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सेमिनार का अर्थ एवं परिभाषा | सेमिनार के उद्देश्य | सेमिनार सम्बन्ध की विभिन्न भूमिकाएँ

सेमिनार का अर्थ एवं परिभाषा | सेमिनार के उद्देश्य | सेमिनार सम्बन्ध की विभिन्न भूमिकाएँ
सेमिनार का अर्थ एवं परिभाषा | सेमिनार के उद्देश्य | सेमिनार सम्बन्ध की विभिन्न भूमिकाएँ

पर्यावरणीय शिक्षा में सेमिनार से आप क्या समझते हैं? सेमिनार सम्बन्धी विभिन्न भूमिकाएँ स्पष्ट कीजिए।

सेमिनार का अर्थ एवं परिभाषा

सेमिनार का अर्थ एवं परिभाषा- सेमिनार उच्च अध्यापन की एक अनुदेशनात्मक प्रविधि है जिसके अन्तर्गत किसी विषय पर एक पत्र प्रस्तुत किया जाता है जिस पर बाद में सामूहिक विचार-विमर्श किया जाता है ताकि विषय के जटिल पहलुओं को स्पष्ट किया जा सके। सेमिनार समूह के लिये एक स्थिति उत्पन्न करता है जहाँ पर लोगों में आपस में उस विषय पर निर्देशित वार्तालाप चलता है। यह पत्र एक या कई लोगों द्वारा अलग-अलग प्रस्तुत किया जा सकता है। पत्र प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति को विषय का गहन ज्ञान होना आवश्यक है ताकि सम्बन्धित सामग्री का चयन ठीक से किया जा सके। यह संग्रहित सामग्री ही पत्र रूप में प्रस्तुत की जाती है जो सेमिनार में भाग लेने वाले प्रतिभागियों में पत्र प्रस्तुत करने से पूर्व ही वितरित की जाती है। इसके माध्यम से विषय की संरचना प्रस्तुत की जाती है ताकि संप्रेषण प्रक्रिया ढंग से सम्पन्न हो सके।

सेमिनार के उद्देश्य

मुख्य रूप से सेमिनार के दो उद्देश्य हैं-

(1) ज्ञानात्मक उद्देश्य – इसके अन्तर्गत निम्नलिखित उद्देश्य आते हैं—

  1. उच्च ज्ञानात्मक योग्यताओं का विकास करना, जैसे—विश्लेषण, संश्लेषण एवं मूल्यांकन आदि।
  2. प्रतिक्रिया व्यक्त करने की योग्यता का विकास करना। इसके अन्तर्गत परिस्थिति का ठीक से आकलन कर उसका Valuing, organizing and characterization करना आदि आता है।
  3. सूक्ष्म निरीक्षण करने की योग्यता का विकास करना तथा अपनी भावनाओं को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करना ।
  4. स्पष्टीकरण प्राप्त करने की योग्यता का विकास करना तथा दूसरों के विचारों का प्रभावी तरीके से पक्ष लेना।
  5. विषय का गम्भीरता से अध्ययन कर विचार-विमर्श प्रक्रिया में भाग लेने की योग्यता विकसित करना।

(2) भावात्मक उद्देश्य- इसके अन्तर्गत निम्नलिखित उद्देश्य आते हैं-

  1. दूसरों के विरोधी विचारों को सहन करने की शक्ति विकसित करना।
  2. दूसरे साथियों के साथ मिल-जुलकर कार्य करने की भावना विकसित करना तथा उनके विचारों एवं भावनाओं का सम्मान करना।
  3. सेमिनार के प्रतिभागियों में आपस में भावनात्मक स्थायित्व विकसित करना।
  4. प्रश्नों के पूछने एवं उनके उत्तर देने में अपने व्यक्तित्व की प्रभावी छाप छोड़ने की योग्यता विकसित करना।
  5. प्रतिभागियों में परस्पर अच्छे गुणों एवं कौशलों का विकास करना।
  6. प्रतिभागियों में परस्पर स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना विकसित करना।
  7. सेमिनार को सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में सम्पन्न करना तथा उपलब्धियों का ठीक से आकलन करना।

सेमिनार सम्बन्ध की विभिन्न भूमिकाएँ

सेमिनार के सफल आयोजन के लिए भिन्न व्यक्तियों को भिन्न भूमिकाएँ दी जाती हैं, जो निम्नलिखित हैं।

