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भारत में भुगतान शेष की प्रवृत्ति | भारत में भुगतान शेष के घाटे की समस्या के समाधान हेतु सुझाव

भारत में भुगतान शेष की प्रवृत्ति
भारत में भुगतान शेष की प्रवृत्ति

भारत में भुगतान शेष की प्रवृत्ति (Trends in Balance of Payment in India)

भारत में भुगतान शेष की प्रवृत्ति– आयोजन-काल के प्रारम्भ से ही भारत को भुगतान सन्तुलन विषयक घाटे की समस्या से जूझना पड़ा है। एक के बाद दूसरी योजना में ये घाटे बढ़ते गये । आरम्भ में ये घाटे मामूली थे, लेकिन समय के बीतने के साथ-साथ घाटे की रकमें तेजी से बढ़ने लगी। मिसाल के तौर पर पहली योजना में वार्षिक औसत आधार पर घाटे की रकम केवल 33 करोड़ रूपये थी। दूसरी योजना में यह कई गुना बढ़कर 345 करोड़ रूपये हो गयी। बढ़ने की प्रवृत्ति तीसरी योजना के काल में भी बनी रही। इस अवधि में वार्षिक औसत पर यह घाटा करीब दुगुना होकर 615 करोड़ रूपये तक पहुँच गया था। वार्षिक योजनाओं की अवधि (1966-69) में इस घाटे में और बढ़ोतरी हुईं। उस समय वार्षिक घाटा एक हजार करोड़ रूपये की सीमा पार करके 1,037 करोड़ रूपये तक जा पहुँचा। चौथी और पाँचवीं योजना के अन्तर्गत घाटे की रकम थोड़ी कम थी। वार्षिक औसत घाटा चौथी योजना (1969-74) में 792 करोड़ रूपये और पाँचव योजना (1974-79) में 835 करोड़ रूपये रहा। लेकिन आगे चलकर स्थिति उत्तरोत्तर गम्भीर होती गयी।

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छठ योजना (1980-85) के काल में औसत घाटे की रकम तेजी से बढ़कर 3,062 करोड़ रूपये हो गयी। इस दृष्टि से सातवीं योजना के दौरान (1985-90) स्थिति और खराब रही। इस अवधि में औसत घाटे की रकम तेजी से बढ़कर 4,985 करोड़ रूपये तक पहुँच गयी। आगे चलकर स्थिति ने और भी गम्भीर रूप धारण कर लिया। दो वार्षिक योजनाओं की अवधि (1992-97) में औसत घाटा लगभग दुगुना हो गया। 9,083 करोड़ रूपये आठवीं योजना के काल (1992-97) में औसत घाटे के सब रिकार्ड टूट गये। इस अवधि में वार्षिक औसत घाटे की राशि 11,966 रूपये के लगभग थीं। चालू खाते पर भुगतान सन्तुलन में घाटे की रकम 1997-98 में 20,833 करोड़ रूपये और 1999-2000 में 17,999 करोड़ रूपये थी। स्पष्ट है कि भुगतान सन्तुलन में घाटे की स्थिति उत्तरोत्तर गम्भीर होती रही। नौवी योजना (1997-2002) तथा 10वीं योजना (2002-07) एवं 11वीं योजना (2007-12) में भी भुगतान राशि की प्रवृत्ति घाटे की रही। भुगतान शेष में घाटे की प्रवृत्ति विकासशील देश की विशेषता है।

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घाटे में वृद्धि के कारण या विपरीत भुगतान सन्तुलन के कारण (Causes of unfavourable balance of Payment)

