सामाजिक अन्याय का अर्थ-Social Injustice in Hindi
सामाजिक अन्याय (Social Injustice) – जब किसी समाज के एक वर्ग के साथ अच्छा तथा उसी समाज के दूसरे वर्ग के साथ बुरा बर्ताव किया जाये तो यह सामाजिक अन्याय होगा। हमारा सम्पूर्ण समाज विभिन्न जातियों में बंटा हुआ है और हर जाति के लिए धार्मिक एवं सामाजिक रीति-रिवाजों के लिए अलग नियम है। इन नियमों तहत समाज के एक वर्ग को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की पूरी छूट है तो दूसरे पर बहुत से प्रतिबन्ध लगाये गये हैं, अत: इसी भेदभावपूर्ण रवैये को हम सामाजिक अन्याय कह सकते हैं।
सामाजिक समस्याओं के सूचक एवं क्षेत्र
1. निम्न न्यूनतम जीवन स्तर
इसका अनुमान निम्न तथ्यों से लगाया जा रहा है-
(a) उच्च वर्ग के व्यक्तियों के बच्चे अपनी शिक्षा अच्छे पब्लिक स्कूल में प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत निर्धनता के कारण गरीब व्यक्तियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में जहाँ शिक्षा का स्तर निम्न है। वहाँ पढ़ना पड़ता है।
(b) देश में 25 प्रतिशत से 40 प्रतिशत जनसंख्या कुपोषण की शिकार है जिसे भोजन में आवश्यक विटामिन नहीं मिलते। इस कारण से इन लोगों में बिमारियों का मुकाबला करने की शक्ति ही नहीं होती। यह भी एक सामाजिक अन्याय है।
(c) देश की 30 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा के नीचे रह रही है। जिसे रोजी-रोटी एवं मकानों जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव की समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
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2. जातिगत एवं सामाजिक अन्याय
हमरे देश में जातिगत एवं सामाजिक अन्याय भी होते है जिनका वर्णन आगे किया जा रहा है-
(a) समाज में स्त्रियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। लड़की के जन्म को अच्छी तरह से नहीं देखा जाता है।
(b) समाज में जाति के आधार पर अनेक भेदभाव किये जाते हैं जैसे-ऊँची जाति के लोगों का भोजन और नीची जाति का भोजन, उठना बैठना आदि, हरिजन दलित आदि का प्रयोग होता है।
(c) अनुसूचित जातियों के लोगों का शोषण किया जाता हैं, उनके पास भूमि नहीं हैं, तो रहने के मकान नहीं है या दवाई के पैसे नहीं है।
3. आर्थिक विकास और विस्थापित लोग
हमारे देश में आर्थिक विकास के कारण अनेक लोग विस्थापित हुए है। यह भी एक सामाजिक अन्याय है। ऐसा कहा जाता है कि केवल . सरदार सरोवर और टिहरी बाँध ने लगभग दो लाख लोगों को बेघर बनाया है। ऐसे लोगों को बसाने पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। इन्हें नाममात्र की क्षतिपूर्ति दी गयी है।
4. विकासवादी अर्थशास्त्रियों का यह मत है कि राष्ट्रीय आय का 7 से 10 प्रतिशत खर्च किया जाना चाहिए। जबकि हमारे देश में नर्बी योजना में इस व्यय का प्रतिशत 40 प्रतिशत ही है। हमारे देश में पूँजी निर्माण में विशेष वृद्धि नहीं हुई है। चीन, लंका आदि देश हमसे आगे है। यह स्थिति सामाजिक न्याय आर्थिक विकास न होने की स्थिति को बताती है।
5.रोजगार के अवसर बढ़ाने में असफल
हमारे देश का औद्योगिक विकास रोजगार 5. के अवसर बढ़ाने में भी असफल रहा है। बेरोजगारी की संख्या ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में घटने की जगह बढ़ती जा रही है। लोग यहाँ तक कहने लगे है कि हमारे देश में रोजगार विहीन आर्थिक विकास हुआ है। संगठित, असंगठित सभी क्षेत्रों में रोजगार वृद्धि की दर काफी मन्द रही है।
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सामाजिक न्याय युक्त आर्थिक विकास
उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि भारतवर्ष में यदि कुछ सुधार किये जायें तो सामाजिक न्याय युक्त आर्थिक विकास सम्भव है। इसके लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-
