सूरदास का श्रृंगार वर्णन ( Surdas Ka Shringar Varnan )
भूमिका- सूरसागर में सर्वाधिक विशद् एवं गम्भीर भाव दाम्पत्य रति का है। इसीलिए हिन्दी में सूरदास जी श्रंगार के महानतम कवि माने जाते हैं। उनके काव्य में श्रृंगार का विस्तार तीन स्थितियों में देखा जा सकता है-
1. पूर्वानुराग की स्थिति में
2. प्रेम प्राप्ति के उपरांत संयोग-वियोग के चित्रों में तथा
3. कृष्ण के मथुरा जाने के बाद चिरवियोग की स्थिति में। पूर्वानुराग की स्थिति में सहसा नहीं आती। रागोद्भाव के तीन कारण होते
1. रूपाकर्षण, 2. साहचर्य, 3. गुण श्रवण ।
सूर ने इन तीनों के आधार पर गोपियों और कृष्ण के हृदय में रागोद्भाव दिखाया है। कहना न होगा कि सूरसागर में संयोग तथा वियोग-श्रृंगार के दोनों पक्षों का वर्णन अद्वितीय है।
रस राजस्व की प्रतिष्ठा – हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य महाकवि सूरदास ने श्रृंगार के रस राजत्व की प्रतिष्ठा की है। उनका चित्त श्रंगार रस के क्षेत्र में ही अधिक गहराई तक रम सका। फलतः उन्होंने श्रृंगार को अपनी अद्वितीय काव्य कला में डालकर उसका रसराजत्व पूर्णतः प्रतिष्ठित कर दिया। उनके श्रृंगार का स्थायी भाव रति बाल्यकाल के सहज प्रेम से विकसित हुआ।
लरिकाई को प्रेम कहाँ अलि! कैसे छूटे ?
इस संदर्भ में आचार्य शुक्ल का मत उल्लेखनीय है। इस प्रेम को हम जीवनोत्सव के रूप में पाते हैं। सहसा उठ खड़े हुए तूफान या विप्लव के रूप में नहीं, जिसमें अनेक प्रकार के प्रतिबंधों और विघ्न बाधाओं को पार करने की लम्बी चौड़ी कथा खड़ी होती है।
शृंगार का आलम्बन- सूर के श्रृंगार का आलम्बन नटनागर, मनमोहन गोपाल कृष्ण हैं। आश्रय राधा तथा गोपियाँ हैं। किन्तु गोपियों की अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, वे राधा कृष्ण के मध्यस्थ का कार्य करती हैं तो कभी राधा की सखियों के रूप में दृष्टिगत होती हैं। बाल कृष्ण को उन्होंने माखन खिलाया, किशोर कृष्ण से उन्होंने प्रेम किया, उनके वियोग में तड़पी तथा उद्धव को जली-कटी सुनाई।
प्रेम में सौन्दर्य की भूमिका- सूरदास ने श्रंगार के निरूपण में आलम्बन कृष्ण तथा आश्रय राधा दोनों का मनोमुग्धकारी चित्र संयोजित किया कृष्ण के दिव्य सौन्दर्य का प्रभाव बड़ा ही मादक तथा व्यापक है। उनके शरीर के अंग-प्रत्यंग से मनमोहक छवि फूटी पड़ती है। गोपियां उनके सलोने रूप को अपना सर्वस्व समर्पित करने को हैं-
प्रस्तुत तरुनि निरखि हरि प्रेति अंग ।
कोई निरखि नख इन्दु भूलो, कोई चरम जुग रंग ।।
कोउ निरखि हद नाभि की छवि, डारयौ तन, मन वारि ।।
गोपियों की इस स्थिति तो यहाँ तक आ पहुँची कि-
सूर स्याम बिनु और न भावै, कोई कितनौ समुझावै ।
