“सूर में जितनी सरसता है उतनी ही वाग्विदग्धता है।” इस कथन की सोदाहरण विवेचना कीजिए ।
सूरदास कृष्ण काव्य धारा के प्रसिद्ध कवि हैं। उनके काव्य में कृष्ण की लीलाओं के रूप में चित्रांकन के साथ-साथ ब्रज की सांस्कृतिक परम्परा की भी झांकी है। भक्ति और प्रेम की प्रगाढ़ता के कारण इनका काव्य उदात्त है। सूर के काव्य में सभी शास्त्रीय रसों की निर्झरिणी प्रवाहमान है किन्तु श्रंगार एवं वात्सल्य का स्त्रोत अनुपम है। आचार्य नंद दुलारे बाजपेयी के अनुसार सूर की अनन्य तन्मयता स्वयं कविता की एक श्रेष्ठ विभूति है। उनकी मधुर भाव की उपासना उनके काव्य को यूँ ही कुसुमकोमल बना देती है । परन्तु सूर की पवित्र भावना से काव्यकला जिस रूप में उज्ज्वल हो उठी है वह भी हमारी आँखों के सामने है।
भाव रस के द्योतक हैं। भाव परिपुष्ट होकर रस का रूप लेते हैं। मानव हृदय में उठने वाले असंख्य भावों में से शास्त्रीय भावों की संख्या सीमित है। आचार्यों ने 11 स्थायी भावों तथा 33 संचारी भावों की चर्चा की है। सूर के काव्य में इनका चित्रण तो हुआ है, किन्तु इनके अतिरिक्त अनेक ऐसे भाव, आत्मसम्मान, खीझ, प्रतिस्पर्धा आदि हैं जिनकी अभिव्यक्ति सूरसागर में है। डा. मुंशी राम शर्मा के अनुसार “सूरसागर में विविध भावों की अभिव्यक्ति है। सूर के एक ही विषय से सम्बद्ध कन जाने कितनी प्रतिस्पर्धा का भाव परस्पर कितना प्रबल होता है।” इसका उदाहरण सूर साहित्य में मिलता है। श्रीदामा खेल में हारे कृष्ण से कहता है-
जाति पात हमते बड़ि नाहीं, नाहिन रहत तुम्हारी छैया ।
अति अधिकार जतावत याते, अधिक तुम्हारी है कछु गैया ।।
सूर के काव्य में अनुभवों की सुन्दर योजना है। ‘सूर सागर प्रबंधात्मक मुक्तक काव्य है। सूर ने एक-एक प्रसंग को लेकर उससे सम्बन्धित पदों की रचना की है। इसलिए अनुभव चित्रण की अधिकता है। रूप वर्णन तथा प्रेम प्रसंग के अनुभवों की सुन्दर एवं सहज अभिव्यक्ति है। राजा के दर्शन के अनन्तर कृष्ण की दशा बदल जाती है। उनकी आकुलता विभिन्न चेष्टाओं के द्वारा व्यक्त हुई है।
कबहुं स्याम जमुना जात।
कबहूं कदम चढ़त मग देथत राधा बिनु अति ही अकुलात ।
कबहू जात बन कुंज धाम कौ देखि रहत नहि कछु सुहात ।
सूर काव्य में रस की सरल अभिव्यक्ति है वात्सल्य एवं श्रंगार वर्णन की दृष्टि से सूर का काव्य हिन्दी में अनन्यतम है। सूर का सम्पूर्ण काव्य बाल मनोविज्ञान का लघु संस्करण है। शिशु का झूले में झूलना, अंगूठा चूसना, लोरी सुनाना, बालक की हंसी, उसका पलक झपकना, मचलना आदि अनेक भाव कवि की लेखनी से चित्रण है। बालक कृष्ण आंगन में घुटने के बल चल रहे हैं। मणिमय खंभे में अपने प्रतिबिंब को दूसरा बालक समझ कर उसे मक्खन खिलाने की कृष्ण की चेष्टा तथा आंगन में पड़ती अपनी परछाई को बार-बार हाथ से पकड़ने का प्रयास किया मनमोहक है-
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनिमय कनक नंद के आंगन, बिंब पकरिबै को धावत ।
कबहुं निरखि हरि आपु छाह को कर सौं पकरन चाहत। किलकि हंसत राजत द्वै दहिया पुनि-पुनि तेहि अवगाहत । सूरदास के इस बाल वर्णन में स्वाभाविकता है। ऐसा वर्णन किसी अन्य साहित्य से दुर्लभ है। माता यशोदा कृष्ण का हाथ पकड़कर चलना सिखाती हैं तथा पाँव लड़खड़ाने से कृष्ण गिर जाते हैं-
सिखवत चलन जसोदा मैया ।
अरबराइ कर पानि गहावत, जगमगाइ धरनी धरै पैंया ।।
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐसी ही वर्णनों को लभ्य कर कहा है कि यशोदा के माध्यम से सूरदास ने मातृ हृदय का ऐसा स्वाभाविक, सरस एवं हृदयग्राही चित्र खीचा है कि आश्चर्य होता है।
