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मलिक मुहम्मद जायसी के प्रेम तत्त्व पर प्रकाश डालिए।

मलिक मुहम्मद जायसी के प्रेम तत्त्व पर प्रकाश डालिए।
मलिक मुहम्मद जायसी के प्रेम तत्त्व पर प्रकाश डालिए।

मलिक मुहम्मद जायसी के प्रेम तत्त्व पर प्रकाश डालिए।

हिन्दी सूफी कवियों में जायसी अग्रणी हैं। जायसी की प्रेम-व्यंजना सूफीमत से प्रभावित है, वे प्रेम के पीर के कवि हैं। उन्होंन लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की प्रतिष्ठा की है। सूफी साधना का प्राणत्व प्रेम है, यही ईश्वर की सत्ता का सार है। जायसी का प्रेम विरह, त्याग, सत्यनिष्ठ, आदरभाव आदि से संयुक्त होने के कारण दिव्य है। डॉ. शिव सहाय पाठक के अनुसार “लौकिक प्रेम का समुन्नयन करके उसे दिव्य प्रेम की भूमिका पर प्रतिष्ठित करना उनकी साधना की चरम परिणति है।”

जायसी ने प्रेम को कठिन अगम्य एवं दुर्गम माना है। प्रेम रूपी पर्वत पर सिर के बाल चढ़ने वाला ही पहुँच सकता है। प्रेम का मार्ग सूली का मार्ग है जिस पर चोर चढ़ता है या मंसूर चढ़ा था-

प्रेम प्रहार कठिन विधि गढ़ा। जो पै चढ़े सो सिर सौ चढ़ा ।।

पंथ सूरि कै उठा अंकुरु । चोर चढ़े कि चड़ा मंसुरु ।।

जायसी ने प्रेम को तीनों लोक चतुर्दिश खण्डों में सर्वाधिक सुन्दर कहा है-

तीनि लोक चौदह खण्ड बबै परै मोहिं सूझ।

प्रेम छाड़ि नहिं लोन किछु जो देखा मन बूझ ।।

इसलिए जायसी प्रेम की बेलि में लोगों को न समझने की सलाह देते हैं-

प्रीति बेलि जनि अरुझैं कोई । अरुसै मुए न छूटे सोई ।।

प्रेम का फंदा इतना दृढ़ है कि प्राण भले ही चले जायें किन्तु फंदा नहीं टूटता-

प्रेम फांद जो परान छूटा।

जीउ दीन्ह पै फांद न टूटा।।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रेम के चार रूपों का उल्लेख किया है विशुद्ध, पूर्वानुराग, दरबारी और उद्दीपनात्मक है, जो गुण श्रवण, चित्र दर्शन या प्रत्यक्ष दर्शन से उत्पन्न होता है। जायसी ने ‘पद्मावत’ में रत्नसेन तथा पद्मावती के माध्यम से प्रेम के उदात्त स्वरूप की व्यंजना की है। पद्मावत में जायसी ने प्रेम के जिस स्वरूप की अभिव्यक्ति की है जिसमें मानसिक पक्ष प्रधान और शारीरिक पक्ष गौण है। कवि ने आलिंगन, चुंबन आदि के स्थान पर विरहाकुलता का ही चित्रण अधिक किया है। तोता के मुख से पद्मावती की रूप-वर्णन सुनकर रत्नसेन प्रेम-समुद्र में बहने लगता है-

सुनतहि राजा गा मुरछाई। जानीं लहरि सुरूज के आई ।।

प्रेम-घाव-दुख जान न कोई। जेहि लागे जानै पै सोई ।।

परा सो प्रेम समुद्र अपारा। लहरिहिं लहर होई विसंभारा ।।

बिहर मौर होइ भांवरि देई। खिन-खिन जीउ हिलोरा लेई ।।

खिनहिं उसास बूड़ि जिउजाई । खिनहिं उठै निसरै बौराई ।।

राजा सत्नसेन प्रेमोन्मत्त होकर राज-पाट त्याग कर योगी होकर निकल पड़ता है। सभी उसे समझाते हैं कि प्रेम से सम्बन्ध जोड़ना सुखकर है और फिर उसका निर्वाह अत्यन्त दुष्कर है। ज्ञान-दृष्टि के सहारे ही प्रेम तक पहुँचा जा सकता है क्योंकि प्रेम रूपी ध्रुव ध्रुवतारा से भी ऊँचा है-

