सूर के वियोग-वर्णन की विशेषताएँ
सूरदास भक्तिकालीन कृष्ण काव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनकी कृतियों में मनोगत भावों और आंगिक चेष्टाओं का जैसे वर्णन मिलता है। वैसा हिन्दी में विरल है। सूर वात्सल्य के विश्व श्रेष्ठ कवि हैं। इसके अतिरक्त श्रृंगार में भी उनकी समता का कोई भक्तिकालीन कवि नहीं है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार हिन्दी में शृंगार का रस राजस्व यदि किसी ने पूर्ण रूप से दिखाया है तो सूर ने ।
सूर के काव्य में वियोग श्रंगार का सुंदर वर्णन हुआ है। कवि की दृष्टि संयोग की अपेक्षा वियोग पर अधिक पड़ी है। विरह में प्रेम का रंग गाढ़ा हो गया है।
ऊधौ को गोपियां कहती है-
“ऊधौ विरहो प्रेम करे। ज्यों बिनु पुट पट गहत न रंगहि पुट गहि रसहिं परै ।
सूर के वियोग श्रृंगार में नायक रस बिहारी कृष्ण हैं और तथा नायिका राधा एवं अन्य गोपियां है। राधा-कृष्ण के श्रृंगार का वर्णन ही सूर का अभिप्रेत है। उन्होंने गोपियों की पृष्ठभूमि में राधा-कृष्ण के प्रेम का सुन्दर रेखांकन किया है। राधा अनायास ही ब्रज की गलियों में आ जाती है। कृष्ण की उन पर दृष्टि पड़ती है। कवि ने राधा-कृष्ण के पूर्व राग की प्रभावशाली व्यंजना की है-
खेलत हरि निकसे ब्रज खोरी
कटि कछनी पीताम्बर बांधे हाथ लिये भंवरा चक डोरी ।
औचकही देखी तहँ राधा नैन विसाल भाल दिये रोरी ।
नील बसन फरिया कटि पहिरै बेनी पीठि रुचिर झकझोरी।
संग लरिकन चलि इत आवति दिन थोरी अति छवि तन गोरी ।
सूर स्याम देकत ही रीझै, नैन नैन मिलि परी ठगोरी ।
फिर तो राधा की दशा चिंतनीय हो गयी-
जब ते प्रीति स्याम सो किन्हीं ।
ता दिन ते मेरे इन नैननि ने कहु न लीन्हीं ।
रात्रि में जब उसे थोड़ी नींद आती हैं तो स्वप्न में उसे कृष्ण के ही दर्शन होते हैं किन्तु तुरन्त नींद खुल जाती है। वह सखी से कहती है-
सुपनै हरि आये हौं किलकी।
नींद जु सीति भई रिपु हमकौं, सहिन सकी रति तिल की।
वियोग की तीव्रता प्रवास अवस्था में अधिक होती है। कृष्ण के ब्रज चले जाने पर गोपियों का हृदय विदीर्ण हो जाता है। वे कृष्ण के रथ को तब तक देखती रहती हैं जब तक वह नेत्रों से ओझल नहीं हो जाता। एक गोपी की अभिलाषा देखिये-
पाछे ही चितवन मेरो लोचन, आगे परत न पाइ।
मन लै चली माधुरी मूरति कहा करो ब्रज जाइ ।।
गोपियों की वियोग अग्नि उद्धव के ज्ञान वायु से बढ़ जाती है। वे उद्धव के ज्ञान को मानने के पक्ष में नहीं है। सूर के भ्रमर गीत के अन्तर्गत राधा तथा गोपियों के विरह की सरल अभिव्यक्ति की है। विरह वर्णन की दृष्टि से यह प्रसंग सबसे अधिक मर्मस्पर्शी कतथा विदग्धतापूर्ण हैं-
“सुनहूँ गोपी हरि का संदेश” कहते हुए उद्धव कृष्ण का संदेश लेकर गोपियों के पास पहुँचते हैं, वे निरगुण ज्ञान का उपदेश देकर योग साधनाओं द्वारा गोपियों की विरह वेदना दूर करने का प्रयास करते हैं परन्तु गोपियों को उनका शुष्क ज्ञान तनिक भी स्वीकार नहीं। वे उद्धव से तर्क वितर्क करती है। अपने हृदय की करुण दशा दर्शाती है। इस प्रसंग में वचन वक्रता, वाग्दिधता और कलात्मकता अत्यन्त उत्तम रूप से अभिव्यक्त हुई है।
