिषद् का निर्माण गाँव के आधार पर या ग्राम-समूह या पूरी जनजाति के आधार पर होता है। जब ग्राम-समूह या पूर्ण जनजाति के आधार पर परिषद् का निर्माण होता है तो उसमें प्रत्येक ग्राम के प्रतिनिधि सम्मिलित होते हैं जो शासन-व्यवस्था बहुमत के द्वारा संचालित करते हैं।
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