पहिले सुख नेहहिं जब जोरा । पुनि होई कठिन निबाहत ओरा।।

अहुठ हाथ तन जइस सुमेरु पहुँच न जाइ परा तस फेरू ।।

ज्ञान दृष्टि सौं जाइ पहुँचा। प्रेम अदिष्ट गगनते ऊँचा ।।

ध्रुव से ऊँच प्रेम ध्रुव ऊआ सिर देई पांव देई सोइ छूआ ।।

जायसी के प्रेमतत्त्व का मर्म विरह में निहित है। विरह प्रेम का चरम सौन्दर्य है। प्रेम विरह रस से मादक हो जाता है। जायसी के शब्दों में-

प्रेमहिं मांह विरह-रस बसा मैन के घर मधु अमृत बसा।।

सूफी कवियों ने नायिका को ब्रह्म मानकर जीव रूप नायक के वियोग के माध्यम से परमात्मा आत्मा की विरह दशा का चित्रण किया है। रत्नसेन का विरह भी इसी आध्यात्मिक ऊँचाई को संस्पर्श करता है। वसंतोत्सव मना कर लौटने के बाद जब रत्नसेन को होश आता है तो वह विलाप करता है-

रौवे रतन-माल जनु चूरा जहं होई ठाढ़ होई तहं कूरा ।।

कहां बसत औकोकिल बैना कहाँ कुसुम अलि बेधा नैना ।।

पद्मावत में जायसी ने पद्मावती और नागमती दोनों के ही वियोग का मार्मिक चित्रण किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने नागमती के वियोग वर्णन को हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि माना है। पति वियोग में नागमती का शरीर सूख कर कांटा हो गया है। वियोग की दशा में सुखदायक वस्तुएँ भी दुःखद लगती हैं-

कातिक सरद रैति उजियारी। जग सीतल हो बिरहै जारी ।।

तन मन सेज करै अगिदाहू। सब कहं चंद भएउ मोहि राहू ।।

नागमती के रोम-रोम में प्रिय की ध्वनि निकलती है-

हाड़ भए सब किंगरी नसें भई सब तांति ।

रोवं से धुनि उठै, कहाँ बिथा केहि भांति ।।

नागमती की वियोग-ज्वाला पशु-पक्षियों को भी जला देती है और वृक्षों को पत्र रहित कर देती है-

जेहि पंखी के निकट होई, कहै बिरह के बात।

सोई पंखी जाइ जरि, तरुवर होइ निपात ।।

जायसी की प्रेम-भावना में तादात्म्य भाव है। प्रेम साधन में साधक और साध्य दोनों मिलकर एकाकार हो जाते हैं ‘गंधर्व सेन मंत्री खंड’ में तोता रत्नसेन से कहता है कि तुम्हारा योग उसको और उसका वियोग तुम्हें मिल गया है। तुम उसके घर में और वह तुम्हारे घर में है। अब काल तुम लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ सकता है-

जोग तुम्हारा मिला ओहि जाई। जो ओहि बिधा सो तुम्ह कह आई।।

तुम ओहि के घर वह तुम्ह माहा। काल कहाँ पावै वह छाहा।।

जायसी के प्रेम में वासना का अभाव है। प्रेम की कामना प्रिय दर्शन भर की है। जायसी ने नागमती के माध्यम से इस तथ्य की व्यंजना की है। नागमती पद्मावती के लिए संदेश भेजती है कि-

मोहिं भोग सो काज न बारी । सौंह दीठि कै चाहन हारी ।।

संक्षेप में, जायसी प्रेम के कुशल चितेरे हैं। उनके काव्य में प्रेम का दिव्य एवं उदात्त रूप मिलता है। उन्होंने जिस प्रेम का वर्णन किया है वह बैकुंठी या दिव्य है। जायसी के शब्दों में-

मानुस पेम भएउ बैकुंठी ।

नाहिं त काह छार एक मूंठी ।।

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