1. आयात में भारी वृद्धि

भुगतान शेष में घाटे का मुख्य कारण यह है कि आयात में अपेक्षाकृत तेजी से वृद्धि होती रही है। इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि इसमें से अधिकांश आयात विकास विषयक माल का रहा हैं। आरम्भिक दौर में खासकर दूसरी और तीसरी योजनाओं की अवधि में आयातों में पूँजीगत वस्तुएँ जैसे-मशीनें, उपकरण आदि शामिल थीं। इसकी आवश्यकता हमें उस औद्योगिक विकास की भारी उद्योग विषयक रणनीति चलाने के लिए थी। जिसका निर्धारण महालनोबिस मॉडल के अन्तर्गत किया गया था। आगे चलकर सातवें दशक के मध्य से हमारे विकास विषयक आयातों में अधिकतर प्रतिस्थापन तथा मरम्मत आदि के लिए – आपेक्षित रख-रखाव की वस्तुएँ और औद्योगिक कच्चे माल के आयात का समावेश हो गया। – मशीनें और उपकरण लगा दिये जाने पर इस तरह के आयात महत्त्वपूर्ण बन गये।

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आयात का अन्य महत्त्वपूर्ण अंग रहा हैं, अनाज और खाद्य तेल। सूखे की स्थिति में तो – इनका आयाता बहुत ही अधिक रहा है। अच्छी फसलों के समय में हमनें विदेश से कम अनाज मँगाया। पिछले कुछ वर्षों में फसलें लगातार अच्छी रहीं। इन वर्षों में तथा आयोजन के आरम्भिक काल में खासतौर से पहली योजना के दौरान अनाज का अधिक आयात नहीं हुआ। वास्तव में उन वर्षों में तो अनाज बाहर से मँगाया ही नहीं गया। वैसे अनेक वर्षों में कुल आयात में इनका उल्लेखनीय भाग रहा है।

आयात बढ़ाने में जिस अन्य कारक का विशेष हाथ रहा है। वह है आयातित वस्तुओं की कीमतों में भारी वृद्धिं। इसका एक कारण रहा है, रूपये का अवमूल्यन। आम हालत में तो यही होता है कि आयातों की रूपया कीमतें बढ़ जाने से उनके परिणाम में कटौती की जाती, लेकिन हमारी स्थिति ऐसी रही हैं कि हम आयातों में, जिनमें विकास विषयक वस्तुओं तथा अनाज की अधिकता है कोई विशेष कटौती कर ही नहीं सकते थे। अत: रूपये के अवमूल्यन से विदेशों में खरीदे गये माल का मुद्रा मूल्य बढ़ गया। इसी तरह का प्रभाव डालने वाला अन्य कारण हैं, कुछ आयातों विशेषत: पेट्रोलियम, उर्वरकों आदि की कीमतों में होने वाली तीव्र वृद्धि । हाल के वर्षों में इन वस्तुओं की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है। इस कारण भी 1973-74 से हमारे आयात विषयक मूल्य भारत को बहुत बढ़ा दिया है। खाड़ी युद्ध के कारण भी हमारे आयात बिल बहुत बढ़ गये हैं। साथ ही वर्तमान उदार आयात नीति भी आयात वृद्धि में सहायक रही।

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2. निर्यात में अर्जित रकमों में धीमी वृद्धि

आयात के परिणाम और मूल्य में होने वाली वृद्धि उस स्थिति में चिन्ताजनक नहीं होती हैं, जब इसके साथ-साथ निर्यातों में भी यदि उतनी ही नहीं तो उल्लेखनीय वृद्धि हुई होती। हमारे निर्यात बढ़ें हैं, इसमें तो सन्देह नहीं हैं, लेकिन उनका परिणाम इतना नहीं रहा हैं जिससे हमारे भारी घाटों का बोझ कम हो पाता। इतना हीं नहीं, अधिक चिन्ताजनक बात यह है कि स्थायी तौर पर निर्यात वर्धमान नहीं रहे हैं। हाल के समय तक कृषि उत्पादन में उतार-चढ़ाव के कारण हमारे निर्यात घटते रहे हैं। भारत जैसे देश के सम्बन्ध में यह स्थिति स्वाभाविक ही थी, क्योंकि अभी हाल तक औद्योगिक क्षेत्र में देश अपने पैर जमा नहीं