उद्धव अपनी ज्ञान की गठरी लेकर ब्रज आते है। गोपियों को कृष्ण के आने का भ्रम होता है। वे आतुर होकर दौड़ती है पर उद्धव को देख कुछ निराश होती हैं फिर अपने प्रियतम का कुशल प्रश्न पूछती हैं। उद्धव गोपियों के अतिथि एवं प्रेम के सन्देशवाहक थे। अतिथि को भला-बुरा कहना उचित न था अतः भ्रमर के बहाने उन्होंने मन के उद्गार प्रकट किये हैं। उद्धव एवं कृष्ण दोनों को भ्रमर व्रतधारी प्रमाणित करती हैं।
सूर के भ्रमरगीत में अवियोग की छटा ही निराली है। इसमें गोपियों की भक्ति रस सागर भी लहरा रहा है। वे कितनी विवशता व्यक्त करती हैं-
“ऊधौ मन नहिं हाथ हमारे ।। “
कितना अकाट्य तर्क देती हैं तथा अनन्यता भी व्यक्त करती हैं-
“ऊधौ मन न भये दस बीस
एक हुतौ सो गयौ श्याम संग को अवराधै ईस ।”
कितने भोलेपन से वे पूछती है
“निरगुन कौन देस को बासी ।”
अपने आराध्य श्याम सुन्दर के प्रेम के आँसुओं की सरिता को प्रवाहित करने वाली गोपियों को निर्गुण उपदेश किस प्रकार रुचिकर हो सकता है। वे अपनी योग के लिए असमर्थता व्यक्त करती है-
“ऊधौ जोग-जोग हम नाहीं ।
अबला सार ज्ञान कह जानै, कैसे ध्यान धराहीं ।”
क्योंकि उनकी अभिन्न प्रेम साधना तो इस प्रकार की है-
“लरिकाई को प्रेम कहां, अलि कैसे छूटत
कहा कहौं ब्रजनाथ चरित, अन्तरगति लूटत ।’
वे अपने प्रियतम की स्मृति में विलीन रहती है और अनवरत जागृत-स्वप्न, सुषुप्ति प्रत्येक अवस्था में अपने प्रिय का स्मरण करती हैं-
“सूरदास पल माहि न बिसरति मोहन मूरति सोवत जागत ।”
इस प्रकार वे ध्यान योगिनी है। उद्धव का योग इसके सामने कुछ भी नहीं है क्योंकि उनके लिए कृष्ण “हारिल की लकड़ी” है ।
“मन क्रम वचन नन्द नन्दन उर यह उठ करि पकरी ।”
कृष्ण की पत्रिका कपाकर उनकी विरह ज्वाला कितनी उद्दीप्त हो जाती है। वह प्रसंग उनकी सरिता का सजीव उदाहरण है-
“कोउ ब्रज बांचत नाहिनी पातीं।
लोचन जल कामद मसि कै है गई श्याम, श्याम की पाती ।”
परन्तु इस प्रेम पत्रिका से सन्तोष नहीं हुआ है वे कहती हैं-
“जौ लौ मदन गोपाल न देखे, बिरह जरावत छाती।”
वे खींझ उठती हैं
“उधौ कहा करे लै पाती ।”
वे तार्किक हो उठती है। उधौ की उपेक्षा करती हैं-
“हमरे कौन जोगि विधि साधै।”
बटुआ झोरी दण्ड अधारी, इतननि को आराधै ।।
जाकौ कहूँ था हगहि पैये, अगम आधार आगाधै।
सुनु मधुकर जिनि सरबस चाख्यो, क्यों सचु पावत आधै ।
सूरदास मानिक परिहरि के, छार गांठ को बांधै ।।”
गिरधर लाल छबीले मुख पर इते बाँध को बाँधै ।।
कितनी अनूठी ऊपमा है योग के छार से। वे डांट कर मधुप से कहती हैं-
“काहे रोकत मारग ऊधौ ।
सुनो मधुप निर्गुन कंटक से, राजपथ का रूधौ।”