प्राकृतिक पृष्ठभूमि–जिस प्रकार सूरदास ने श्रृंगार के आलम्बन और श्रंगार चुने हैं उसी प्रकार उनका उद्दीपन विभाव भी उच्च कोटि का है। हरे-भरे निकुंज, कोकिल कूजित कदम्ब, लोल लहरों से उल्लसित कालिन्दी, उन्मत्त मयूर, नीरव एकान्त, आदि सभी श्रृंगार के उपयुक्त उद्दीपन विभाव के रूप में सूर की श्रृंगारी के लीलाओं में प्रस्तुत है। सूरदास ने इस उद्दीपन सामग्री को बड़ी कुशलता से प्रस्तुत किया है-
मानो भाई घन-घन अन्तर दामिनि ।
घन दामिनि, दामिनि धन अन्तर सोभित हरिब्रज भामिनि ।
संयोग श्रंगार – सूरदास द्वारा वर्णित श्रृंगार में इस तथ्य को स्पष्टतः लक्षित किया जा सकता है कि गोपियों के प्रेम में भाव रूप लिप्सा ही नहीं है वरन् बाल्यावस्था में ही प्रतिदिन परस्पर खेलते रहने के सहचर्य द्वारा यह विकसित हुआ है। बचपन में क्रीड़ा के साथ ही यौवनावस्था में प्रेम क्रीड़ा के साथी हो गये हैं।
प्रथम मिलन – कृष्ण और राधा का प्रथम मिलन अत्यन्त स्वाभाविक है, साथ ही नाटकीय भी। एक दिन कृष्ण खेलने के लिए निकलते हैं और यमुना तट पर पहुँच जाते हैं-
खेलत हरि निकसे ब्रजखोरी ।
गये स्याम रवि तनया के तट, अंग लसति चन्दन की खोरी।
और वहाँ अचानक राधा के मोहक रूप का दर्शन कर रीझ जाते हैं।
औचक ही देख तहं राधा नैन विशाल भाल दिए रोरी ।
सूर स्याम देखत ही रीझै, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी ।।
रूप राशि राधा को देखकर कृष्ण मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। तुरन्त परिचय प्राप्त करने के लिए आतुर हो पूछ बैठते हैं-
बुझत स्याम कौन तू गोरी ।
कहां रहति काको तू बेटी, देखी नाहिं कहूं ब्रज खोरी।।
चपल राधा स्वाभाविक रूप में उत्तर देती हुई कहती हैं-
काहे को हम ब्रज तन आवति, खेलति रहति आपनी पौरी।
सुनति रहति स्त्रवनन नंद ढोटा, करत रहत माखन दधि कचोरी।।
राधा के इस उत्तर से रूपाकर्षण में पूर्ण गुण श्रवण की बात का भी संकित निहित है। चतुर कृष्ण ने कहा-
तुम्हारी कहा चोरी हम लैहैं, खेलन चलो संग मिलि जोरी।
सूर स्याम प्रभु रसिक सिरोमनि बातन भुरई राधिका भोरी ।।
इस प्रकार भोली-भाली राधा को कृष्ण ने अपने वाग्जाल में फंसा ही लिया। अब दोनों कभी यमुना तट पर, कभी खारिक में आकर कभी घर पर निर्बाध मिलने लगे हैं।
गोदोहन- राधा और कृष्ण एक दूसरे से मिलने के बहाने ढूँढ़ने लगे। राधा पर जाकर माता से कहती है-
मोहि दोहनी दै री मैया
खरिद माहिं अबहीं है आई, अहिर दुहत सब गैया ।।
कृष्ण गोदोहन करते हैं। राधा भी वहीं खड़ी हैं। कृष्ण राधा को देखकर मुग्ध हो उठते हैं।
धेनु दुहत अति ही रति बाढ़ी।
एक धार दोहनि पहुँचायत, एक धार जहाँ प्यारी ठाढ़ी ।।
कृष्ण की गोदोहन शैली पर राधा की टिप्पणी कितनी व्यंजनापूर्ण हैं-
तुम पै कौन दुहावै गैया ।
इत चितव्रत उत धार चलावत एहि सिखायो है मैया ?
