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पर्यावरण प्रदूषण ‘से उत्पन्न होने वाली समस्याएँ

पर्यावरण प्रदूषण 'से उत्पन्न होने वाली समस्याएँ
पर्यावरण प्रदूषण ‘से उत्पन्न होने वाली समस्याएँ

पर्यावरण प्रदूषण ‘से उत्पन्न होने वाली समस्याएँ 

भारत में पर्यावरण की समस्या एवं स्थिति- भारत में मनुष्य तथा प्रकृति की एकता सैकड़ों शताब्दियों से चलती आ रही थी। भारतीय जनता ने प्रकृति की अनुकम्पा को श्रद्धा से अपने वैदिक सूक्तों में व्यक्त किया है। किन्तु आधुनिक युग में प्रौद्योगिकी सभ्यता के प्रवेश के साथ इस अबाधित एकता की टूटन शुरू हो गई। प्रकृति ने जिस पर्यावरण को बहुत सुन्दर एवं स्वस्थ बनाया है, उसे गत कुछ वर्षों में बहुत निर्दयता के साथ नष्ट किया जा रहा है। भारत का सारा पर्यावरण प्रदूषित किया जा रहा है। भारतीय पर्यावरण की समस्याएँ अग्रलिखित हैं-

1. जंगलों का विनाश- पर्यावरणीय संतुलन में एकता पर पहला प्रहार जंगलों के विनाश से प्रारम्भ हुआ। जंगलों के विनाश की रफ्तार इतनी तेज थी कि अपने घने जंगलों तथा दण्डकारण्य, नैमिषारण्य आदि के लिये प्रसिद्ध भारत में जंगलों का क्षेत्रफल केवल 22.7 प्रतिशत मात्र रह गया। जबकि कुल क्षेत्रफल का 40 प्रतिशत जंगल क्षेत्र होना आवश्यक है। इन जंगलों का विनाश तीन कारणों से हुआ।

  1. कृषि भूमि के निर्माण के लिये।
  2. औद्योगिकीकरण, शहरीकरण तथा परियोजना के कारण।
  3. ईधन की पूर्ति तथा नागरिक जीवन के उपभोग हेतु ।

जंगलों के इस भयानक विनाश ने थार के मरुस्थल के बढ़ने की रफ्तार को बढ़ा दिया। जंगलों के विनाश ने मौसम चक्र को बदल दिया। कतिपय क्षेत्रों का तापमान बढ़ गया तथा अपनी नमी के लिये प्रसिद्ध ये भूमि क्षेत्र शुष्क क्षेत्र में बदल गये। जंगलों के कारण मानसून से बादल आकर्षित होकर बरसते थे। मालवा पठार का क्षेत्र जहाँ के लिये ‘पग-पग पानी, डग-डग रोटी की कहावत प्रसिद्ध थी, उसी क्षेत्र में भूगर्भ पानी स्तर ही सैकड़ों मीटर नीचे उतर गया। नदियाँ बरसाती नालों में बदल गईं। अपनी तेज गति के लिये प्रसिद्ध क्षिप्रा बरसाती नदी मात्र रह गई। मनुष्य के जीवन के लिये खाद्यान्न का आधार भूमि परत की क्षरण की रफ्तार बहुत तेज हो गई। फलस्वरूप उपजाऊ जमीन बंजर जमीन में परिवर्तित होने लगी। जंगल का क्षेत्र जो एक परदे की तरह कार्य करता, के विनाश से रेगिस्तानी हवाओं के कारण रेत कणों का दूर तक फैलाव होने लगा। जंगलों के विनाश से कतिपय वन्य जातियों के लुप्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया।

2. औद्योगीकरण एवं शहरीकरण से उत्पन्न प्रदूषण – भारत में औद्योगीकरण एवं शहरीकरण की प्रक्रिया का बढ़ना लाजमी तथा आवश्यक है। किन्तु उन औद्योगिकरण एवं शहरीकरण के कारण वायु-जल प्रदूषण तथा शोर प्रदूषण की गंभीर समस्याएँ खड़ी हुई हैं। औद्योगिक नगरों में कारखानों की चिमनी से निकलने वाली राख और धुआँ, मोटर वाहनों से निकलने वाला विषैला धुँआ, शहर के वायु मण्डल में छाता तथा जल स्रोतों में घुलता जा रहा है। कानपुर, कलकत्ता, बम्बई आदि औद्योगिक नगरियों पर धुएँ का मोटा आवरण छा जाता है। फलस्वरूप इन शहरों के तापमान में वृद्धि हो रही है। औद्योगिक उत्पादनों के निर्माण की प्रक्रिया के कारण होने वाला मल-पदार्थ तथा शहरों की बहती गंदगियों ने नदियों, जलस्रोतों को प्रदूषित कर दिया है। टनों में निकलने वाले इस अवशिष्ट पदार्थ को ठिकाने लगाना एक बड़ी समस्या हो गई. है। ऊष्मा व शोर-प्रदूषण के अलावा स्वास्थ्य को खतरा होने की सम्भावनाएँ बढ़ गई हैं।

3. शोर- प्रदूषण – मशीनों, वाहनों, हवाई जहाज, संचार माध्यम (रेडियो, विद्युत) उपकरणों, लाउडस्पीकरों आदि।) के उपयोग के कारण उत्पन्न ध्वनि ने शोर प्रदूषण को जन्म दिया है। शोर मानव के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है।

4. जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न प्रदूषण— भारत में जनसंख्या वृद्धि की तीव्र दर तथा शहरों, नगरों तथा औद्योगिक केन्द्रों पर बढ़ती जनसंख्या वृद्धि के दबाव से यहाँ की जनसंख्या फूल रही है। इस जनसंख्या का अधिकांश हिस्सा नगरीय सुविधाओं से वंचित रहता है। फलस्वरूप गन्दगी, मानव-मल, आवारा पशुओं द्वारा फैलायी गई गन्दगी, कूड़ा-कर्कट, भंगार, अटाला आदि फैलती, सड़ती है। इसके कारण जल प्रदूषण के साथ-साथ वायुमण्डल में दुर्गन्थ तथा विषैली गैसें फैलती जाती है। पेयजल में प्रदूषण, आंत्रशोध, हैजा आदि बीमारियों की महामारी को पैदा करता है।

5. जल प्रदूषण – भारत में कुल उपलब्ध पानी (जल) का लगभग 70% भाग तो प्रदूषित हो गया है। इस प्रदूषित जल से बीमारियाँ तो फैल रही हैं किन्तु साथ ही मछलियों की संख्या कम होती जा रही है।

पर्यावरण प्रदूषण से उत्पन्न समस्याएँ

1. वायुमण्डल तथा जलमण्डल के सन्तुलन का गड़बड़ाना- पृथ्वी, वायुमण्डल तथा जलमण्डल के सन्तुलन को रखने हेतु 1/3 क्षेत्र में जंगलों को सुरक्षित रखना आवश्यक है। बनाए – जंगलों का जलवायु पर गहरा प्रभाव रहता है। ये मानसून की हवाओं को आकर्षित करते हैं तथा वर्षा करवाते हैं। कृषि प्रधान देशों में तो जंगलों का और भी अधिक महत्व है। जंगलों के कारण भूमि-क्षरण भी नहीं होता है।

तीसरी दुनिया के देशों की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है। इन देशों में खेती के विकास के लिये अनियंत्रित तथा असन्तुलित रूप से जंगलों को साफ किया गया । फलस्वरूप मौसम का चक्र भी बदलने लगा। अपर्याप्त वर्षा, सूखा तथा भूमिक्षरण की प्रक्रियाएँ तेज होने लगीं। इसके कारण भूमि अधिक बंजर बनती जा रही है और रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है। तीसरी दुनिया के अधिकांश देश आज भी ईंधन के लिए ऊर्जा के परम्परागत स्रोत लकड़ी-कोयले पर ही निर्भर होने से जंगल नष्ट हो रहे हैं।

2. हवा, पानी तथा जमीन पर प्रभाव – पर्यावरण सन्तुलन के बिगड़ने का प्रमुख प्रभाव मनुष्य जीवन के प्राथमिक आधार हवा, पानी और जमीन पर पड़ता है। इन तीनों में से किसी एक पर पड़ा प्रभाव दूसरे तत्वों को प्रभावित करता है।

3. नगरों में गन्दगी- तीसरी दुनिया के देशों के नगरों व महानगरों में बहुत गन्दगी है। नगरों एवं महानगरों में जनसंख्या के दबाव के कारण गन्दी बस्तियाँ बस गई हैं। कलकत्ता, मद्रास, दिल्ली, बम्बई, शंघाई, कराची, काहिरा आदि नगरों में गन्दी बस्तियों के विकास को देखा जा सकता है। महानगरों में जनसंख्या का केन्द्रीयकरण, भीड़-भाड़, कोलाहल, गन्दगी, यातायात अवरोध, जल आपूर्ति की समस्यायें महानगरों के निकटवर्ती ग्राम भी नगरों की आपूर्ति के साधन बनते जा रहे हैं। इससे नगरीय पर्यावरण में प्रदूषण और बढ़ गया है।

4. प्रदूषण का समुद्री जीवों पर प्रभाव- तीसरे विश्व के अधिकतर बड़े औद्योगिक नगर समुद्रों के किनारे या प्रमुख नदियों के किनारे बसे हैं। इन नगरों के उद्योगों का कूड़ा-करकट जिसमें सैकड़ों तरह के विषैले रसायन तथा विकिरणयुक्त पदार्थ भी होते हैं जो बहकर समुद्र के पानी में मिल जाते हैं। इसके अतिरिक्त कीट-पतंगों और कीटाणुओं से बचाने के लिए फसलों पर छिड़के विषैले रसायन भी अन्ततः समुद्र में पहुँच जाते हैं। इन विषैले पदार्थों से हमारे लिए दोहरा खतरा पैदा हो गया है। एक तो मछली आदि के माध्यम से वे विषैले पदार्थ हमारे शरीर में पहुँच रहे हैं तथा दूसरे समुद्रीय जीव-जन्तुओं के समाप्त होने का खतरा पैदा हो गया है।

5. कीटनाशकों का प्रभाव – आज एक ओर जहाँ तीसरी दुनिया के देश कृषि उत्पादनों में आत्मनिर्भर होने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कृषि उत्पादन बढ़ाने हेतु जहरीली कीटनाशक दवाओं का प्रयोग भी अन्धाधुन्ध रूप से कर रहे हैं। ये कीटनाशक दवायें कीटों को नष्ट करने के साथ-साथ हमारे स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव डालती है। हाल ही में एक गणना के अनुसार विकासशील देशों में प्रतिवर्ष लगभग 3 लाख 75 हजार मनुष्य कीटनाशक दवाओं के जहर से प्रभावित होते हैं जिनमें से लगभग 20 हजार की मृत्यु हो जाती है तथा शेष गम्भीर और असाध्य रोगों से पीड़ित हो जाते हैं।

उक्त विवेचन से स्पष्ट हो गया है कि तीसरे विश्व में पर्यावरण से सम्बन्धित स्थितियाँ काफी गम्भीर हैं। तीसरी दुनिया के अधिकतर देशों में अभी पर्यावरण को लेकर कोई विशेष जागरुकता निर्मित नहीं हुई है। स्वीडन में 1972 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्मेलन में तो यह स्पष्ट हो गया था कि विश्व के कई गणमान्य देश पर्यावरण के प्रश्न पर चिंतित हैं। पर्यावरण की समस्याओं के निराकरण की इच्छाएँ भी इन देशों ने अभिव्यक्त की किन्तु वास्तविकता यह रही है कि हर एक देश स्वयं के बारे में ही सोचता है यदि विश्व की पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाना है तो समूचे विश्व को ही दृष्टि में लेकर चलना होगा। पर्यावरण की समस्याएँ दूसरे देशों से भी सम्बन्ध रखती हैं और निराकरण के भी समूचे पर्यावरण के ताने-बाने को लेकर होने चाहिए।

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