महाकवि सूरदास वात्सल्य के सम्राट हैं।
सूरदास का वात्सल्य रस चित्रण बड़ा ही चित्ताकर्षक और मनोहारी है। विशदता, मौलिकता और सहजता इसकी प्रमुख विशेषता है। कवि ने वात्सल्य के दोनों पक्षों संयोग और वियोग पर ही ध्यान नहीं दिया है अपितु अनेक सहकारी भावों की भी व्यंजना की है। माता यशोदा के मानस में बाल रूप भगवान के दर्शन की उत्कृष्ट अभिलाषा है। सच्चिदानन्द प्रभु को पुत्र रूप में पाकर उन्हें गर्व का अनुभव होता है। पुत्र की देख-रेख एवं परिचर्या में वह बड़े उत्साह के साथ तन्मय दिखाई पड़ती है। सारांश यह है कि सूर के साहित्य में वात्सल्य वर्णन के अन्तर्गत उत्सुकता, अभिलाषा, गर्व, उत्साह आदि अनेक सहकारी भावों की सुन्दर व्यंजना हुई है।
शास्त्रीय दृष्टि से वात्सल्य रस की निष्पत्ति प्रक्रिया में नंद-यशोदा और सम्पूर्ण ब्रजवासी इसके आश्रय हैं। कृष्ण आलंबन है। कृष्ण की मोहक चेष्टायें उद्दीपन हैं। माता के मन में अभिलाषा और उत्सुकता, अमर्ष, चिन्ता, गर्व आदि संचारी भाव है। इसके संयोग व वियोग दो पक्ष हैं।
संयोग पक्ष- कृष्ण जन्म की आनन्द बधाई के बाद ही बाल लीला का आरम्भ हो जाता है। जितने विस्तृत एवं विशद् रूप में बाल्य जीवन का चित्रण सूर ने किया है उतना और किसी कवि ने नहीं किया। शैशवावस्था से लेकर किशोरावस्था तक के न जाने कितने चित्र मौजूद हैं। बाल सौन्दर्य के वर्णन में कवि का उत्साह दर्शनीय है। झूले में झूलते हुए, पैरों का अंगूठा दही में डालते हुए, दही खाते हुए बालक कृष्ण की अनेक छवियाँ सूर की कल्पना में मूर्तिमान हो उठती हैं। अपनी जिद न पूरी होने पर-
खसि – खसि परत कान्ह कनियाँ तै सुसुक सुसुकि मन खीझै ।।
इसी तरह यह वर्णन भी अद्वितीय है-
हरि अपने आंगन कछु गावत ।
तनकतनक चरननि सो नाचति मनहि-मनहि रिझावत ।
सूर के वात्सल्य वर्णन में केवल रूपों और चेष्टाओं का ही विस्तृत वर्णन नहीं है। अपितु कवि ने बालकों की अंतःप्रकृति में भी पूरा प्रवेश किया है और अनेक वात्सल्य भावों की सुन्दर स्वाभाविक व्यंजना की है। स्पर्धा का भाव जो बालकों में स्वाभाविक होता है, उसका चित्रण कितने सहज ढंग से सूरदास ने किया है-
मैया कबहिं बढ़ेगी चोटि ।
तू जो कहत बल की बेनी ज्यौं हवे लांबी मोटी।।
बाल चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना भण्डार कहीं और नहीं जितना बड़ा सूरदास सूर सागर में है। दो चार चित्र हैं-
सोभित कर नवनीत लिये।
घुटुरन चलति तन मण्डित, मुख दहि लेप किये ।।
सिखावत चलन जसोदा मैया ।
अरबाई करि पानि गहावत डगमगात धरती धरै पैंयाँ ।।
क्रियाओं-चेष्टाओं तथा रूप-वर्णन के सात बाल एवं मातृ मनोविज्ञान में सूर की अद्भुत पैठ है। बच्चे को पालने में हलराती, दुलराती और झुलाती माँ नींद में विघ्न न पड़ने के लिये आस-पास के लोगों को चुप रहने का संकेत करती है और यों ही कुछ गुनगुनाती है।
यशोदा हरि पालने झुलावैं ।
हलरावें, दुलरावै, मल्हावें जोइ सोइ कछु गावैं ।।
मेरे लाल को आनु निंदरिया काहे न आनि सुलावें ।
यह जोई सोई कछु गावैं ।।
सुनियोजित सुर ताल निबद्ध चोरी की अपेक्षा कितना सहज और अकृत्रिम है। इसी प्रकार माँ के मन की अनेक अभिलाषाओं, कृष्ण को बहलाने के लिए चन्द्रमा दिखाना और कृष्ण का चन्द्रमा को पाने की हट पकड़ लेने पर मनस्ताप पड़ोसियों के घर में माखन चुराने की शिकायत पर कृष्ण को बाँध देने की ग्लानि और अमर्ष अस्त्रियों की बनावटी सहानुभूति पर उन्हें झिड़क देने की अनेकानेक मनःस्थितियों के द्वारा चिरन्तन मातृमन चित्रित हुआ है।
आश्रय पक्ष के समान आलम्बन पक्ष अर्थात् कृष्ण के मनोभावों को भी कवि उतनी ही सहृदयता और कुशलता से चित्रित करता है। कभी चोरी करते हुए पकड़े जाने पर भी उसे अपना ही घर पर समझ कर दही से चींटीं निकालने-
“मैं जानो यह मेरा घर तो धोखे में आयो ।
देखत ही गोरस में चींटी काढ़न को कर नायो।।”