यह प्रेम दोनों ओर समान है। गुण श्रवण प्रत्यक्ष दर्शन और सतत् साहचर्य से पुष्ट होने के कारण यह अधिक मनोवैज्ञानिक और काव्यानुकूल है। यदि कृष्ण-राधा की रूप माधुरी पर मुग्ध हैं तो राधा को भी श्याम के बिना सब कुछ सूना लगता है। वह सुन्दरी सरिता, श्याम-सिन्धु में मिलने के लिए व्याकुल है।
प्रेम की बातें – राधा-कृष्ण की प्रेम की बातें उत्तरोत्तर बढ़ती ही गईं। वे कहाँ से कहाँ पहुँच गये-
हरि हंसि भामिनि उर लाइ ।
सुरति अंग गोपाल रीझै जाति अति सुखदाइ ।।
अन्य संयोग चित्र–घर तथा बाहर वाले राधा कृष्ण के प्रेम सम्बन्धों को जान गये । स्वयं यशोदा राधा से कहती हैं-
बार-बार तु हौ जनि आवै ।
इस पर राधा स्पष्ट शब्दों में कह देती हैं-
मैं कहा करौं सुतहिं नहिं बरजति, घर से मोहिं बुलावै ।
मोसों कहत तोहिं बिनु देखे, रहत न मेरो प्रान ।
छोह लगत मोको सुनि बानी, महरि तिहारी आन ।।
इन शब्दों में पवित्र हृदय के निश्चल प्रेम की जो स्वाभाविक, व्यंजना हुई है, अन्यत्र दुर्लभ है।
विविध लीलायें- इसके पश्चात् चीरहरण, रास, जलविहार, पनघट दल मान, ग्रीष्म हिंडोल, बसंत आदि लीलाओं तथा मुरली दम्पत्ति विहार आदि प्रसंगों के माध्यम से सूरदास ने राधा-कृष्ण तथा गोपी-कृष्ण की संयोग क्रीड़ाओं की मार्मिक ने अभिव्यंजना की है। इस प्रकार उनके मिलन के अनेक अवसर सूरदास ने कल्पित किये हैं।
सूर के संयोग श्रृंगार की चरम अभिव्यक्ति रासलीला में देखी जा सकती है। कृष्ण मण्डलाकार नृत्य में ब्रजभामिनियों के साथ उसी प्रकार शोभित है जिस प्रकार दामिनी के साथ घन। प्रकृति अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के साथ आनन्द लीला में पूर्ण सहयोग देती है। गोपियाँ आनन्द विभोर हो उठती हैं। मिलन का यह चित्र भौतिक और आध्यात्मिक दोनों धरातलों पर स्थिर है। आध्यात्मिक धरातल जीवात्मा और परमात्मा के चिर मिलन की भूमिका प्रस्तुत करता है और भौतिक धरातल पर प्रेमी युग्मों का अत्यन्त सुखद मिलन है जो सब प्रकार के मनोविकारों को त्याग कर प्रेमी को शुद्ध प्रेम की स्थिति तक ले जाता है। इस प्रकार संयोग श्रृंगार का शायद ही कोई चित्र हो, जिसे सूर ने अपनी दिव्य दृष्टि से न आंका हो। इसलिए आचार्य शुक्ल कहते हैं-सूर का संयोग दर्शन एक क्षणिक घटना नहीं है, प्रेम संगीतमय जीवन की एक गहरी, चलती गाड़ी है जिससे अवगाहन करने वाले को दिव्य माधुर्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखाई पड़ता ।
वियोग शृंगार- सूर का वियोग वर्णन सर्वाधिक मार्मिक है। इसके आश्रय गोपियां तथा राधा हैं। सूर साहित्य में वियोग श्रृंगार के मुख्यतः तीन रूप प्राप्त होते के हैं- (क) संयोग में वियोग, (ख) संक्षिप्त विरह, (ग) प्रवास विरह या दीर्घ विरह।