(1) जाति प्रथा को समाप्त करना
यदि भारत में जाति प्रथा को समाप्त कर समाज के सभी पिछड़े वर्ग, चाहे वह जिस जाति का क्यों न हो, का विकास किया जायें और सबके विकास का ध्यान रखा जाय तो सामाजिक अन्याय से मुक्त होने पर आर्थिक विकास सम्भव है।
(2) स्त्रियों तथा बालिकाओं का विकास
हमारे देश में पुरातन काल में स्त्रियों के विकास पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है जबकि स्त्रियाँ समाज के आर्थिक विकास में सहयोगी की भूमिका निभाती है, यदि स्त्रियों के विकास पर ध्यान दिया जाये तो सामाजिक अन्याय समाप्त हो सकता है।
(3) शिक्षा सुविधा में वृद्धि
शिक्षा की सुविधाओं में वृद्धि कर सम्पूर्ण साक्षरता के माध्यम से आर्थिक विकास को गतिशील बनाया जा सकता है। शिक्षा के साधनों का विस्तार ग्रामीण क्षेत्रों में किया जाना चाहिए ताकि ग्रामीण क्षेत्र के युवक शिक्षित होकर आर्थिक विकास में सहयोगी की भूमिका का निर्माण कर सके।
(4) जनसंख्या नियन्त्रण
भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में जनसंख्या पर नियन्त्रण कर आर्थिक विकास के लाभ को जन-जन तक पहुँचाया जा सकता है। क्योंकि आर्थिक विकास की दर की तुलना में देश की आबादी की वृद्धि दर अधिक होने के कारण आर्थिक विकास का लाभ प्रत्येक नागरिक को नहीं मिल पाता है।
(5) रोजगार के अवसरों में वृद्धि
रोजगार के अवसरों में वृद्धि कर सामाजिक अन्याय को समाप्त किया जा सकता है जब लोगों को रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त हों तो लोग स्वयं आर्थिक रूप से समृद्ध होंगे और उनका आर्थिक विकास होगा।
(6) भ्रष्टाचार की समाप्ति
आर्थिक विकास का लाभ न मिलने के पीछे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार भी है। यदि देश में भ्रष्टाचार समाप्त कर दिया जाये तो किसी हद तक सामाजिक न्याय युक्त आर्थिक विकास सम्भव है।
सामाजिक अन्याय को समाप्त करने के उपाय (Measures)
(1) संवैधानिक व्यवस्थाएँ
जनजातियों के कल्याण के लिए संविधान में विशेष व्यवस्था की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 16(1) तथा 335 के अनुसार सार्वजनिक सेवाओं और सरकारी नौकरियों में राज्य की जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित रखने का अधिकार दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 338 में राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वे जनजातियों की अवस्था को उन्नत करने के लिए एक विशेष अधिकारी नियुक्त करें जो कि राष्ट्रपति को नये सुझाव देगा। भारतीय संविधान के भाग 6 अनुच्छेद 164 में असम के अतिरिक्त बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में जनजातीय कल्याण मंत्रालय स्थापित करने का विधान है, साथ ही साथ उनकी शिक्षा और आर्थिक हितों की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान देने के लिए राज्य को निर्देश है। संविधान के दसवें भाग तथा पांचव, छठी अनुसूचियों में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन के सम्बन्ध में विशेष प्रावधान (Provision) है |
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2. संवैधानिक संरक्षण
भारत के संविधान में अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों का शैक्षिक तथा आर्थिक दृष्टि से उत्थान करने, उनके परम्परागत सामाजिक पिछड़ेपन तथा उनकी सामाजिक असमर्थताओं को दूर करने के उद्देश्य से सुरक्षा तथा संरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की गयी-
(1) अस्पृश्यता उन्मूलन तथा इसके किसी भी रूप में प्रचलन का निषेध (अनुच्छेद17) 1
(2) इन जातियों के शैक्षिक तथा आर्थिक हितों की रक्षा और उसका सभी प्रकार के शोषण तथा सामाजिक अन्याय से बचाव (अनुच्छेद 46 ) ।
