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पारिस्थितिकी तंत्र की परिभाषा | पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार | पारिस्थितिकी तंत्र की विशेषताएँ

पारिस्थितिकी तंत्र की परिभाषा | पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार | पारिस्थितिकी तंत्र की विशेषताएँ
पारिस्थितिकी तंत्र की परिभाषा | पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार | पारिस्थितिकी तंत्र की विशेषताएँ

पारिस्थितिकी तंत्र का अर्थ, प्रकार एवं विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

पारिस्थितिकी तंत्र की परिभाषा

टान्सले के अनुसार पारिस्थितिकी तंत्र एक गतिक व्यवस्था है जिसकी संरचना के दो घटक होते हैं— (1) जैव परिवार – जो एक साथ इकाई के रूप में रहते हैं, तथा (2) उनका निवास्य, जो उनको पालता है, रक्षा करता है। इसको स्पष्ट करते हुए लिडमैन ने प्रतिपादित किया है कि किसी भी आकार की किसी भी क्षेत्रीय इकाई में भौतिक-रासायनिक – जैविक क्रियाओं द्वारा निर्मित पर्यावरण शिक्षा IV(1) पेपर / 15 व्यवस्था पारिस्थितिकी तन्त्र कहलाती है। इस कथन से स्पष्ट है कि पारिस्थितिकी तंत्र एक भौगोलिक इकाई है जिसकी व्यवस्था के लिये पदार्थ और ऊर्जा निवेश निरन्तर चलता रहता है जिससे जैविक रचना होती रहती है।

पारिस्थितिकी तन्त्र को परिभाषित करते हुए ओडम ने कहा है कि जीवित जीव तथा अजीवित पर्यावरण एक-दूसरे से अविभाज्य रूप से जुड़े हैं तथा ये एक-दूसरे के साथ प्रतिक्रिया करते हैं। कोई भी इकाई जो किसी निश्चित क्षेत्र के समस्त जीवों के समुदाय को सम्मिलित करती है, तथा भौतिक पर्यावरण के साथ इस तरह पारस्परिक क्रिया करती है। ताकि तन्त्र के अन्दर ऊर्जा प्रवाह द्वारा सुनिश्चित पोषण संरचना, जैविक विविधता तथा खनिज-चक्र जीवित जीवों एवं अजैविक संघटकों में पदार्थों का आदान-प्रदान होता रहे, पारिस्थितिकी तन्त्र कहलाता है।

पार्क ने पारिस्थितिकी तंत्र को परिभाषित करते हुए लिखा है कि पारिस्थितिकी तंत्र एक क्षेत्र के अन्दर समस्त प्राकृतिक जीवों तथा तत्त्वों का सकल योग होता है और इसे भौतिक भूगोल में एक विवृत तंत्र के आधारभूत उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।

उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि पारिस्थितिकी तंत्र प्रकृति की एक कार्यात्मक व्यवस्था की क्षेत्रीय इकाई है, जो स्थान और काल के परिप्रेक्ष्य में जैविक-अजैविक संघटकों की अन्तःप्रक्रिया द्वारा अनेक विशिष्टताओं को प्रकट करती है।

पारिस्थितिकी तन्त्र को सक्रिय बनाये रखने के लिये ऊर्जा प्रवाह का स्तर निरन्तर कायम रहता है। इस तंत्र में पदार्थ और ऊर्जा का निर्गमन एक अनुपात में होता है ताकि तन्त्र का सन्तुलन बना रहे। इसे तन्त्र की समस्थिति कहा जाता है। उदाहरण के लिए तालाब में जल भरण और निकासी तथा जीवों की उपस्थिति और विनाश प्राकृतिक नियम के अनुसार होता है। यदि इसमें किसी प्रकार का हस्तक्षेप न हो तो तंत्र अबाध गति से क्रियाशील रहेगा। लेकिन यदि तालाब के जल भरण स्रोत को बाँध दिया जाय या अत्यधिक प्रदूषित जल डाल दिया जाय या सभी मछलियों को पकड़ कर भोजन के लिए प्रयुक्त कर लिया जाय तो झील का पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो जायेगा। संक्षेप में पारिस्थितिकी तंत्र एक क्षेत्रीय इकाई में पर्यावरण और जैव-भार का कार्यात्मक, आकारिकीय और गतिशीलता की व्याख्या है जो काल के परिप्रेक्ष्य में अंकलित किया जाता है। अतः पारिस्थितिकी तंत्र एक ऐसा क्षेत्रीय समुच्चय है जो प्रकृति के जैव-अजैव तत्त्वों की सम्बद्धता और कार्य व्यवस्था को प्रकट करता है। इस प्रकार पारिस्थितिकी तंत्र की विशिष्टताओं को निम्नवत् सूचीबद्ध किया जा सकता है—

पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार

पारिस्थितिकी तंत्र का वर्गीकरण अनेकों आधारों पर किया जाता है क्योंकि अध्ययन के उद्देश्यों के अनुसार इसका मूल्यांकन किया जाता है। ऐसे आधारों पर पारिस्थितिकी तंत्र को निम्नवत वर्गीकृत किया जाता है-