तो कभी नन्हें हाथों के छींके तक न पहुँच पाने का प्रमाण देकर अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने की चेष्ट करना। पीठ के पीछे दोना छिपाकर साथियों द्वारा मुँह में दही लगाये जाने के हजार-हजार बहाने बनाना ‘गवाल बाल सब बैर परे हैं बरबस मुख लपटायो’ कृष्ण की प्रयुत्पन्नमति में सूझते है। बाल मनोविज्ञान के ऐसी गहरी और सही समझ के प्रमाण अत्यन्त दुर्लभ हैं।
बाल लीला के आगे फिर उस गोचरण का मनोरम दृश्य सामने आता है जाति की अत्यन्त प्राचीन वृत्ति होने के कारण अनेक देशों में काव्य का जो मनुष्य प्रिय विषय रहा है। सूरदास जी ने यमुना के कछारों के बीच गोचरण के बड़े सुन्दर दृश्यों का विधान किया है जैसे-
मैया री ! मोहिं दाऊ टेरत ।
मोको बनफल तोरि देत हैं, आपुन गैयन धेरत ।।
यमुना के तट पर किसी बड़े पेड़ की छाया में बैठकर सब सखा कलेऊ बाँट कर खाते हैं, कभी इधर-उधर दौड़ते हैं, कभी कोई चिल्लाता है-
द्रुम चढ़ि काहे न टेरत, कान्हा गैयाँ दूरि गई ।
धाई जाति सबन के आगे जो बृषभानु दई ।।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यशोदा नंद और कृष्ण के मध्य मातृ-पितृ स्नेह, ममता, बाल सुलभ चपलता के वर्णन में सूरदास ने वात्सल्य भाव की अनुभूति को चरम सीमा तक पहुँचाया है।
वियोग पक्ष-सूरदास जी का विप्रलम्भ भी ऐसा ही विस्तृत व व्यापक है, जैसा कि उनका संयोग पक्ष। कृष्ण के मथुरा चले जाने पर यशोदा के वेदना-विगलित चित्त का भी उसी मनोयोग से चित्रण हुआ है। अकस्मात् अक्रूर के साथ कृष्ण मथुरा चले जाते हैं, रह जाती हैं कण-कण में बसी उनकी स्मृतियाँ। कभी अत्यन् संकोच में देवकी के पास कृष्ण की नहाने-खाने की आदतों के बारे में संदेश भेजती है। उनका रोम-रोम कृष्ण के वियोग में रोता है।
यशोदा बार-बार यों भाखें ।
है कोई ब्रज में हितू हमारो चलत गुपालहिं राखै ।।
यहाँ स्मरण, चिन्ता, दैन्य, शंका आदि संचारी भाव सहज रूप में आ गये हैं। कृष्ण के मथुरा से न लौटने पर नंद और यशोदा दुःख सागर में मग्न हो गये है। अनेक दुःखात्मक भाव-तरंगे उनके हृदय में उठती हैं, कभी यशोदा नंद से सीखकर कहती हैं-
छाँड़ि सनेह चले मथुरा, कत दौरि न चीर गह्यौ ।
फाटि न गई ब्रज की छाती कत यह सूल सह्यौ ।।
इस पर नंद यशोदा पर उलट पड़ते हैं-
तब तू मारि बोई करित ।
कठिन हिय करि तब जो बाँधो अब बूथा करि मरति ।।
यह ‘झुंझलाहट’ वियोग जन्य है, प्रेम भाव के ही अन्तर्गत है और कितनी स्वाभाविक है। सुख-शान्ति के भंग का कैसा यथातथ्य चित्र है। गहरी उत्सुकता और अधीरता के बीच ‘विरक्ति” ओर ‘रिस्कार’ मिश्रित खिझलाहट का यह मेल केसा अनूठा है। यशोदा नंद से कहती हैं-
नंद ब्रज लीजै ठोंकि बजाय ।
देहु विदा मिलि जाहु मधुपुरी जहँ गोकुल के राय ।।
ठोंकि बजाये में कितनी व्यंजना हैं। तुम अपना ब्रज अच्छी तरह संभालो, तुम्हें इसका गहरा लोभ हैं, मैं तो जाती हूँ।
कृष्ण के मथुरा पर उनके लौट आने का जो क्षीण का आश्वासन रहा होगा, नंद को अकेला लौटता देखकर रहा सहा आशासूत्र भी समाप्त हो जाता है। यशोदा नंद पर बुरी तरह बरस पड़ती हैं-
जसुदा कान्ह करि बूझै ।
सूर स्याम बिछुरन की हम पै दैन बधाई आए ।।
अमर्ष तथा तिरस्कार नामक संचारियों के साथ यशोदा के क्षोभ, बेबसी और झुंझलाहट की अत्यन्त सुन्दर व्यंजना हुई है। बियुक्त प्रिय पुत्र के सुख के अनिश्चिय की शंकर और क्षोभजन्य उदासीनता किस प्रकार इन वचनों से टपक रही है।
संदेसो देवकी सों कहियो ।
प्रात उटत मेरे लाल लड़ैतहि माखन रोटी भावै ।।
कृष्ण राज भवन में जा पहुँचे। यह जानते हुए भी यशोदा में यह बात जल्दी नहीं बैठती कि कृष्ण के सुख का ध्यान जितना वे रखती थीं, उतना के प्रेमपूर्ण हृदय संसार में और भी कोई रख सकता है। रसमग्न हृदय ही ऐसी दशाओं का अनुभव कर सकता है।
इस प्रकार वात्सल्य के रसत्व के सम्बन्ध में सारे विवादों को निरर्थक सिद्ध करते हुए सूरदास ने अपनी सहृदयता, उद्भावना शक्ति और वर्णन क्षमता के बल पर साहित्य दर्पणकार की इस उक्ति की सार्थकता प्रमाणित कर दी है। कि ‘अन्य रसों से भिन्न प्रकार का चमत्कार होने के कारण वात्सल्य भी रस है।
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