B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

जाति भिन्नता या जाति असमानता क्या है? जाति भिन्नता में परिवर्तन लाने वाले कारकों का वर्णन कीजिये।

जाति भिन्नता या जाति असमानता
जाति भिन्नता या जाति असमानता

जाति भिन्नता या जाति असमानता – Caste Inequality in Hindi

जाति भिन्नता या जाति असमानता | Caste Inequality in Hindi- भिन्नता या असमानता सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। विश्व का कोई भी समाज हर दृष्टि से समान नहीं है।

ओकन के अनुसार, “पूर्व समानता को, यदि यह विद्यमान है, मान्यता देना असम्भव हो सकता है परन्तु असमानता को मान्यता प्रदान करना सरल है।” समाज में समानता की बात सोचना कल्पना मात्र है, क्योंकि मानव समान हो ही नहीं सकते हैं।

डेहरेन्डार्फ के अनुसार, “समृद्ध समाज में भी, यह एक कठोर और उल्लेखनीय तथ्य है कि मनुष्य असमान स्थितियों में होते हैं। ऐसी सन्तान है, जो अपने माता-पिता से लज्जित हैं, क्योंकि वे समझती हैं कि विश्वविद्यालय की डिग्री ने उन्हें बेहतर बना दिया है। ऐसे व्यक्ति हैं, जो टी.वी. रखे बिना अपने मकान पर एन्टिना लगाते हैं, जिससे कि उनके पड़ोसियों को पता लग जाए कि टी.वी. रख सकते हैं।”

‘जाति की समानता’ अथवा ‘जातीय असमानता’ में दो शब्द ‘जाति’ तथा ‘असमानता’ शामिल है। ‘जाति’ की असमानता को विस्तार से जानने हेतु जाति तथा असमानता को नीचे स्पष्ट किया जा रहा है। सामाजिक स्तरण का जाति एक प्रमुख प्रकार है और भार उसका सर्वोत्तम उदाहरण है, किन्तु यह मानना उचित नहीं कि जाति व्यवस्था केवल भारत तक ही सीमित है। विश्व के अन्य देशों में भी जाति की कुछ विशेषताएँ मिलती हैं क्योंकि वहाँ जाति की तरह अनेक बातों का निर्धारण जन्म से होता है। इसी तरह यह भी मानना भूल है कि भारत में केवल जाति हिन्दुओं तक सीमित है। सत्य तो यह है कि भारत के मुसलमानों व ईसाई आदि जाति प्रथा के प्रभाव अछूते नहीं हैं।

जाति की असमानताओं के लक्षण-घुर्ये ने जाति की असमानताओं के अग्र 6 लक्षण बताये हैं-

1. समाज का खण्डीय वर्गीकरण तथा असमानता- जाति व्यवस्था के कारण हिन्दू समाज कई खण्डों में बँटा हुआ है। खण्ड में आने वाले लोगों की सामाजिक दशा, उत्तरदायित्व व कार्य जाति द्वारा पहले ही तय होते हैं। जाति के सदस्य अपनी जाति को अधिक महत्व देते हैं। एक जाति पंचायत होती है। यह जाति पंचायत जाति की एक प्रशासनिक संस्था होती है, जो अपने सदस्यों के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखती है। जाति के नियमों का उल्लंघन करने पर जाति पंचायत द्वारा दण्ड दिया जाता है। जाति पंचायत खान-पान पर निषेध, गैर कानूनी सहवास, व्यभिचार, ऋण का भुगतान करना आदि बातों का निर्णय देती है। इन विभिन्न खण्डों में निम्नता जाति की सामाजिक प्रस्थिति से भिन्न होती है। जाति की उच्चता एवं निम्नता को धार्मिक, व्यावसायिक, खान-पान, पवित्रता, अपवित्रता आदि के आधार पर तय किया जाता है। व्यक्ति जिस खण्ड या जाति में पैदा होता है वह जीवन भर इसका सदस्य रहता है जाति की सदस्यता जन्म पर निर्भर होने के कारण संस्तरण व असमानता हमेशा बनी रहती है। जाति की उपजातियों में भी असमानताएँ होती हैं।

2. खान-पान तथा सहभोज सम्बन्धी असमानताएँ- खान-पान वह सहभोज सम्बन्धी समानताओं के अन्तर्गत इनसे सम्बन्धित प्रतिबन्ध तथा असमानतायें देखने को मिलती है। इनके द्वारा यह तय किया जाता है कि कौन सा व्यक्ति किन जातियों का भोजन खा सकता है तथा उसके हाथ का कौन खा सकता है?