पाया था। कृषि वस्तुओं का निर्यात व्यापार में विशेष स्थान था। फलस्वरूप अच्छी व बुरी फसल के अनुसार निर्यात पर असर पड़ता था। मिसाल के तौर पर, जहाँ पहली योजना के काल में फसलें बहुत अच्छी रहने के कारण हमारे निर्यात अधिक रहें, वहाँ दूसरी योजना की अवधि में फसलें खराब रहने से निर्यात कम हो पाया।

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3. पूँजीगत सौदों पर घाटा

एक अन्य सहायक कारक, जो इधर काफी महत्त्वपूर्ण बन गया हैं, पूँजीगत सौदे पर बढ़ते हुए घाटे से सम्बन्धित हैं। इसके विभिन्न अंगों (निजी पूँजीगत सौदे, सरकारी पूँजीगत लेन-देन, परिशोधन भुगतान अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से रूपये की खरीद एवं बैंक पूँजी) में परिशोधन का वर्धमान भार घाटे का प्रमुख स्रोत रहा है। ऋण की अदायगी और उस पर ब्याज चुकाने के सिलसिलें में बड़ी धनराशि की जरूरत पड़ी है विशेष रूप से आठवें दशक से। सरकारी खाते पर पूँजीगत लेन-देन से भी घाटे में बढ़ोतरी हुई है। निजी खाते पर पूँजीगत लेन-देन की दिशा से अवश्य अधिशेष की प्राप्ति हुई हैं। अन्यथा घाटे की राशि और अधिक होती।

अस्तु स्पष्ट है कि तेजी से बढ़ते हुए आयात तथा निर्यात में धीमी वृद्धि भुगतान सन्तुलन में घाटे के मुख्य कारण ठहरते है। अदृश्य मदों से शुद्ध प्राप्तियों का योगदान भी घट गया हैं। उधर परिशोधन भुगतान के वर्धमान भार ने भी घाटे की समस्या को और गम्भीर बना दिया है।

भारत में भुगतान शेष के घाटे की समस्या के समाधान हेतु सुझाव (Suggestion for correcting Adverse Balance of Payment)

(1) आयात संरचना में परिवर्तन

इस उपाय का सम्बन्ध आयात से है। यह कहा जा सकता है कि घाटे को कम या सीमित करने का एक विकल्प है कि आयात को घटाया जाय लेकिन जहाँ तक आयात की मात्रा का सम्बन्ध हैं, वहाँ घटाने की कोई खास गुन्जाइश नहीं है। विकास की गति तथा घरेलू उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ आयात की मात्रा में वृद्धि होना आवश्यक ठहरता है। इस प्रकार समाधान के रूप में आयात की मात्रा में कोई विशेष कमी करने का प्रश्न ही नहीं उठता। अनाज और कुछ कृषिजन्य कच्चे माल के आयात को हटाना आयात की मात्रा को कम करने में अवश्य सहायक हो सकता है लेकिन उसे छोड़कर आयात को निम्न स्तर पर बनाये रखने की विशेष सम्भावना नहीं है, यहाँ जो वांछनीय और व्यावहारिक हैं, वह यह है कि योजना की आवश्यकताओं और देशी उत्पादों के संघटन के अनुरूप आयात ढाँचें में परिवर्तन किया जाय। इसके लिए तीन बातें आवश्यक है। एक तो कुछ आयातों का आंशिक रूप में या पूरी तौर पर उत्पादन द्वारा प्रतिस्थापन। दूसरे, ऐसे आयातों को प्रोत्साहन जिनसे घरेलू निर्यात उद्योगों को साधन सामग्री उपलब्ध होती है। तीसरे, ऐसे आयात का प्रावधान जो तीव्र सम्वृद्धि के उद्देश्य की पूर्ति में सहायक है, जैसे- उन्नत तकनीक । घरेलू अर्थव्यवस्था को शक्ति प्रदान करने के अतिरिक्त, ये परिवर्तन निर्यात वृद्धि में भी सहायक होंगे।