वे उद्धव की व्यर्थ की बकवास से (गोपियाँ) खींझ उठती हैं। तभी एक भ्रमर राधा के चरणों के पास आकर बैठता है। उस भ्रमर को सम्बोधित करके उद्धव और कृष्ण को विश्वासघाती समझकर वे डांटती हैं, फटकारती हैं-
“रहु रे मधुकर मधु मतवारे ।
कौन काज हमको निरगुन सौ जीवहु कान्ह हमारे।।” इस प्रसंग में गोपियों की भावुकता के अतिरिक्त उनकी अनेक चित्तवृत्तियों के दर्शन होते हैं। कहीं हर्ष है, कहीं खींझ, कहीं भर्त्सना है, कहीं आशंका है, कहीं उत्साह है तो कहीं निराशा । पल-पल उनके वियोग सागर की तरंगे हिलोरे लेती हैं। परन्तु उधौ जैसे वेदान्तियों एवं हठयोगियों की खिल्ली उड़ाई गई है। वे उनका उपहास करती हैं-
“उधौ जाहु तुम्हें हम जाने ।
श्याम तुम्हें ह्यां नहि पठाए, तुम ही बीच भुलाने ।”
उनकी व्यंग्यक्तियों में, इनकी वाणी में ओज आ गया है। उनको अपने प्रेम पर गर्व है। इस वियोग की अग्नि में उनका प्रेम रूप स्वर्ग और दमक उठा है, जैसा कि ये कहती हैं-
“ऊधौ भली करि तुम आये ।
विधि कुलाल कीन्हें कांचे घट से तुम आनि पकाये ।”
योगाग्नि और वियोगाग्नि के मध्य गोपियों के शरीर रूपी घट और परिपक्व हो जाते हैं। उनका प्रेम निखर जाता है।
उन्हें अपने प्रेम पर पूर्ण निष्ठा विश्वास है
“ब्याहौ लाख धरौ दस कुबरी, अन्तहि कान्ह हमारी ।”
एक ओर उनकी अश्रुधारा का प्रवाह-
“निसि दिन बरसत नैन हमारे” की स्थिति दर्शाता है तो दूसरी ओर उनकी अभिलाषा-
“अखियाँ हरि दर्शन को भूखी हैं।” सदा प्रभु स्मरण करती रहती है तथा प्रभु का गुण गान करती रहती हैं। कहीं अपनी व्याधि का चित्रण करती है-
“बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस को, मग जोवत अखियाँ भई धुजै ।।
कहीं उद्वेग की दशा में स्थिर होकर-
‘तुम्हारी प्रीति किधौ तरवारि” कह जाती है, कभी उन्माद की दशा को प्राप्त हो जाती है, जड़ता की स्थिति भी उन्हें प्राप्त हो जाती है –
देखो मैं लोचन चुवत अचेत
मनहूँ कमल ससि त्रास ईस कौं, मुक्ता गनि गनि देत ।
‘तब ते इन सबहिनी सचु पाये’ में मूर्च्छा की दशा का वर्णन है तथा राधा की स्थिति का इस पद में मरणोन्मुख वर्णन किया गया है-
‘अति मलीन वृषभानु दुलारी।’
जहाँ प्रकृति उनकी भावनाओं के साथ साम्य नहीं करती वहाँ वे खीझ उठती हैं-
“मधुबन तुम कत रहत हरे ।
विरह वियोग श्याम सुन्दर के ठाढ़े क्यों न जरे ।”
इस प्रकार वियोग की सभी अवस्थाओं का चित्रण इस प्रसंग में मिलता है। सूर के जायसी की भाँति विरह की व्यापकता सारे विश्व में नहीं दिखाई देती है। के उन्होंने केवल ब्रज की ही प्रकृति का चित्रण किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सूर के वियोग के ‘ठाले बैठे का काम’ कहा है क्योंकि दो-चार कोस की दूरी पर स्थित मथुरा जाकर गोपियां कृष्ण से मिल सकती थीं। आचार्य रामचन्द्र के इस कथन का प्रतिवाद अनेक विद्वानों ने किया है। वह दूरी हृदय की है। इस प्रकार सूर का वियोग वर्णन अद्वितीय है।
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