ई.ए.एच. ब्लंट ने निम्नलिखित सात निषेधों को स्पष्ट किया है-

(i) पाँत-निषेध- व्यक्ति को किन-किन जाति के लोगों की पाँत में भोजन करना चाहिए और किनकी पाँत में नहीं। (ii) पाक-निषेध- जाति किन-किन व्यक्तियों द्वारा पकाया हुआ भोजन ग्रहण कर सकती है। (ii) भोजन-निषेध- व्यक्ति को भोजन करते समय किन संस्कारों का पालन करना चाहिए। (iv) जल-निषेध- किसके हाथ का पानी-जल चाहिए। (v) खाद्य-निषेध- जाति क्या खाए और क्या न खाए। (vi) हुक्का-पानी-निषेध- किसका हुक्का-पानी पीना चाहिए और किसके साथ बैठकर पीना चाहिए। (vii) पात्र-निषेध- भोजन पकाने हेतु किस प्रकार के बर्तन व्यवहार में लाने चाहिए।

घुर्ये ने जातिगत असमानताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि- “नियमानुसार किसी भी व्यक्ति को अपनी ही जाति के सदस्य के अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा बनाए गए भोजन को कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए। सामान्यतया अधिकतर जातियों को ब्राह्मण के हाथ से ‘कच्चा’ भोजन ग्रहण करने में आपत्ति नहीं होती है।”

4. सामाजिक समागम से सम्बन्धित असमानताएँ- समाज में सामाजिक समागम से सम्बन्धित कठोर निषेध को देखा जा सकता है।

अस्पृश्यता या छुआछूत दक्षिण भारत में अधिक है। यदि अछूत की छाया उच्च जाति के व्यक्ति पर पड़ जाए तो वह अस्पृश्य हो जाता है। उच्च जाति का व्यक्ति निम्न जाति को न तो छूता है और न ही उसके साथ उठता-बैठता है। पक्के कुएँ कम अपवित्र होते हैं।

5. नागरिक तथा धार्मिक असमानताएँ- हिन्दुओं में जातियों की नागरिकता तथा धर्म सम्बन्धी असमानताएँ पूरे भारत में कहीं अधिक तो कहीं कम रही है। जहाँ एक ओर उच्च जातियों के पास विशेषाधिकार रहे हैं वही दूसरी ओर निम्न जातियों के पास निर्योग्यताएँ एवं असमर्थताएँ रही हैं।

6. व्यवसायों में असमानताएँ- जाति व्यवसाय रूढ़िगत होते थे। व्यक्ति को अपनी जाति वाले व्यवसाय को करना होता था। जैसे- चर्मकार, धोबी, स्वर्णकार, ब्राह्मण आदि अपनी जाति परम्परागत व्यवसाय करते थे। पैतृक व्यवसाय सामाजिक नियन्त्रणों एवं प्रतिबन्धों के कारण त्यागना कठिन होता था। प्रत्येक जाति ने अपने सदस्यों को ऐसे व्यवसाय को करने की आज्ञा नहीं दी जो शराब, ताड़ी बनाने या कूड़ा-करकट, मैला साफ करने से सम्बन्धित हो।

7. विवाह से सम्बन्धित असमानताएँ- जाति व्यवस्था में अन्तर्जातीय विवाह पर प्रतिबन्ध है। जाति से बाहर विवाह करने पर वर-वधू उनके परिवारीजनों व सम्बन्धियों को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है। अन्तर्विवाह के कुछ अपवाद भी है जैसे- अनुलोम विवाह।

असमानता के प्रकार-

प्रकृति के प्रबल समर्थक रूसो ने अग्रांकित प्रकार की असमानताएं बतायी हैं-

1. प्राकृतिक असमानता- इस प्रकार की असमानता लिंग, आयु, मानसिक योग्यता, शारीरिक योग्यता आदि से सम्बन्धित होती है।

2. सामाजिक असमानता- व्यक्ति की भौतिक व बौद्धिक भिन्नता से व्यावसायिक अन्तर व सामाजिक विषमता उत्पन्न होती है।

