जैव विविधता के संरक्षण पर एक लेख लिखिए।
जैवविविधता का संरक्षण
प्राथमिक सम्पदा के रूप में पृथ्वी पर पाये जाने वाले पादप एवं जन्तु-जगत की सन्तुलित संख्या अनुरक्षित करना पृथ्वी पर भावी सन्तुलन के लिए आवश्यक है क्योंकि इस पादप एवं जन्तु जगत की विविधता में मानव का अस्तित्व निर्भर है। मानव एवं वन्य जीवों का सम्बन्ध प्राचीन रहा है, जब मानव पूर्णतया प्राकृतिक आवासों पर निर्भर था। मानव प्राचीन काल में जिन जीवों से भयग्रस्त रहता था। आज उसने उन पर विजय प्राप्त कर ली है लेकिन यह विजय मानव एवं वन्य जीवों के मध्य एक द्वन्द्व का रूप ले चुकी है जब मानव ने तीव्रता से इनके प्राकृतिक आवासों को नष्ट कर दिया तथा इनकी संख्या में तीव्रता से कमी कर दी जिसके कारण आज जैव विविधता के संरक्षण की आवश्यकता महसूस की गई है।
विश्व में प्रकृति के संरक्षण का आरम्भ सर्वप्रथम ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने किया था। प्रकृति के महत्त्व को स्वीकारते हुए वन्य जीव-जन्तुओं के शिकार पर लगाये गये अंकुश और सम्बन्धित आरक्षण के नियम आज भी उनके शिलालेखों के रूप में सुरक्षित हैं। इसके उपरान्त बाबर (बाबरनामा) तथा जहाँगीर जैसे सम्राटों के आलेखों में भी प्रकृति संरक्षणवाद का उल्लेख मिलता है। अतः वन्य जीवन एवं वन्य जीवों के प्रति प्रेम तथा आदर भावना भारतीय संस्कृति का अंग रहा है तथापि यहाँ वन्य प्राणियों का तीव्रता से ह्रास हो रहा है, जिसे मद्देनजर रखते हुए संरक्षण आवश्यक है।
जैव विविधता के संरक्षण के कारण
पर्यावरण एवं मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के दृष्टिकोण से जैव विविधता का संरक्षण निम्न कारणों से आवश्यक है-
(1) परस्पर निर्भरता के कारण- प्रकृति में कई प्रकार के पारिस्थितिक तन्त्र तथा प्रत्येक प्रकार के पारिस्थितिक तन्त्र में सैकड़ों पादप एवं जन्तु प्रजातियाँ पाई जाती हैं। प्रत्येक पारिस्थितिक तन्त्र में उपस्थित सभी जीवधारी ऊर्जा प्राप्ति के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। एक कारक का अस्तित्व तभी सम्भव होता है जबकि दूसरा कारक भी सुचारू रूप से कार्य करे। पर्यावरण में उपस्थित सभी जीवधारी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे पर निर्भर हैं। अतः जैव विविधता का संरक्षण अति आवश्यकता है।
(2) आर्थिक कारण– मनुष्य अपनी सभी प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रकृति में उपस्थित जीवों पर निर्भर है। मनुष्य प्रकृति में उपस्थिति पेड़-पौधों एवं जन्तुओं के उत्पादों का उपयोग करते हैं। ईंधन के लिए लकड़ी, शिकार के लिए जानवर, भोजन प्राप्ति हेतु पादप आदि की सतत् उपलब्धता तभी सम्भव होगी जबकि प्रकृति के इन जीवों एवं पौधों की जैव विविधता का संरक्षण किया जाये। इस प्रकार जैव विविधता का उपभोग्य महत्त्व है। जैव विविधता का अनउपभोग्य महत्त्व भी होता है, जैसे-वैज्ञानिक अनुसन्धान, पक्षी निरीक्षण और वन्य जीवन पर्यन्त ऐसी क्रियाएँ हैं, जिनका उपयोग लाखों लोग करते हैं और जिसके कारण हजारों को रोजगार मिलता है।