1. संगठन कर्ता- संगठनकर्ता सेमिनार के सम्पूर्ण कार्यक्रम की योजना तैयार करता है। वह सेमिनार के लिये उपयुक्त विषय का चयन करता है तथा इसके विभिन्न पहलुओं को विभिन्न वक्ताओं में आवंटित करता है। सेमिनार के बारे में दिनांक, समय तथा स्थान का चयन भी वह स्वयं ही करता है। यही सेमिनार के संरक्षक के नाम का सुझाव देता है। इस प्रकार से वह पूरे सेमिनार का विस्तृत ब्यौरा तैयार करता है।

2. अध्यक्ष- प्रतिभागी अध्यक्ष के रूप में किसी वक्ता का नाम सुझाते हैं जो सेमिनार के विषय से पूरी तरह अवगत हो। अध्यक्ष को अपने पद के कर्त्तव्य, अधिकारों एवं गरिमा का आभास होना चाहिये क्योंकि सेमिनार की समस्त गतिवधियाँ उसी के द्वारा संचालित की जाती हैं। उसे सेमिनार को सफल बनाने के सम्पूर्ण प्रयास करने होते हैं और इसी आशय से यह प्रतिभागियों को विचार-विमर्श में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करता रहता है। कुछ परिस्थितियों में उसे स्वयं को भी इस विचार-विमर्श में भाग लेना होता है। यह प्रत्येक प्रतिभागी को समुचित अवसर प्रदान करता है। अन्त में वह सम्पूर्ण विचार-विमर्श को संक्षेप में तथा अपने शब्दों में प्रस्तुत करता है। साथ ही, वह सभी प्रतियोगियों, वक्ताओं मेहमानों, निरीक्षकों आदि का धन्यवाद भी ज्ञापित करता है।

3. वक्ता- संगठनकर्ता सेमिनार में भाग लेने वाले वक्ताओं को विषयों का आवंटन करते हैं जिसका वे गहन अध्ययन कर अपना पत्र तैयार करते हैं। सेमिनार प्रारम्भ होने से पूर्व सभी प्रतियोगियों में इन पत्रों की छायाप्रति वितरित कर दी जाती है ताकि वे सभी स्वयं को पत्र प्रस्तुतीकरण के बाद विचार-विमर्श में भाग लेने के लिए तैयार रखें। यह प्रक्रिया विचार-विमर्श को एक लम्बे समय तक चलाने में सहायक होती है। इस सन्दर्भ में वक्ताओं को अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए तथा स्वयं के बचाव के लिये तैयार रहना चाहिये। साथ ही, साथ उन्हें अपनी आलोचनाओं के लिए भी तैयार रहना चाहिये। तथा सहनशीलता का परिचय देना चाहिये।

4. प्रतिभागी– एक सेमिनार में लगभग 25-40 प्रतिभागी होते हैं। प्रतिभागियों को सेमिनार के विषय से पूरी तरह से अवगत होना चाहिये। उन्हें अन्य वक्ताओं के प्रस्तुतीकरण की प्रशंसा करना चाहिये तथा उसका वस्तुनिष्ठ तरीके से मूल्यांकन करना चाहिये। प्रतिभागियों में यह योग्यता होनी चाहिये कि वे लोगों द्वारा पूछे गये प्रश्नों का सटीक उत्तर दे सकें व उनकी जिज्ञासाओं को शान्त कर सकें। उन्हें अपने अनुभवों के आधार पर विषय के सम्बन्ध में अपने मूल विचार प्रस्तुत करने चाहिये। स्पष्टीकरण देते समय उन्हें अध्यक्ष को भी सम्बोधित करना चाहिये। प्रतिभागियों को वक्ताओं से प्रत्यक्ष (सीधे) प्रश्न नहीं पूछने चाहिये।

5. निरीक्षक- सेमिनार में कुछ विशिष्ट अतिथियों एवं निरीक्षकों को भी सेमिनार की गतिविधियाँ देखने के लिए आमन्त्रित किया जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ छात्र, शोधार्थी व सामान्य जनों को भी सेमिनार में अध्यक्ष की अनुमति से भाग लेने की अनुमति प्रदान कर दी जाती है। लेकिन ये अधिकतर मूक-दर्शक एवं श्रोताओं की ही श्रेणी में आते हैं। कभी-कभी शोधार्थी या कुछ मेधावी छात्र सेमिनार के कार्यक्रमों में भाग लेने की इच्छा प्रकट करते हैं। ऐसे छात्रों या शोधार्थियों को सक्रिय रूप से सेमिनार में भाग लेने की अनुमति अध्यक्षों की इच्छा पर ही निर्भर करती है।

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