डेहरेन्डार्फ ने अग्रांकित प्रकार की असमानताएँ बतायी हैं-

(i) भौतिक तथा शारीरिक गुण, चरित्र आदि की प्राकृतिक असमानता।
(ii) बुद्ध, प्रतिभा व शक्ति में प्राकृतिक असमानता।
(iii) समान श्रेणी वाले पदों में सामाजिक असमानता।
(iv) पद व्यवस्था में प्रस्थिति व धन पर आधारित सामाजिक संस्तरण।

जाति व्यवस्था में परिवर्तन लाने वाले कारक-

वर्तमान समय में जाति में अनेक परिवर्तन हुए हैं और उसका परम्परात्मक स्वरूप विघटित हुआ है। जाति में परिवर्तन, विघटन या उसे निर्बल बनाने वाले कारक इस प्रकार हैं-

(1) पाश्चात्य शिक्षा एवं सभ्यता- अंग्रेजों के आने से पूर्व भारत में धार्मिक शिक्षा का प्रचलन था, जिसमें केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था, शेष जातियों को शिक्षा से वंचित किया गया था। वे अपने जातीय व्यवसाय की शिक्षा परिवार-जनों से घर में ही प्राप्त करती थीं। अंग्रेजों ने भारत में धर्म-निरपेक्ष एवं सार्वभौमिक शिक्षा प्रारम्भ की। इस शिक्षा ने भारतीयों को रूढ़िवादिता एवं संकीर्णता से मुक्ति दिलायी एवं लोगों में स्वतन्त्रता, समानता तथा भाईचारे की भावना पैदा की। वैज्ञानिक शिक्षा ने लोगों में तार्किक दृष्टिकोण का विकास किया। फलस्वरूप जाति व्यवस्था निर्बल हुई।

अंग्रेजों के 150 वर्षों के राज्य के कारण भारत का पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति से सम्पर्क हुआ। पश्चिम के व्यक्तिवाद, उदारवाद, भौतिकवाद एवं उपयोगितावाद ने यहाँ नवीन विचारों को बढ़ावा दिया। धन एवं व्यक्ति के गुणों का महत्व बढ़ा। प्रेम विवाह एवं अन्तर्जातीय विवाह के कारण जातीय बन्धन शिथिल हुए तथा खान-पान एवं छूआछूत सम्बन्धी कठोरता कम हुई।

(2) औद्योगीकरण एवं नगरीकरण- औद्योगीकरण के कारण भारत में बड़े- बड़े कारखानों की स्थापना हुई, जिसमें सभी जातियों के लोग साथ-साथ काम करने लगे। इससे पूर्व प्रत्येक जाति का अलग-अलग व्यवसाय था। औद्योगीकरण में यह सम्भव न था कि चमड़े के रवाने में केवल चमार या सूती कपड़े के कारखाने में केवल जुलाहे ही कार्य करें। सभी जातियों के लोगों द्वारा एक ही कारखाने में साथ काम करने से उनमें पारस्परिक समझ बढ़ी तथा जातीय भेदभाव दूर हुए। सभी जातियों के मजदूरों ने मिलकर ट्रेड यूनियन बनायी, वे एक ही दल, झण्डे एवं कार्यक्रम के अन्तर्गत संघर्ष करने लगे। नगरों में सभी जातियों के लोग साथ-साथ रहने लगे, इससे भी उनके बीच व्याप्त जातीय भेदभाव कम हुए।

(3) धन का बढ़ता महत्व- वर्तमान समय में जन्म के स्थान पर व्यक्तिगत गुणों एवं धन का महत्व बढ़ा है। व्यक्ति का मूल्यांकन अब जाति के आधार पर ही नहीं, वरन् उसकी सम्पत्ति एवं गुणों के आधार पर होने लगा।

(4) स्वतन्त्रता आन्दोलन- अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिए स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने सभी देशवासियों को जातीय भेदभाव भुलाकर आन्दोलन में भाग लेने का आह्वान किया जिसके फलस्वरूप विभिन्न प्रान्तों, धर्मो, जातियों एवं भाषाओं से सम्बन्धित लोगों ने एक झण्डे के नीचे एकत्रित होकर सत्याग्रह एवं आन्दोलन किये। सभी जातियों के लोग जेलों में साथ-साथ रहते, खाते-पीते एवं उठते-बैठते। इससे भी जातीय भेदभाव समाप्त हुए।