1. आवास्य क्षेत्र के आधार पर वर्गीकरण- पारिस्थितिकी तंत्र विविध प्रकार के जीवों का प्राकृतिक आवास्य होता है, लेकिन मानवीय हस्तक्षेप में उसमें परिवर्तन भी आ जाता है। साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र की गुणात्मक विशेषता क्षेत्रानुसार होती है। इस आधार पर पारिस्थितिकी तंत्र को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है।

(i) प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र- जब किसी भौगोलिक इकाई में प्राकृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के प्रकृति और जीवों के मध्य अन्तःप्रक्रिया अबाध गति से चलती रहती है तो उसे प्राकृतिक तंत्र कहते हैं। पर्यावरणीय विशिष्टता के आधार पर इसे दो उपविभागों में बाँटा जा सकता है (क) स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र जैसे जंगल की पारिस्थितिकी, घास की पारिस्थितिकी, मरुस्थल की पारिस्थितिकी आदि तथा (ख) जलीय पारिस्थितिकी तंत्र अर्थात् सागर, झील, नदी आदि की पारिस्थितिकी। इसे खारा जल और स्वच्छ जल पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में भी देखा जाता है क्योंकि दोनों पारिस्थितिकी भिन्न पर्यावरण प्रस्तुत करती हैं।

(ii) कृत्रिम पारिस्थितिकी तंत्र- जब कृत्रिम साधनों से जैव जगत को ऊर्जा एवं अन्य आवश्यकताओं की आपूर्ति की जाती है तो उसे अप्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र कहते हैं। कृषि, आगवानी, पशुपालन आदि में मानव अपनी सूझबूझ और आवश्यकता के अनुसार खेत, बाग और चारागाह का प्रबन्ध कृत्रिम साधनों से करता है। विज्ञान और तकनीकी विकास से कृत्रिम पारिस्थितिकी तंत्र का महत्त्व इतना बढ़ गया कि मानव प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के प्रति अनुदार होता जा रहा है।

2. क्षेत्रीय विस्तार के आधार पर वर्गीकरण- पारिस्थितिकी तंत्र एक भौगोलिक इकाई है। अतः क्षेत्रीय विस्तार के आधार पर इसे (i) महाद्वीपीय पारिस्थितिकी तंत्र और (ii) महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र दो बड़े और अनेक छोटे उपतंत्रों में बाँटा जा सकता है जैसे पर्वत पारिस्थितिकी तंत्र पठारी पारिस्थितिकी तंत्र, मैदानी पारिस्थितिकी तंत्र, सरिता पारिस्थितिकी तंत्र, झील पारिस्थितिकी तंत्र, खाड़ी पारिस्थितिकी तंत्र आदि।

3. उपयोग के आधार पर वर्गीकरण- पारिस्थितिकी तंत्र में जैव जगत के सदस्य (पेड़ पौधे और जीव जन्तु) ऊर्जा का प्रयोग कर पदार्थ का उत्पादन करते हैं। मनुष्य समुदाय के बढ़ते प्रभाव के कारण उपयोग प्रतिरूप में भारी परिवर्तन आया है। ओडम ने इस तथ्य को ध्यान में रखकर इसके दो वर्ग बनाया है – (i) कृषित पारिस्थितिकी तंत्र और (ii) अकृषित पारिस्थितिकी तंत्र । कृषित पारिस्थितिकी तंत्र को फसलों, बागवानी के पौधों और पोषित वन के आधार पर उपवर्गों में बाँटा जा सकता है। प्राकृतिक पारिस्थतिकी तंत्र को वन, सवाना, घास, छोटी घास, बंजर भूमि, दल-दल भूमि आदि के आधार पर उपतंत्रों में विभक्त किया जा सकता है।

4. विकास अवस्था के आधार पर वर्गीकरण- पारिस्थितिकी तंत्र काल और स्थान के परिप्रेक्ष्य में जैव विकास का समुच्चय होता है। विकास के लिये जैव अनुकूलन में समय और स्थान की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती हैं प्रतिकूल स्थिति में विकास अवरुद्ध होता है अतः लम्बी अवधि तक अनुकूल परिवेश में पारिस्थितिकी तंत्र प्रौढ़ हो जाता है जबकि ऐसा न होने पर विकास अनेक रूप ले लेता है। विकास अवस्था के आधार पर इसे चार उपवर्गों में बाँटा जा सकता है-

(i) प्रौढ़ पारिस्थितिकी तंत्र- लम्बी अवधि एवं अनुकूल परिवेश में विकसित होने के ‘कारण प्रौढ़ पारिस्थितिकी तंत्र अति जटिल रूप ग्रहण कर लेता है जहाँ का जैव-भार अधिक होता है। तथा आहार प्रक्रिया आहार जाल में बदल जाती है। वन पारिस्थितिकी इसका उदाहरण है।