(3) हिन्दुओं के सार्वजनिक धार्मिक संस्थाओं के द्वार समस्त हिन्दुओं के लिए खोलना (अनुच्छेद 25 ) ।
(4) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों, तालाबों, स्नानघाटों और ऐसी सड़कों तथा सार्वजनिक स्थानों के उपयोग करने पर लगी सभी रूकावटें हटाना, जिनका पूरा या कुछ व्यय संरक्षण उठाती है अथवा जन-कल्याण के निर्मित समर्पित है (अनुच्छेद 15 ) ।
3. विधान मण्डलों में प्रतिनिधित्व
संविधान के अनुच्छेद 330 तथा 332 के अनुसार राज्यों की अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों की जनसंख्या के अनुपात में इन लोगों के लिए लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभा में स्थान सुरक्षित रखे गये है। प्रारम्भ में यह व्यवस्था संविधान के लागू होने के 10 वर्ष तक के लिए थी परन्तु जनवरी 1980 ई० में संविधान में संशोधन करके यह व्यवस्था 25 जनवरी 1990 ई० तक के लिए बढ़ा दी गयी। जिन केन्द्र शासित क्षेत्रों में वि सभाएँ हैं, उनमें संसदीय अधिनियमों द्वारा स्थान सुरक्षित किये गये है।
4. पंचायती राज्य लागू होने के बाद अनूसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए ग्राम पंचायतों तथा अन्य स्थानीय निकायों में स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गयी है।
5. सरकारी नौकरियों में आरक्षण
जिन सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों तथा अनूसूचित जनजातियों के लोगों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं हैं, उनमे इनके पदों को सुरक्षित करने का दायित्व सरकार निभाती है और प्रशासन की कार्य कुशलताओं को बनाये रखते हुए इन जातियों की माँगों पर उचित रूप से विचार करती है। इस सम्बन्ध में सरकार के लिए “लोक सेवा आयोगों से परामर्श अनिवार्य नहीं है।
6. अनुसूचित और जनजाति क्षेत्रों का प्रशासन
आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा और राजस्थान के कुछ क्षेत्र अनुच्छेद 244 और संविधान की पाँचव अनुसूची के अन्तर्गत अनुसूचित किये गये है। इन क्षेत्रों के प्रशासन की वार्षिक रिपोर्ट उन राज्यों के राज्यपालों, जिनमें ये क्षेत्र है, के द्वारा राष्ट्रपति को भेजी जाती है।
7. कल्याण तथा सलाहकार संस्थाएँ
भारत सरकार का गृह मन्त्रालय अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण हेतु योजनाएँ बनाने और क्रियान्वयन के लिए उत्तरदायी है। इस उत्तरदायित्व के निर्वहन हेतु वह राज्यों से सम्पर्क भी बनाये रखता है।
8. संसदीय समिति
भारत सरकार ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों – के कल्याण के सन्दर्भ में संवैधानिक व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन की जाँच करने के लिए तीन संसदीय समितियाँ नियुक्त की। पहली समिति 1968 ई० में, दूसरी समिति 1971 ई० में, तीसरी समिति 1973 ई० में और अब संसद की एक स्थायी समिति बना दी है जिसके सदस्यों का कार्यकाल एक एक वर्ष का होता है। इस समिति में 30 सदस्य होते हैं जो 20 लोकसभा से और 10 राज्य सभा से लिए जाते है।
9. राज्यों में कल्याण विभाग
राज्य सरकारों तथा केन्द्र शासित क्षेत्रों की शासन व्यवस्थाओं में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के हितों की देख-रेख के लिए पृथक विभाग होते हैं। विभिन्न राज्यों में इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न प्रशासन व्यवस्था होती हैं। बिहार, मध्य प्रदेश तथा उड़ीसा में संविधान के अनुच्छेद 164 के अनुसार जनजातियों के हितों की देखभाल के लिए पृथक मन्त्री की नियुक्ति की गयी है। कुछ अन्य राज्यों ने संसदीय समिति के अनुरूप विधान-मण्डलों समितियों की स्थापना की है।
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