(5) प्रजातन्त्र की स्थापना- स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद देश में प्रजातन्त्र की स्थापना की गयी। नवीन संविधान में रंग, लिंग, जन्म, धर्म आदि के आधार पर किसी के प्रति भेदभाव न बरतने का उल्लेख किया गया है। साथ ही सभी देशवासियों को समान मौलिक अधिकार प्रदान किये गये हैं। प्रजातान्त्रिक विचारों के कारण भी जाति-प्रथा निर्बल हुई।

(6) धार्मिक आन्दोलन- ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन तथा नानक, नामदेव, तुकाराम, कबीर आदि सन्तों ने जाति के दोषों की कटु आलोचना की और जातीय छुआछूत एवं ऊंच-नीच को समाप्त करने में योग दिया।

(7) यातायात एवं संचार साधनों में उन्नति- यातायात एवं संचार के नवीन साधनों के कारण लोगों में गतिशीलता बढ़ी, विभिन्न प्रान्तों, धर्मों एवं जातियों के लोग रेल, बस एवं वायुयान में सहयात्री बन यात्रा करने लगे। इससे उनमें सम्पर्क बढ़ा, समानता के भाव पनपे, छुआछूत कम हुई और खान-पान के नियमों में शिथिलता आयी।

(8) स्त्री-शिक्षा का प्रसार-खियों में शिक्षा के अभाव ने जातीय नियमों के पालन में योग दिया, किन्तु जब स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार हुआ तो उन्होंने जातीय बन्धन को तोड़ा और जाति-प्रथा के कारण उनको जिन यातनाओं को बर्दाश्त करना पड़ रहा था, उनके प्रति विद्रोह किया। उन्होंने भी जाति से सम्बन्धित विवाह एवं खान-पान के नियमों को चुनौती दी। नवीन शिक्षा प्राप्त स्त्रियां जातीय बन्धनों को स्वीकार नहीं करती हैं।

(9) संयुक्त परिवार के विघटन ने भी जाति-प्रथा को विघटित किया। संयुक्त परिवार में जातीय नियमों का पोषण होता था। एकाकी परिवारों की स्थापना के कारण जाति का पोषण करने वाले विचारों में कमी आयी।

(10) जाति पंचायतों का ह्रास- जाति-प्रथा को दृढ़ता प्रदान करने में जाति पंचायतों एवं ग्राम पंचायतों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जातीय नियमों का उल्लंघन करने वालों को जाति पंचायतें दण्ड देती थीं। उनके डर से भी लोग जाति-नियमों का पालन करते थे, किन्तु जब जाति पंचायतें समाप्त हुईं और उनके स्थान, पर नवीन अदालतें स्थापित हुई तो जाति-प्रथा भी कमजोर हुई।

(11) जजमानी प्रथा की समाप्ति- जजमानी प्रथा में एक जाति दूसरी जाति की सेवा करती थी, उनमें पारस्परिक निर्भरता थी, किन्तु जब औद्योगीकरण हुआ एवं नवीन व्यवसायों की स्थापना हुई तो जजमानी प्रथा टूटी, लोग अपने जातीय व्यवसाय के स्थान पर अन्य व्यवसाय भी करने लगे। इससे जातीय व्यवसाय सम्बन्धी बाध्यता समाप्त हुई और जाति- व्यवस्था का आर्थिक आधार कमजोर हुआ।

(12) नवीन कानूनों का प्रभाव- ब्रिटिश काल से ही कई ऐसे कानून बने जो जाति-प्रथा के विरुद्ध थे। हिन्दू-विवाह वैधकरण अधिनियम, 1949; विशेष विवाह अधिनियम, 1954; हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955; आदि ने विभिन्न धर्मों एवं जाति के स्त्री-पुरुषों के विवाह को वैध घोषित किया। इससे जाति अन्तर्विवाह के नियम में शिथिलता आयी। 1955 के ‘अस्पृश्यता अपराध अधिनियम’ द्वारा छुआछूत को समाप्त कर दिया गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य किसी भी नागरिक के प्रति धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं बरतेगा। अनुच्छेद 17 के अनुसार अस्पृश्यता का अन्त कर दिया गया है। संविधान में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, धर्म ने ही जाति को स्थायित्व प्रदान किया है। धर्म का महत्व घटने के साथ-साथ जाति-व्यवस्था का महत्व भी घटा है।