(ii) अप्रौढ़ पारिस्थितिकी तंत्र- जहाँ जैव विकास की प्रारम्भिक अवस्थाएँ पाई जाती हैं। वहाँ अप्रौढ़ पारिस्थितिकी तंत्र क्रियाशील होता है। फलतः यहाँ सकल जैव-भार कम होता है, तथा भोजन शृंखला छोटी होती है, जैसे छोटी घास या दलदली भूमि का पारिस्थितिकी तंत्र।

(iii) मिश्रित पारिस्थितिकी तंत्र – जहाँ उपरोक्त दोनों स्थितियों का मिश्रित रूप पाया जाता है, अर्थात् विकास की यह मध्यम स्थिति है। यहाँ जैव-भार सामान्य होता है तथा भोजन श्रृंखला व्यवस्थित होती है, लेकिन जटिल नहीं।

(iv) निष्क्रिय पारिस्थितिकी तंत्र – जहाँ परिवेश की प्रतिकूलता के कारण जैव समाज विनष्ट हो जाता है वहाँ ऐसी स्थिति प्रकट होती है। प्राकृतिक प्रकोप एवं प्रदूषण इसके लिये अधिक जिम्मेदार होते हैं। हिम आवरण, ज्वालामुखी, भूकम्प आदि से जैव जगत का सर्वनाश हो जाता है और पुनः अनुकूल परिस्थिति होने पर जीवन प्रारम्भ होता है। इसी प्रकार एक झील में कारखाने का प्रदूषक आकर जैव विनाश करता है, लेकिन उसके बन्द होने की दशा में पुनः नये सिरे से जीवन प्रारम्भ होता है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि पारिस्थितिकी तंत्र की सत्ता उसकी गुणवत्ता में निहित होती है। और गुणवत्ता के लिये प्राकृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत संरचनात्मक क्रियाशीलता आवश्यक है। अतः पारिस्थितिकी तंत्र का स्वाभाविक या प्राकृतिक रूप दीर्घकालिक, स्थिर और बहुआयामी होता है। पृथ्वी सबसे बड़ी पारिस्थितिकी तंत्र है, जहाँ असंख्य जीव जैव-मण्डलीय व्यवस्था में पल रहे हैं। पारिस्थितिकी तंत्र की अस्थिरता पर्यावरणीय अवनयन से सम्बन्धित है जिसके लिये प्रकृति और मनुष्य दोनों जिम्मेदार हैं।

पारिस्थितिकी तंत्र की विशेषताएँ

पारिस्थितिकी तंत्र की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं:

  1. पारिस्थितिकी तंत्र का एक क्षेत्रीय आयाम होता है अर्थात् यह भूतल पर एक निश्चित क्षेत्र की जीवन्तता का प्रतीक है।
  2. एक निश्चित स्थान और समय वाली भौगोलिक इकाई के समस्त जीवित जीव और पर्यावरण का समुच्चय पारिस्थितिक तंत्र कहलाता है।
  3. इसकी संरचना में जैव संघटक, अजैव असंघटक और ऊर्जा संघटक का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
  4. जैविक और अजैविक संघटकों के मध्य होने वाली जटिल अन्तर्प्रक्रियाओं और जीवों की आपसी अन्तर्प्रक्रिया में ऊर्जा प्रवाह की अहम् भूमिका होती है।
  5. पारिस्थितिकी तंत्र एक खुली व्यवस्था है जिसमें ऊर्जा तथा पदार्थों का सतत् निवेश और बर्हिगमन नैसर्गिक नियम से सम्पादित होता है।
  6. पारिस्थितिकी तंत्र स्वनियमित और स्वपोषित होता है। जब बाह्य कारण या अवरोध क्षम्य सीमा के अन्दर होता है, तो तंत्र अबाध गति से चलता रहता है।
  7. पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा का मुख्य स्रोत सौर्यशक्ति है जिसका रूपान्तरण वनस्पति करती हैं जो प्राथमिक उत्पादक है। इस भोजन ऊर्जा का प्रवाह अन्य जीवों में भोजन ऊर्जा के रूप में होता है।
  8. पारिस्थितिकी तंत्र की गत्यात्मकता के लिये ऊर्जा प्रवाह और जैव भू-रसायन चक्र की मुख्य भूमिका होती है। इनका सातत्य संचलन पारिस्थितिकी तंत्र की संतुलित क्रियाशीलता का आधार है।
  9. पारिस्थितिकी तंत्र की स्व-उत्पादकता होती है जो ऊर्जा की सुलभता पर निर्भर होती है। उत्पादकता किसी क्षेत्र की प्रति समय इकाई मैं जैविक पदार्थ की वृद्धि दर को इंगित करती है।
  10. पारिस्थितिकी तंत्र का कालिक आयाम उसके समय इकाई के सन्दर्भ में ज्ञात किया जाता है।
  11. पारिस्थितिकी तंत्र का क्षेत्रीय आयाम सम्पूर्ण पृथ्वी से लेकर एक तालाब या खेत तक व्यक्त किया जाता है।
  12. पारिस्थितिकी तंत्र एक श्रृंखलाबद्ध क्रमिक विकास को इंगित करता है जो प्राथमिक अनुक्रम से शुरू होकर चरम विकास में परिणत होता है।

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