संयोग में वियोग- कृष्ण की बाल छवि को देखकर गोपियों में प्रेम का अंकुर फूटने लगा था। कृष्ण के प्रति उनके मन में लगाव भी होने लगा था।
ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारै आवै ।
कृष्ण भी गोपियों विशेषतः राधा के रूप और योवन की ओर आकृष्ट होने लगे थे-
नैन-नैन कीन्हीं सब बातें गुप्त प्रीति प्रगटान्यौ।
ऐसी स्थिति में क्षण भर भी वियोग असह्य हो जाता है। राधा की स्थिति ऐसी ही होने लगी।
अति विरह तनु भई व्याकुल घर नैकु न सुहाइ।
गोपाल कृष्ण गोचारण के लिए प्रातःकाल जाते हैं और सायंकाल गोधूलि बेला में लौटते हैं जिससे गोपियां दिन भर विरह व्यथित पहती हैं। उनका विरह सायंकाल कृष्ण को देखने से ही शांत हो जाता है-
मेरे नैन निरखि सुख पावत।
संध्या समय गोप, गोधन संग बनतें बने ब्रज आवत ।
सूरदास नागर नारिन कौ, बासर विरह नसावत।
ये सारी विरहानुभूतियाँ तब होती है जब कृष्ण घूम-फिर कर गोपियों के बीच रहते हैं। संक्षिप्त अथवा सोद्देश्य विरह-सूरदास ने राधा एवं गोपियों के कुछ विरह प्रसंगों की योजना विशेष प्रयोजनों की दृष्टि से की है। राम प्रसंग उसका सर्वोत्तम उदाहरण है। रास का विरह एक उद्देश्य से नियोजित है। गोपियों को कृष्ण का कृपा पत्र बन जाने का गर्व हो गया था। उनका गर्व चूर करने के लिए कृष्ण राधा को लेकर अन्तर्ध्यान हो गये-
गरब भयो ब्रजनारि कौ, तबहीं हरिजाना।
राधा प्यारी संग लिए भए अन्तर्ध्यान ।।
कृष्ण विरह में व्याकुल गोपियाँ हाहाकार कर उठीं। कृष्ण को देखे बिना उन्हें क्षण भर भी कल नहीं पड़ रहा था।
अब बिनु देखे काल न परतु छिन ।
इसी प्रकार एक बार राधा को भी अहंकार हो गया। कृष्ण उन्हें छोड़कर अन्तर्ध्यान हो गये। राधा पर इस दारुण विरह व्यथा का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि वह करुण क्रन्दन करने लगी-
रुदन करत वृषभानु कुमारी ।
अन्त में राधा ने पश्चाताप किया, अपनी भूल स्वीकारी।
थोरी कृपा बहुत गरबानी, ओछी बुधि ब्रज- बाला ।
पश्चाताप करने के उपरान्त कृष्ण प्रकट हो गये और विरहणियों को गले से लगा लिया।
राखी कण्ठ लगाइ ।
इस संक्षिप्त विरह ने गोपियों को निष्कलुष एवं गर्व रहित कर दिया, जो कि रासलीला के लिए अति आवश्यक था।
दीर्घ विरह- कृष्ण के मथुरा गमन पर गोपियां उनके विरह में जलती रहीं। वह प्रवास-जन्य दीर्घ विरह है। उद्धव के आने पर गोपियाँ उन्हें खरी-खोटी सुनाने लगती हैं। जिस मथुरा में वे पहले नित्य प्रति गोरस बेचने जाया करती थीं। कहीं उनके लिए अब परदेश बन गया।
भयो विदेश मधुपरी हमको क्यों हूँ होत न जान।
व्यापक विरह-सूर के श्रंगार वर्णन की प्रमुख विशेषता विरह की व्यापकता है। कृष्ण के विरह में कौन-सा ब्रजवासी मलिन मुख नहीं है ?
