B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप कैसा होना चाहिए? स्पष्ट कीजिए।

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप
बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप

अनुक्रम (Contents)

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप 

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप- इस अवस्था में बालक विद्यालय में जाने लगता है और उसे नवीन अनुभव प्राप्त होते हैं। औपचारिक तथा अनौपचारिक शैक्षिक प्रक्रिया के मध्य उसका विकास होता है।

बाल्यावस्था शैक्षिक दृष्टि से बालक के निर्माण की अवस्था है। इस अवस्था में बालक अपना समूह अलग बनाने लगते हैं। इसे चुस्ती की आयु भी कहा जाता है। इस अवस्था में शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार होता है— 

ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन ने लिखा है—“बाल्यावस्था वह समय है, जब व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोणों, मूल्यों और आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण होता है। “

जिस निर्माण की ओर ऊपर संकेत किया जाता है, उसका उत्तरदायित्व बालक के शिक्षक, -पिता माता और समाज पर है। अतः उसकी शिक्षा का स्वरूप निश्चित करते समय, उन्हें निम्नांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिए –

1. भाषा के ज्ञान पर बल – स्ट्रैंग के अनुसार- “इस अवस्था में बालकों की भाषा में बहुत रुचि होती है।” अतः इस बात पर बल दिया जाना आवश्यक है कि बालक, भाषा का अधिक-से-अधिक ज्ञान प्राप्त करें ।

2. उपयुक्त विषयों का चुनाव-बालक के लिए कुछ ऐसे विषयों का अध्ययन आवश्यक है, जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें और उसके लिए लाभप्रद भी हों। इस विचार से निम्नलिखित विषयों का चुनाव दिया जाना चाहिए- भाषा, अंकगणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, ड्राइंग, चित्रकला, सुलेख, पत्र-लेखन और निबन्ध रचना।

3. रोचक विषय-सामग्री-बालकों की रुचियों में विभिन्नता और परिवर्तनशीलता होती है। अतः उसकी पुस्तकों की विषय-सामग्री में रोचकता और विभिन्नता होनी चाहिए। इस दृष्टिकोण से विषय-सामग्री का सम्बन्ध अग्रलिखित से होना चाहिए-पशु, हास्य, विनोद, नाटक, वार्तालाप, वीर पुरुष, साहसी कार्य और आश्चर्यजनक बातें।

इसे भी पढ़े…

4. पाठ्य-विषय व शिक्षण विधि में परिवर्तन – इस अवस्था में बालक की रुचियों के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। अतः पाठ्य-विषय और शिक्षण विधि में उसकी रुचियों के अनुसार परिवर्तन किया जाना आवश्यक है। ऐसा न करने से उसमें शिक्षण के प्रति कोई आकर्षण नहीं रह जाता है। फलस्वरूप, उसकी मानसिक प्रगति रुक जाती हैं।

5. जिज्ञासा की सन्तुष्टि – बालक में जिज्ञासा की प्रवृत्ति होती है। अतः उसे दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए, जिससे उसकी इस प्रवृत्ति की तुष्टि हो ।

6. सामूहिक प्रवृत्ति की तुष्टि- बालक में समूह में रहने की प्रबल प्रवृत्ति होती है। वह अन्य बालकों से मिलना-जुलना और उनके साथ कार्य करना या खेलना चाहता है। उसे इन सब बातों का अवसर देने के लिए विद्यालय में सामूहिक कार्यों और सामूहिक खेलों का उचित आयोजन किया जाना चाहिए। कोलेसनिक के अनुसार — “सामूहिक खेल और शारीरिक व्यायाम प्राथमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम के अभिन्न अंग होने चाहिए।”

7. रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था- बालक की रचनात्मक कार्यों में विशेष रुचि होती है। अतः विद्यालय में विभिन्न प्रकार के रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था की जानी चाहिए।

8. पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था – बालक की विभिन्न मानसिक रुचियों को सन्तुष्ट करके उसकी सुप्त शक्तियों का अधिकतम विकास किया जा सकता है। इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए विद्यालय में अधिक से अधिक पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का संचालन किया जाना चाहिए।

9. पर्यटन व स्काउटिंग की व्यवस्था- लगभग 9 वर्ष की आयु में बालक में निरुद्देश्य इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति होती है। उसकी इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए पर्यटन और स्काउटिंग को उसकी शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए।

10. संचय-प्रवृत्ति को प्रोत्साहन – बालक में संचय करने की प्रवृत्ति होती है। उसे जो भी अच्छी लगती है, उसी का वह संचय कर लेता है। उसके माता-पिता और शिक्षक का कर्त्तव्य है कि उसे शिक्षाप्रद वस्तुओं का संचय करने के लिए प्रोत्साहित करें।

11. संवेगों के प्रदर्शन का अवसर- कोल एवं ब्रूस ने बाल्यावस्था को “संवेगात्मक विकास का अनोखा काल” माना है। यह विकास तभी सम्भव है, जब बालक के संवेगों का दमन न किया जाय, क्योंकि ऐसा करने से उसमें भावना ग्रन्थियों का निर्माण हो जाता है। अतः स्ट्रेंग का परामर्श है—“बालकों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त अपने संवेगों का दमन करने के बजाय तृप्त करने में सहायता दी जानी चाहिए, क्योंकि संवेगात्मक भावना और प्रदर्शन उनके सम्पूर्ण जीवन का आधार होता है।”

12. सामाजिक गुणों का विकास- किर्कपैट्रिक ने बाल्यावस्था को “प्रतिद्वन्द्वात्मक समाजीकरण” का काल माना है। अतः विद्यालय में ऐसी क्रियाओं का अनिवार्य रूप से संगठन किया जाना चाहिए जिनमें भाग लेकर बालक में अनुशासन, आत्म-नियन्त्रण, सहानुभूति, प्रतिस्पर्धा, सहयोग आदि सामाजिक गुणों का अधिकतम विकास हो।

13. नैतिक शिक्षा – पियाजे ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि लगभग 8 वर्ष का बालक अपने नैतिक मूल्यों का निर्माण और समाज के नैतिक नियमों में विश्वास करने लगता है। उसे इन मूल्यों का उचित निर्माण और इन नियमों में दृढ़ विश्वास रखने के लिए नियमित रूप से नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए। कोलेसनिक का मत है— “बालक को आनन्द प्रदान करने वाली सरल कहानियों द्वारा नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए।”

14. किया व खेल द्वारा शिक्षा-सभी शिक्षा शास्त्री बालक की स्वाभाविक क्रियाशीलता और खेल-प्रवृत्ति में विश्वास करते हैं। अतः उसकी शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए, जिससे वह स्वयं-क्रिया और खेल द्वारा ज्ञान का अर्जन करे।

15. प्रेम व सहानुभूति पर आधारित शिक्षा- बालक कठोर अनुशासन पसन्द नहीं करता है। वह शारीरिक दण्ड, बल प्रयोग और डाँट-डपट से घृणा करता है। वह उपदेश नहीं सुनना चाहता है। वह धमकियों की चिन्ता नहीं करता है। अतः उसकी शिक्षा इनमें से किसी पर आधारित न होकर प्रेम और सहानुभूति पर आधारित होना चाहिए।

Important Links

Disclaimer

Disclaimer:Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment