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शिक्षण पद्धति का आशय | पर्यावरण अध्ययन सम्बन्धी शिक्षण पद्धति की उपयोगिता | पर्यावरण शिक्षा की शिक्षण विधियाँ

शिक्षण पद्धति का आशय | पर्यावरण अध्ययन सम्बन्धी शिक्षण पद्धति की उपयोगिता | पर्यावरण शिक्षा की शिक्षण विधियाँ
शिक्षण पद्धति का आशय | पर्यावरण अध्ययन सम्बन्धी शिक्षण पद्धति की उपयोगिता | पर्यावरण शिक्षा की शिक्षण विधियाँ

शिक्षण पद्धति का क्या आशय है? पर्यावरण शिक्षण की विभिन्न पद्धतियाँ कौन-कौन सी हैं? स्पष्ट कीजिए। 

शिक्षण पद्धति का आशय

प्रत्येक शिक्षक किसी इकाई, उप-इकाई या पाठ-प्रसंग के शिक्षण में अपने विषय के शिक्षण की किसी सैद्धान्तिक विधि या पद्धति को अपनाता है, परन्तु वह अपने शिक्षण को अधिक से अधिक प्रभावशाली तथा उपयोगी एवं फलदायी बनाने की दृष्टि से किसी सैद्धान्तिक विधि को अपनाते हुए उसके अन्तर्गत वह कुछ विशिष्ट क्रियायें करता रहता है। इस प्रकार किसी विषय के शिक्षण के समय अपनायी जाने वाली क्रियाओं को शिक्षा की शब्दावली में अध्यापन विद्या या शिक्षण पद्धति कहा जाता है।

पर्यावरण अध्ययन सम्बन्धी शिक्षण पद्धति की उपयोगिता

पर्यावरण सम्बन्धी शिक्षण पद्धतियों की उपयोगिता को निम्नलिखित बिन्दुओं के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) रोचक बनाने में सहायक— यह आवश्यक है कि प्रत्येक शिक्षण विधि रुचिकार होनी चाहिये। इसके लिये कहानी विधि को अत्यधिक रुचिकर माना जा सकता है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मात्र किसी वस्तु को कहानी के रूप में प्रस्तुत कर देने से ही उसमें रोचकता आ जाती है। अतः कहानी को अत्यधिक रोचक एवं प्रभावशाली बनाने में कुछ विशेष प्रकार की क्रियायें सहायक होती हैं, जिनके अन्तर्गत कहानी विधि को अपनाया जाता है। इस प्रकार किसी शिक्षण पद्धति को रोचक बनाने में अध्ययन सम्बन्धी क्रियायें सहायक एवं उपयोगी हैं।

(2) सहायक प्रणाली के प्रयोग में सहायक पाठ्य-वस्तु को रोचक बनाने के लिए सहायक सामग्री का प्रयोग किया जाता है, लेकिन सहायक सामग्री का उचित समय पर प्रयोग करना एक विधा है, जिसको किसी भी अध्यापन विधियों में प्रयुक्त किया जा सकता है।

(3) छात्र की सक्रियता में सहायक प्रमुख आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि अध्ययन तथा अध्यापन में छात्र की सक्रियता महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अधिगम की प्रक्रिया में छात्र जितना अधिक सक्रिय एवं जागरूक होगा उतना ही वह शीघ्र तथा स्थायी अनुभव प्राप्त करेगा।

(4) निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक- मुख्य रूप से शिक्षण का लक्ष्य उद्देश्यों की प्राप्ति करना, क्योंकि कोई भी शिक्षण विधि उस समय तक सफल नहीं मानी जा सकती है, जब तक कि उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो जाती है। उद्देश्यों की पूर्ति की दृष्टि से प्रत्येक शिक्षण विधि उसके अन्तर्गत प्रयोग की जाने वाली विधाओं पर आधारित रहती है।

(5) ज्ञानेन्द्रियों के प्रयोग में सहायक- सदैव ऐसा देखा जाता है कि व्यक्ति सुनकर, छूकर, देखकर या किसी क्रिया के द्वारा अनुभव प्राप्त करता है। इसके साथ ही ऐसा भी पाया जाता है कि कोई व्यक्ति किसी बात को सुनकर अच्छी प्रकार से समझ लेता है। इस प्रकार इसके अधिगम की गति तेज होती है तथा उसका इस तरह होने वाला अर्जित ज्ञान स्थायी होता है।

पर्यावरणीय शिक्षा की शिक्षण पद्धति की आवश्यकता– पर्यावरण शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति औपचारिक तथा अनौपचारिक रूप में शिक्षण विधियों के माध्यम से की जा सकती है। इसमें सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों ही पक्ष होते हैं। इसीलिये शिक्षण विधियों का क्षेत्र अधिक व्यापक एवं विस्तृत है। इसके उद्देश्यों में भी निरन्तरता होती है। इसलिये शिक्षण पद्धतियाँ प्राथमिक स्तर से उच्च शिक्षा के स्तर तक प्रयुक्त की जाती हैं। पर्यावरण शिक्षा में शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है।

पर्यावरण शिक्षा की शिक्षण विधियाँ

पर्यावरण शिक्षा की प्रमुख शिक्षण विधियाँ निम्नलिखित हैं-

1. पर्यटन या भ्रमण विधि- पर्यावरणीय अध्ययन में भ्रमण विधि का अपने आप में एक विशेष महत्त्व है, क्योंकि छात्र विद्यालय की कक्षा में केवल पुस्तकीय ज्ञान ही प्राप्त करते हैं तथा वे बाह्य संसार की यथार्थता के ज्ञान से वंचित या अनभिज्ञ रह जाते हैं। इस दोष को दूर करने के लिए ही आज भ्रमण को एक विशेष विधि के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। इस विधि के द्वारा छात्र प्रत्यक्ष रूप से स्थानीय वातावरण की प्रत्येक बात का सूक्ष्म रूप में अध्ययन कर सकता है।

भ्रमण विधि का सबसे अधिक लाभ छोटे बच्चों को होता है। वे कक्षा से बाहर जाकर विभिन्न भौगोलिक तथ्यों तथा प्राकृतिक स्थानों को देखते हैं, तो उनमें विशेष उत्साह का संचार होता है। अतः शिक्षक का यह कर्तव्य है कि वह छात्रों को आसपास के पर्वत, नदी, बगीचे, खेत तथा कारखानों आदि का निरीक्षण कराने के लिए भ्रमण का आयोजन करे।

2. वार्तालाप या विचार-विमर्श विधि- यह विधि प्राथमिक कक्षाओं के लिए उपयुक्त रहती है, इसके अन्तर्गत शिक्षण एवं छात्र के बीच सम्प्रेषण संभव होता है जो कि शिक्षण विधि का आधार होता है, क्योंकि सम्प्रेषण द्वारा ही शिक्षक-छात्र के ज्ञान-अर्जन में सहायक हो सकता है। यह विधि बड़ी कक्षाओं के लिये वार्तालाप के रूप में विकसित की जा सकती है।

वार्तालाप विधि के पद – वार्तालाप विधि के पद निम्नलिखित हैं-

  1. शिक्षक द्वारा उपयुक्त विषय वस्तु का चयन करना।
  2. वार्तालाप के लिये चयनित बिन्दु का उपयुक्त विधि के द्वारा प्रस्तुतीकरण करना।
  3. वार्तालाप का स्वरूप एवं उसका निर्धारण करना।
  4. वार्तालाप का सामाजिक वातावरण में सफल संचालन करना।
  5. छात्रों को आवश्यक स्रोतों एवं सन्दर्भ स्थानों से आँकड़े प्रस्तुत करने, सूचनायें एकत्रित करने सम्बन्धी कार्य करना।
  6. निष्कर्ष एवं मूल्यांकन करना।
  7. पुनरावलोकन – सार संक्षेप की पुनरावृत्ति करना।
  8. गृह कार्य देना।

(3) समस्या समाधान विधि- इस विधि के अन्तर्गत शिक्षक छात्रों के सामने समस्याओं को प्रस्तुत करता है तथा छात्र सीखे हुए नियमों, सिद्धान्तों तथा प्रत्ययों की सहायता से कक्षा में समस्या का हल खोजते हैं। समस्याओं में विभिन्न तथ्य तथा परिस्थितियाँ होती हैं तथा इसका संकलन इनकी कठिनाई के स्तर को ध्यान में रखकर किया जाता है। प्रत्येक समस्याओं में नयापन होता है, जिसके कारण छात्र को समस्या का समाधान खोजने में लगातार प्रेरणा मिलती रहती है। इस विधि की सफलता समस्याओं में नवीनता एवं उन्हें निर्माण करने की क्षमता पर निर्भर करती है।

समस्या समाधान विधि के पद-समस्या समाधान विधि के पद निम्नलिखित हैं—

  1. समस्या में दिये गये तथ्यों तथा उनके सम्बन्धों को समझना।
  2. समस्या का विश्लेषण करना।
  3. सम्भावित हल खोजना।
  4. समस्या को प्राप्त करने के लिए सही गणना करना।
  5. समस्या का हल ज्ञात करना एवं पुनः जाँच करना।