गोपी, ग्वाल, गाइ, गोसुत तब दीन मलीन दिनहिं दिन छीजैं।
गायों ने दूध देना तथा तृण चरना छोड़ दिया-
धेनु नहिं पय स्त्रवहिं मुख चरति नहिं तृण कन्द |
सारा ब्रहमण्डल विरह में व्याप्त हो गया है-
ऊर्धा हमहिं कहा समुझावहु ।
पशु पंदी सुरभि ब्रज की सब, देखि स्त्रावन सुनि आवहु ।
और तो और कृष्ण के वियोग में यमुना तक श्याम हो गई है-
देखियत कालिन्दी अति कारी ।
अहो पथिक कहियौ उन हरि सौं भई विरह जुर जारी।
वियोग की दशायें- जब कृष्ण ब्रज में मथुरा चले जाते हैं तो उनका प्रेम चिर वियोग में परिवर्तित हो जाता है। सूरदास ने बड़ी रुचि और तन्मयता के साथ काव्यशास्त्र में गिनाई गई विरह की दशाओं का अत्यधिक मार्मिक एवं हृदयग्राही वर्णन किया है, जिन्हें निम्नांकित पंक्तियों में देखा जा सकता है-
अभिलाषा- गोपियों को यह अभिलाषा है कि वे किसी प्रकार कृष्ण से मिलें। इसीलिए वे उद्धव से कहती हैं-
ऊधौ ! स्याम इहां लै आवहु ।
ब्रज जन ताकल मरत पियासे स्वाति बूंद बरसावहु ।।
चिन्ता – वियोगजन्य चिन्तावस्था का वर्णन करते हुए कवि कहता है-
मधुकर! ये नैना पै हारे ।
निरखि निरखि मृग कमल नयन को प्रेम मगन भरे भारे ।
ता दिन ते नीदौ, पुनि नासी, जोकि परत अधिकारे ।
स्मरण-कृष्ण के साथ व्यतीत किए गए क्षणों का स्मरण करती हुई राधा कहती हैं-
मेरे मन इतनी भल रही ।
ये बतियां छतियां लिखि राखी जो नन्दलाल कही।
गुण-कथन- विरहावस्था में गोपियाँ कृष्ण के गुणों का स्मरण कर उसकी चर्चा करती हैं। देखिये विरह- जन्य गुण, काम रूप कितना सुन्दर उदाहरण-
इहि बेरियां बन ते ब्रज आवते ।
दूरिहि ते वे बैन अधर धरि बारहि बार बजावते ।।
उद्वेग-कृष्ण वियोग में गोपियाँ अत्यन्त व्याकुल हैं। उनकी आँखों से अश्रु धारा उमड़ पड़ती है। उन्हें तो बस यही ख्याल आता है-
अब देखि लैरी स्याम को मिलनौं बड़ी दूरी ।
प्रलाप-गोपियाँ कृष्ण के वियोग में जब अत्यधिक निराश हो जाती हैं तो प्रलाप करने लगती हैं-
सखि मिलि करो कछुक उपाय ।
व्याधि-संयोगावस्था में जो वस्तुएँ सुखदायी थीं वही अब दुखदायी हो गई हैं-
बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं ।
उन्माद-उद्वेग और प्रलाप के पश्चात् गोपियां उन्माद की अवस्था में पहुँच जाती हैं-
ऊधौ इतनी कहिये जाइ ।
जड़ता- विरह की अत्यधिक तीव्रता के कारण जड़ता की स्थिति आ जाती है
देखि मैं लोचन चुवत अचेत ।
मूर्छा-कृष्ण के वियोगाधिक्य के कारण कभी-कभी गोपियां मूर्छित हो जाती हैं। राधा की यह अवस्था दृष्टव्य है-
सोचति अति पछिताति राधिका मूर्च्छित धरनि ढही ।
सूरदास प्रभु के बिछरते विथा न जात कही ।।
मरण-जड़ता और मूर्च्छा के पश्चात् विरहिणी मरणास्था में पहुँच जाती है, किन्तु वह मरती नहीं, मृतवत् दिखाई देती है-
अति मलीन वृषभान कुमारी ।
इस सम्बन्ध में आचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल का यह कथन तर्कसंगत प्रतीत.. होता है-वियोग की जितनी अन्तर्दशायें हो सकमी हैं जितने ढंगों से उन दशाओं का साहित्य में सृजन हुआ है और सामान्यतः हो सकता है वे सब उसके भीतर मौजूद हैं।
इस प्रकार वह निर्विवाद है कि सूर का विरह वर्णन हिन्दी साहित्य में अनुपम एवं अद्वितीय है।
निष्कर्ष–उपर्युक्त विवेचन के तौर पर यह कहा जा सकता है कि सूर को श्रृंगार वर्णन में पर्याप्त सफलता मिली है। श्रृंगार वर्णन में वे अपने ढंग के अनूठे कवि हैं और उनकी दृष्टि से कोई भी स्थिति छूटने नहीं पाई है। अंत में आचार्य शुक्ल का यह कथन अधिक उपयुक्त होगा, हिन्दी साहित्य में श्रृंगार रस का राजत्व यदि किसी ने पूर्ण रूप से दिखाया है तो अकेले सूर ने ।
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