वात्सल्य की भाँति सूर श्रंगार वर्णन में भी सिद्धहस्त हैं। श्रंगार के संयोग और वियोग के चित्र सूर के काव्य में प्राप्त होते हैं। राधा कृष्ण की बाल लीला अपने आगे चलकर यौवन प्रेम में परिणत हो जाती है। राधा-कृष्ण एक दूसरे से मिलते रहते हैं। राधा कृष्ण को गाय दुहने के लिए बुलाती है वे दूध की एक धार मटके में डालते हैं तथा दूसरी राधा के मुख पर-
धेनु दुहत अति ही रित बढ़ी
एक धार दोहनि पहुँचावत, एक धार जहाँ प्यारी ठाढ़ी।
मोहन कर ते धार चलति, परि मोहनि मुख अति ही छवि गाढ़ी ।।
राधा खीझ जाती हैं। वह कृष्ण को प्रेम भरी झिड़की देती है-
तुम पै कौन दुहावै गैया ।
इत चितवन उत धार चलावत यहि सिखवो है मैया ।।
सूर के काव्य में संयोग श्रंगार के साथ ही वियोग श्रंगार की भी झांकी है। कृष्ण के मथुरा जाने के समय गोपियाँ स्तब्ध होकर खड़ी रह जाती हैं-
रही जहाँ सो तहाँ ठाढ़ी।
हरि के चलत देखियत ऐसी, मनहु चित्र लिखि काढ़ी ।
सूबे बदन, सूवति नैननि तैं जल धारा उद बाढ़ी ।।
कृष्ण के चले जाने पर वे वहाँ से हटती ही नहीं बल्कि उनके पैर घर की ओर नहीं बढ़ते-
पाछै ही चितवन मेरे लोचन, आगे परत न पाइ ।
मन लै चली माधुरी मूरति, कहा करौ ब्रज जाइ।
कृष्ण के मथुरा गमन से सम्पूर्ण ब्रजमंडल शोकाकुल हो उठता है। प्रकृति श्रीहीन हो जाती है। गोपियों को कृष्ण के बिना कुंजै दाहक सी प्रतीत होती है। वे उनकी बैरिन हो गयी है-
बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजै।
तब ये लता लगति तनु सीतल, अब भई विषम ज्वाला की पुंजै।
वृथा बहति जुमना खग कलरव वृथा कमल फूलत अति गुजैं।
पवन पानि घनसार सजीवन दधिसुत किरन भानु भइ भुंजैं।
कृष्ण के विरह- ज्वार से यमुना भी काली पड़ गयी है। वह पर्वत रूपी पलंग से बार-बार गिर पड़ती हैं। तरंग रूपी तड़पन से उसका शरीर पीड़ित है-
देखियत कालिंदी अति कारी
अहो पथिक कहियो उन हरि सों भई बिरह जुर जारी।
गिरि प्रजंक से गिरति धरनि धंसि, तरंग तलफ तनभारी ।
तट बारू उपचार चूर जलपुर प्रस्वैद पनारी ।
पपीहा पिउ-पिउ की ध्वनि से गोपियों की वेदना से शिथिल शरीर को थोड़ी देर के लिये आश्वस्त करता है। वह उनको जीवन दान देता हुआ लगता है-
सखी री चातक मोहिं जियावत ।
जैसेहि रैनिक रटत हौं पिय-पिय, तैसेहिं वह पुनि गावत ।
रसात्मक व्यंजना की तृष्टि से सूर का भ्रमरगीत अनुपम है। उसमें वियोग रस के साथ ही अन्य रसों के स्थल मिलते हैं। हास्य रस का एक उदाहरण देखिये। कृष्ण माखन चुराते समय पकड़े जाने पर कैसा बहाना बनाते हैं-
मैं जान्यो, यह घर आपुन है, या धोखे में आयौ ।
देखत ही गौरस में चींटी काढ़ी को कर नायौ ।।
सूर के काव्य में रसात्मकता के साथ ही बाग्विदग्धता मिलती है जिसकी अभिव्यक्ति भ्रमर गीत में सर्वाधिक है। उद्धव के ब्रह्म का वर्णन सुनकर गोपियाँ अपनी वाग्विदग्धता का परिचय देते हुए उनसे प्रश्न करती हैं-
निर्गुन कौन देस को बासी ।
मधुकर ! हंसि समुझाय, सौंह दै बूझति साँच न हाँसी ।
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी ।
कैसे बरन, भेस है कैसो, केहि रस मैं अभिलासी ।
सूर की गोपियाँ तार्किक हैं। वे उद्धव के योगमार्ग की जटिलता की खिल्ली उड़ाती हैं-
हमारे कौन जोग व्रत साधै ।
बटुआ झोरी दंड अधरी, अगम अधार अगाधै ।
गिरधर लाल छबीले मुख पर इतै बांध को बांधै ।।
इस प्रकार सूरदास के काव्य में सभी रसों का विनियोग है, इसमें सरसता के साथ ही वाग्विदग्धता भी विद्यमान है।
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