(3) पारिस्थितिक कारण- जैव विविधता पारिस्थितिक दृढ़ता का एक प्रमुख भाग है और पारिस्थितिकी दृढ़ता इसलिए आवश्यक है कि इस पर हमारा आर्थिक और जैविक जीवन निर्भर है। इसका मूल्य किसी मानक आर्थिक भाषा में नहीं आँका जा सकता है। जैव विविधता के अभाव में पारिस्थितिक दृढ़ता के लिए बड़ा खतरा उत्पन्न हो सकता है जो निश्चित ही हमारे लिए भी होगा।
(4) जीव विज्ञानीय कारक- जैव वैज्ञानिक की दृष्टि से यदि देखा जाये तो पादपों, जन्तुओं, कृष्य पौधों तथा पालतू जन्तुओं व उनके जंगली सम्बन्धियों का संरक्षण न करना हमारा बहुत बड़ा अनुत्तरदायित्व होगा। बहुत से पादप वास्तव में बहुत मूल्यवान हैं क्योंकि वे औषधियों, पेस्टिसाइड्स, भोजन, तेल, औद्योगिक उत्पादों और जीन्स का स्रोत है। जब हम जैव विविधता को संरक्षित करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि हम भविष्य में जीने के लिए वैकल्पिकता को बनाये रखते हैं।
जैव विविधता संरक्षण के उपाय
जैव विविधता के महत्त्वों को देखते हुए इसका संरक्षण अति आवश्यक है। जैव-विविधता के संरक्षण हेतु निम्नलिखित तीन स्तरों पर प्रयास किये जा रहे हैं—
(1) आनुवंशिक विविधता का संरक्षण- आनुवांशिक विविधता के संरक्षण से उस जाति संरक्षण सम्भव होता है।
(2) जाति-विविधता का संरक्षण।
(3) पारिस्थितिक तन्त्र की विविधता का संरक्षण
जैव-विविधता का संरक्षण निम्नलिखित दो विधियों के द्वारा किया जा सकता है-
- इन सिटू संरक्षण
- एक्स सिटू संरक्षण
दोनों प्रकार के संरक्षण एक-दूसरे के पूरक होते हैं-
(1) इन सिटू संरक्षण- इसके अन्तर्गत जैव-विविधता का संरक्षण उनके मूल आवासों में ही किया जाता है। हमारे देश के जैव-विविधता के संरक्षण हेतु भारत सरकार ने सन् 1952 में इण्डियन बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ की स्थापना की है जो कि वन्य-जीव एवं जैव-विविधता के संरक्षण हेतु निम्नलिखित उपाय अपनाती हैं-
(i) राष्ट्रीय उद्यानों की सहायता से। (ii) अभयारण्यों की सहायता से। (iii) प्राणी उद्यानों की सहायता से।
जून, 1992 तक हमारे देश में लगभग 73 राष्ट्रीय उद्यान तथा 41 अभयारण्य या शरण स्थल स्थापित थे। भारत सरकार ने जीव-जन्तुओं को उनके स्वयं के पारिस्थितिकी तन्त्र में प्रतिबन्धित विकास हेतु 7 बायोस्फियर रिजर्व की स्थापना की है।
पिछले कुछ वर्षों में भृंगुर पारिस्थितिक तन्त्रों जैसे-वैटलेण्ड्स, मैंग्रूव और कोरल रीफ की सुरक्षा के कई कार्यक्रम प्रारम्भ किये गये हैं। वैटलैण्ड, मैंग्रूव और कोरलरीफ पर एक राष्ट्रीय समिति बनाई गई है जिसने 16 वैटलेण्ड, 15 मैंग्रूव क्षेत्र और 4 कोरल रीफ क्षेत्रों की पहचान भी है।
(2) एक्स-सिटू संरक्षण- यह जैव विविधता के संरक्षण की वह विधि है जिसमें जीव जन्तुओं एवं पेड़-पौधों एवं उनकी विविधता का संरक्षण उनके मूल आवास से दूर ले जाकर विभिन्न प्रकार की संस्थाओं, स्थलों एवं प्रयोगशालाओं में किया जाता है।
सामान्यतः एक्स-सिटू संरक्षण निम्न प्रकार के प्राकृतिक आवासों के द्वारा किया जाता है (i) वानस्पतिक उद्यानों की स्थापना द्वारा, (iii) कृषि अनुसन्धान संस्थानों द्वारा, (iii) वानिकी अनुसन्धान संस्थाओं के द्वारा, (iv) अजायबघरों की स्थापना द्वारा।
एक्स-सिटू संरक्षण के लिए प्रयोगशाला में निम्न तरीकों का उपयोग किया जाता है-
(i) बीज बैंक, (ii) जीन बैंक, (iii) इनविट्रो संग्रहण विधि।
(i) बीज बैंक- फील्ड जीन बैंक्स के साथ कुछ समस्याएँ भी होती हैं इनको प्राकृतिक विपदाओं से सुरक्षित रखना बहुत कठिन होता है। ये रोग के प्रति संवेदी होते हैं और संस्थान की कार्यशैली में कमजोरी के कारण कभी-कभी असावधानी का शिकार भी बनते हैं। किन्तु फिर भी कई जातियों और कई परिस्थितियों में केवल जीन बैंक्स ही महत्त्वपूर्ण जर्मप्लाज्म के संरक्षण के लिए एकमात्र विकल्प हैं।
लैंगिक रूप से प्रजनन करने वाले ऐसे पौधों जिनके बीजों को दीर्घावधि तक संग्रहित करके रखा जा सकता है के, एक्स-सिटू संरक्षण के लिए सीड बैंक्स सबसे अधिक प्रभावी और कार्यक्षम विधि है। एक सीड बैंक को लगातार बिजली की आवश्यकता होती है। सीड बैंक में बीजों की सावधानीपूर्वक देखभाल, उनकी जीवन क्षमता का परीक्षण समय-समय पर होनी चाहिए क्योंकि यदि बीज की जीवन क्षमता, पहले निर्धारित की गई क्षमता से कम हो जाती है तो नये बीजों को एकत्र नहीं किया जा सकता।
कई उष्ण कटिबन्धीय जातियाँ ऐसी होती हैं जिनके बीजों में प्राकृतिक सुप्तावस्था नहीं पाई जाती है और वे बहुत ही कम समय तक जीवन-सक्षम रह पाते हैं। यदि उन्हें जल्दी ही अंकुरित न होने दिया जाये तो वे मर जाते हैं। ऐसे बीजों को दुःशास्य बीज कहा जाता है। ऐसी जातियाँ जिनमें दुःशास्य बीज पाये जाते हैं और वे जो साधारणः बीज उत्पादित नहीं करतीं, का फील्ड जीन बैंक में पौधों को उगाकर या जीवित संग्रहक की तरह से एक्ससिटू संरक्षण किया जाता है।
भारत में फसली पौधों के आनुवंशिक संसाधनों का संग्रहण का परिरक्षण, नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लान्ट जैनेटिक रिसोर्स, दिल्ली द्वारा किया जाता है।
(ii) जीन बैंक– वानस्पतिक उद्यानों में बहुधा ऐसे पौधे हैं जिन्हें प्रभावी जीन बैंक माना जा सकता है। इनमें एक ही जाति के कई पौधे बहुत अधिक संख्या में हैं जो ज्ञात वाइल्ड विविधता के बड़े अनुपात का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें संरक्षण के उददेश्य से सम्भाल कर रखा गया है
(iii) इन-विट्रो संग्रह- जंगली वनस्पतिजात के परिक्षण का एक और महत्त्वपूर्ण तरीका है जो विभिन्न संस्थाओं द्वारा उपयोग में लाया जाता है, यह है—इन विट्रो संग्रहण। इन विट्रो अर्थात् वास्तव में ‘ग्लास में’। जर्मप्लाज्म के संग्रहण के अन्तर्गत पौधों का संग्रहण प्रयोगशाला परिस्थितियों में किया जाता है। जर्मप्लाज्म संग्रहण के लिए, इन विट्रो पौधों को प्रविभाजी शीर्ष, कलिका या तना शीर्ष द्वारा उगाया जाता है और परीक्षण नलिका में इनको विभाजन द्वारा बढ़ाया जाता है। इन विट्रो विधियाँ किसी जाति को लम्बे समय तक बनाये रखने के लिए उपयुक्त होती हैं, विशेष रूप से उन जातियों के लिए जिनमें दुःशास्य बीज होते हैं और इन्हें सीडबैंक्स में नहीं रखा जा सकता है। भारत में कई टैक्सा विट्रो अवस्था में सम्भालकर रख गये हैं।
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