(2) निर्यात को बढ़ाना

दूसरे किस्म के उपाय का सम्बन्ध निर्यात वृद्धि से हैं। यही यथार्थत: घाटा पूर्ति की आधारशिला हैं। इसमें तीन कदम निहित है। पहला हैं, पारम्परिक निर्यात को कायम रखना। होना यह चाहिए कि पारम्परिक निर्यात को यदि हम वर्द्धमान निर्यात के अनुपात में अथवा वर्द्धमान कुल राष्ट्रीय उत्पादन के अनुपात में कायम न रख सकें, तो कम-से-कम निरपेक्ष रूप से उन्हें कायम रखें। दूसरा हैं, बड़े पैमाने पर गैर पारम्परिक वस्तुओं के निर्यात को प्रोत्साहन देना। इसमें ज्यादा जोर इस बात पर होना चाहिए कि कुछ वस्तुओं, जैसे इंजीनियरिंग सामान तथा लोहा और इस्पात का अधिक निर्यात हो, क्योंकि इन वस्तुओं के विश्व-बाजार का तेजी से विस्तार हो रहा है, तीसरा निर्यात वस्तुओं का देश के भीतर उपभोग करने पर यथासम्भव रोक लगायी जाय, जिससे कि देश के उद्योग विदेशों में बेचने के लिए अधिकतम माल उपलब्ध करा सके। इसके लिए ऐसी बातें आवश्यक हैं जैसे कि निर्यात वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि, उनकों अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से प्रतियोगितापूर्ण बनाना तथा निर्यात अभिप्रेरणा का प्रबन्ध ।

(3) कार्यक्षमता में वृद्धि लाना

आयात संरचना में परिवर्तन लाने एवं निर्यात वृद्धिं की नीति के एक अंग के रूप में यह आवश्यक हैं कि हमारा लागत-ढाँचा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के अनुरूप हो। इससे घरेलू उद्योगों की कार्यक्षमता सुनिश्चित हो सकेगी। निर्यात वृद्धि में तेजी लाने की दृष्टि से भी यह आवश्यक है। उच्च स्तरीय, उत्पादन तकनीक प्रयोग करने के साथ-साथ हमें अपनी कीमतों को अन्तर्राष्ट्रीय कीमतों के समरूप बनाये रखना होगा, ताकि हमारी वस्तुएँ विश्व बाजार की प्रतियोगिता का सामना कर सकें। दूसरे शब्दों में, मौद्रिक तथा राजकोषीय नीतियों के माध्यम से स्फीतिकारी प्रवत्तियों पर नियन्त्रण रखा जाय। यदि तब भी हम अपने उद्देश्य की प्राप्ति में पूरी तरह से सफल नहीं होते तो सुविचारित विनिमय दर नीति जिसमें अवमूल्यन भी शामिल है, एक मात्र व्यावहारिक विकल्प रह जाता हैं जिसे काम में लाया जा सकता है।

(4) अदृश्य मदों से आय को बढ़ाना

सेवाओं के निर्यात के सहारे अधिक विदेशी मुद्रा कमाने के लिए भी समुचित प्रयास किया जाना जरूरी हैं अनेक वर्षों में इनसे अधिशेष की प्राप्ति हुई और सीमा तक भुगतान सन्तुलन के घाटे को कम किया जा सका। अनेक अदृश्य मदें ऐसी हैं जो अधिशेष-सृजन में बहुत सहायक हो सकी हैं। इनमें पर्यटन प्रमुख हैं। देश में अनेक सुविख्यात ऐतिहासिक और दर्शनीय स्थल हैं जो भारी संख्या में विदेशी पर्यटकों को आकर्षित कर सकते हैं और इस प्रकार विदेशी मुद्रा में अर्जन में महत्त्वपूर्ण हाथ बँटा सकते हैं। इसी प्रकार परामर्श सेवा, बैंकिंग और पोत-परिवहन जैसी अदृश्य मदों के सहारे भी बड़ी राशि कमायी जा सकती है।

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