(4) प्रायोजना विधि- योजना विधि के मुख्य प्रणेता प्रयोजनवादी शिक्षाशास्त्री जान्ड्यूवी हैं। श्रीमान् ड्यूवी ने बालक के शिक्षण में प्रयोगात्मक विधि पर जोर दिया तथा इस विचार की पुष्टि किलपैट्रिक ने की। इसलिये किलपैट्रिक ही इसके जन्मदाता माने गये हैं।

किलपैट्रिक के अनुसार, “प्रायोजना वह सहृदय उद्देश्यपूर्ण कार्य है, जिसे लगन के साथ सामाजिक वातावरण में किये जाये।”

योजना पद्धति पर्यावरण शिक्षण की एक उपयोगी पद्धति है। इससे बालक अपने अनुभव के आधार पर सीखते हैं। वे सक्रिय होकर कार्य करते एवं सीखते हैं। क्योंकि इस विधि में उन्हें स्वतन्त्र रूप से सोचने-विचारने का अवसर प्राप्त होता है तथा मानसिक एवं शारीरिक विकास होता है। प्रायोजना दो प्रकार की होती है—(1) व्यक्तिगत (2) सामाजिक इस प्रकार कक्षा में हम सामाजिक प्रायोजनाओं पर ही जोर देते हैं।

प्रयोजना विधि के पद- प्रयोजना विधि के पद निम्नलिखित हैं-

  1. परिस्थिति का निर्माण करना।
  2. योजना का चुनाव करना
  3. कार्यक्रम बनाना एवं उसे समुचित रूप से क्रियान्वित करना।
  4. कार्य का मूल्यांकन करना।
  5. योजना का रिकॉर्ड रखना।

(5) क्रियात्मक विधि- इस विधि के अन्तर्गत छात्र स्वयं करके निष्कर्ष निकालता है अर्थात् वह स्वयं प्रयोग करता है, निरीक्षण करता है और पुनः परिणाम निकालता है। इसमें छात्र सक्रिय रहता है। स्कूल के अन्दर परिवार, समाज या किसी भी सामुदायिक जगह पर छात्र अपने प्रयोग को संगठित एवं व्यवस्थित कर सकते हैं।

क्रियात्मक विधि के पद– क्रियात्मक विधि के पद निम्नलिखित हैं-

  1. क्रियात्मक कार्य छात्रों के मानसिक स्तर के अनुरूप लें।
  2. क्रियात्मक कार्य या प्रयोग से सम्बन्धित आवश्यक बातों की पूर्ण जानकारी प्रयोग विधि से पहले ही बता दी जानी चाहिये।
  3. छात्र को स्वयं ही कार्य करना चाहिये, जैसे निरीक्षण कर रेखाचित्र एवं आँकड़े परीक्षण कर तालिका तैयार करना तथा रिकार्ड लेना।
  4. परिस्थिति एवं आवश्यकताओं से समायोजन करना चाहिये तथा निर्धारित प्रारूप, उद्देश्य, विधि, अवलोकन, निष्कर्ष, प्रयोग सम्बन्धी चित्र इत्यादि नामांकित होने चाहिये।
  5. इस विधि के माध्यम से चार्ट ग्राफ आदि भी पूर्ण होंगे तो इसका पूर्णरूप से सदुपयोग होता रहेगा।

6. खेल विधि- खेल विधि का प्रतिपादन करने का श्रेय जर्मनी के प्रसिद्ध शिक्षाविद् श्रीमान फ्राबेल को जाता है। उन्होंने बालकों की सही स्थिति का विश्लेषण कर विश्वास प्रकट किया कि प्रकृति की अनुपम देन बालक के विकास में अधिक सावधानी रखनी चाहिये। यही कारण है कि उन्होंने बालक को पौधे की तथा शिक्षक को माली की संज्ञा दी है तथा उन्होंने यह कहा है कि शिक्षक का कार्य अपने आप विकास में उचित वातावरण का सृजन करना है। इसके अतिरिक्त शिक्षा की क्रिया में सुविधा होनी चाहिये, जिससे बालक अपनी स्वाभाविक क्रिया का उपयोग करके नयी-नयी बातें सीख सकें।

खेल एक स्वयं प्रेरित क्रिया है जिसमें आनन्द प्राप्त होता है तथा जिसमें इस क्रिया के परिणाम के सम्बन्ध में कोई विचार नहीं किया जाता है, क्योंकि यह पूर्ण रूप से ऐच्छिक रहती है एवं इस क्रिया में किसी भी प्रकार का बाह्य दबाव नहीं रहता है।

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