  1. परामर्शदाता के शिक्षा सम्बन्धी उत्तरदायित्व | Educational Responsibilities of the Counselor in Hindi
  2. परामर्शदाता की विशेषताएँ | Characteristics of the Consultant in Hindi
  3. माता-पिता की परामर्श कार्यक्रम में भूमिका | The Role of Parents as a Counsellor in Hindi
  4. प्रधानाचार्य की परामर्शदाता के रूप में भूमिका | Role of the Principal as a Counselor in Hindi
  5. विद्यालय छात्रालयाध्यक्ष अर्थ एवं उसके गुण
  6. छात्रालयाध्यक्ष के कर्तव्य (Duties of Hostel warden)
  7. अभिवृत्ति का अर्थ और परिभाषा | Meaning and Definition of Attitude in Hindi
  8. अभिवृत्ति मापन की प्रविधियाँ | Techniques of Attitude Measurement in Hindi
  9. अभिक्षमता परीक्षण क्या है? | Aptitude Test in Hindi
  10. बुद्धि का अर्थ और परिभाषा | Meaning and Definition of Intelligence in Hindi
  11. बुद्धि के प्रमुख सिद्धान्त|Theories of Intelligence in Hindi
  12. बुद्धि परीक्षण – बुद्धि परीक्षणों के प्रकार, गुण, दोष, उपयोगिता – Buddhi Parikshan
  13. बुद्धि-लब्धि – बुद्धि लब्धि एवं बुद्धि का मापन – Buddhi Labdhi

इसे भी पढ़े ….

  1. निर्देशात्मक परामर्श- मूलभूत अवधारणाएँ, सोपान, विशेषताएं, गुण व दोष
  2. परामर्श के विविध तरीकों पर प्रकाश डालिए | Various methods of counseling in Hindi
  3. परामर्श के विविध स्तर | Different Levels of Counseling in Hindi
  4. परामर्श के लक्ष्य या उद्देश्य का विस्तार में वर्णन कीजिए।
  5. परामर्श का अर्थ, परिभाषा और प्रकृति | Meaning, Definition and Nature of Counselling in Hindi
  6. विद्यालय निर्देशन सेवा संगठन सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  7. विद्यालय निर्देशन सेवा संगठन के क्षेत्र का विस्तार में वर्णन कीजिए।
  8. विद्यालय में निर्देशन प्रक्रिया एवं कार्यक्रम संगठन का विश्लेषण कीजिए।
  9. परामर्श और निर्देशन में अंतर 
  10. विद्यालय निर्देशन सेवाओं के संगठन के आधार अथवा मूल तत्त्व
  11. निर्देशन प्रोग्राम | निर्देशन कार्य-विधि या विद्यालय निर्देशन सेवा का संगठन
  12. विद्यालय निर्देशन सेवा संगठन का अर्थ, परिभाषा, आवश्यकता एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।
  13. निर्देशन का अर्थ, परिभाषा, तथा प्रकृति
  14. विद्यालय में निर्देशन सेवाओं के लिए सूचनाओं के प्रकार बताइए|
  15. वर्तमान भारत में निर्देशन सेवाओं की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए।
  16. निर्देशन का क्षेत्र और आवश्यकता
  17. शैक्षिक दृष्टिकोण से निर्देशन का महत्व
  18. व्यक्तिगत निर्देशन (Personal Guidance) क्या हैं? 
  19. व्यावसायिक निर्देशन से आप क्या समझते हैं? व्यावसायिक निर्देशन की परिभाषा दीजिए।
  20. वृत्तिक सम्मेलन का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसकी क्रिया विधि का वर्णन कीजिए।
  21. व्यावसायिक निर्देशन की आवश्कता | Needs of Vocational Guidance in Education
  22. शैक्षिक निर्देशन के स्तर | Different Levels of Educational Guidance in Hindi
  23. शैक्षिक निर्देशन के उद्देश्य एवं आवश्यकता | 
  24. शैक्षिक निर्देशन का अर्थ एवं परिभाषा | क्षेत्र के आधार पर निर्देशन के प्रकार
  25. शिक्षण की विधियाँ – Methods of Teaching in Hindi
  26. शिक्षण प्रतिमान क्या है ? What is The Teaching Model in Hindi ?

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider.in does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment