पर्यावरण अवनयन से आप क्या समझते हैं? पर्यावरण अवनयन के प्रकार एवं कारणों का उल्लेख कीजिए।
पर्यावरण अवनयन का अर्थ- किसी भी प्रदेश, देश या क्षेत्र के भौतिक पर्यावरण के एक या कई संघटकों में उत्पन्न गिरावट को पर्यावरण अवनयन या पर्यावरण अवक्रमण कहते हैं। 18वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत से मनुष्य आधुनिक प्रौद्योगिकी से समृद्ध होकर सर्वाधिक शक्तिशाली पर्यावरणीय प्रक्रम के रूप में उभर कर सामने आया है। अब वह भौतिक पर्यावरण को बड़े पैमाने पर परिवर्तित करने में समर्थ हो गया है। मानव पर्यावरण को उस सीमा तक परिवर्तित करने में समर्थ है जो न केवल जीवों के लिए घातक होगा वरन् उसका स्वयं का अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जायेगा। 20वीं शताब्दी में जनसंख्या में आशातीत वृद्धि के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ा है, परिणामस्वरूप निरन्तर बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए इन प्राकृतिक संसाधनों का लोलुपतापूर्ण धुँआधार विदोहन हो रहा है। आधुनिक प्रौद्योगिक में प्रगति तथा मनुष्य के आर्थिक क्रियाकलापों में वृद्धि के कारण प्राकृतिक संसाधन के विदोहन में और तेजी आयी है। इन सबका परिणाम यह हुआ है कि भौतिक पर्यावरण के कुछ संघटकों में इतना अधिक परिवर्तन हो गया है कि उसकी क्षतिपूर्ति भौतिक पर्यावरण के अन्तः निर्मित होमियोस्टेटिक क्रियाविधि द्वारा सम्भव नहीं है। परिणामस्वरूप परिवर्तित पर्यावरणीय दशाओं का जीवमण्डल के जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भौतिक पर्यावरण में इस तरह के मानवजनित परिवर्तनों की पर्यावरण अवनयन या पर्यावरण अवक्रमण कहते हैं।
पर्यावरण अवनयन के प्रकार
प्राकृतिक कारकों द्वारा उत्पन्न उन घटनाओं, जिनके द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण में शीघ्र परिवर्तन होते हैं तथा पर्यावरण की गुणवत्ता एवं जीवधारियों को अपार क्षति होती है, को चरम घटना या प्रकोप कहते हैं जिन्हें पुनः दो वृहद् वर्गों में विभाजित किया जाता है-
1. प्राकृतिक प्रकोप- जैसे टारनैडो, हरीकेन, भूकम्प, बाढ़ तथा सूखा -जैसे आदि।
2. मानवजनित प्रकोप- जैसे नाभिकीय सर्वनाश, रासायनिक युद्ध, रोगाणु युद्ध आदि।
पर्यावरण अवनयन के कारकों तथा पर्यावरण की गुणवत्ता में ह्रास की मात्रा एवं स्तर के आधार पर पर्यावरण अवनयन को दो वर्गों में विभाजित करते हैं –
- चरम घटनायें तथा प्रकोप
- प्रदूषण
पर्यावरण अवनयन के कारण
पर्यावरण अवनयन तथा उससे जनित पर्यावरणीय समस्याओं एवं पर्यावरण संकट के निम्न कारण हैं-
- मानव जनसंख्या में गुणोत्तर वृद्धि |
- तीव्र गति से वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी विकास ।
- तीव्र गति से विकास के लिए महत्वाकांक्षी विकास योजनाओं एवं कार्यक्रमों का नियमन एवं क्रियान्वयन ।
- औद्योगिकरण, नगरीकरण एवं कृषि विकास में तेजी से वृद्धि।
- समाज के दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण।
- मनुष्य का प्राकृतिक पर्यावरण एवं प्रकृति के प्रति शत्रुतापूर्ण निर्दयी व्यवहार ।
- जनसाधारण में पर्यावरण बोध तथा पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति जागरूकता एवं जानकारी की कमी।
- निर्धनता।
- कुछ देशों में कुछ वर्गों में आवश्यकता से अधिक समृद्धि, अर्थात् असमान आर्थिक विकास।
- प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण एवं लोलुपतापूर्ण विदोहन आदि ।
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