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भुगतान सन्तुलन | व्यापार सन्तुलन और भुगतान सन्तुलन में अन्तर | Balance of Payment in Hindi

भुगतान सन्तुलन
भुगतान सन्तुलन

भुगतान सन्तुलन – Balance of Payment in Hindi

भुगतान सन्तुलन (Balance of Payment) ‘व्यापार सन्तुलन’ किसी देश के दृश्य (visible) आयातों और निर्यातों के बीच अन्तर की ओर संकेत करता है। आयात-निर्यात की दृश्य मदों से अभिप्राय वस्तुओं के आयात-निर्यात से है, जिनका बन्दरगाहों पर लेखा-जोखा रखा जाता है। ‘अदृश्य’ (Invisible) मदों से अभिप्राय सेवाओं (जहाजरानी, बीमा, बैंकिंग आदि) के आयात-निर्यात से हैं, जिनके लिए एक देश द्वारा दूसरे देश से भुगतान लिया दिया जाता है, किन्तु जिनका लेखा-जोखा बन्दरगाहों पर नहीं रखा जाता।

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बेनहम के शब्दों में, “किसी देश का व्यापार सन्तुलन एक अवधि के भीतर उसके निर्यात मूल्य और आयात-मूल्य के बीच का सम्बन्ध होता है। “

दूसरी ओर ” भुगतान सन्तुलन’ किसी देश के अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय व्यवहारों का परिणात्मक सारांश होता है। बेनहम के शब्दों में, “किसी देश का व्यापार सन्तुलन एक अवधि के भीतर शेष विश्व के साथ उसके वित्तीय सौदों का लेखा-जोखा होता है।” भुगतान सन्तुलन के विवरण में आयात निर्यात की दृश्य (प्रत्यक्ष) मदों के साथ-साथ अदृश्य (परोक्ष) मदें भी सम्मिलित होती हैं। इसमें द्विपक्षीय व्यवहारों के अतिरिक्त एक पक्षीय व्यवहार ( जैसे-उपहार, युद्ध की क्षतिपूर्ति का भुगतान, ऋणों का मूलधन और ब्याज का भुगतान आदि) भी सम्मिलित होते है। भुगतान सन्तुलन का विवरण ( जो बही-खाते के रूप में होता है) में एक ओर उनके शीर्षकों का उल्लेख होता है, जिनके कारण किसी देश को विदेशियों से भुगतान प्राप्त होते हैं तथा दूसरी ओर उन मदों का उल्लेख होता है, जिनके कारण अमुक देश द्वारा विदेशियों को भुगतान किये जाते हैं।

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हैबरलर के मतानुसार, “भुगतान सन्तुलन का प्रत्यय पाँच भिन्न अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है, जो निम्न प्रकार हैं-

1. दी हुई अवधि में विदेशी मुद्रा की खरीदी बेची मात्राएँ- इसका अर्थ वर्ष की अवधि के भीतर क्रय-विक्रय की गयी विदेशी मुद्रा की मात्राओं से है। इस अर्थ में भुगतान शेष सदैव सन्तुलित रहता हैं, क्योंकि विदेशी मुद्रा की खरीदी गयी मात्रा निश्चित रूप से बेची या मात्रा के बराबर होती हैं।

2. विशिष्ट अवधि में विदेशों को दिये और लिए गये भुगतान- ‘भुगतान सन्तुलन’ का अर्थ उन भुगतानों से है जो एक वर्ष के भीतर विदेशों से प्राप्त होते है और विदेशों को किये जाते है।

3. आय खाते पर भुगतान सन्तुलन- इस अर्थ में भुगतानसन्तुलन देश के विदेशी व्यापार से सम्बन्धित आय खातों को व्यक्त करता है। इसमें ब्याज सन्तुलन तथा व्यापार और सेवाओं का सन्तुलन सम्मिलित होता है।

4. अन्तर्राष्ट्रीय ऋणग्रस्तता का सन्तुलन- इस अर्थ में ‘सन्तुलन’ उन दायित्व और प्राप्तियों की ओर संकेत करता है, जो अवधि विशेष में चुकानी और प्राप्त करनी होती हैं।

5. विदेशी मुद्रा की माँग और पूर्ति की सम्पूर्ण स्थिति- यह भुगतान सन्तुलन का सर्वाधिक प्रचलित अर्थ है।”भुगतान सन्तुलन’ का अभिप्राय विनिमय दर को प्रभावित करने वाली शक्तियों से है। किसी वस्तु के मूल्य की तरह मुद्रा के बाह्य मूल्य (विनिमय दर) का निर्धारण की माँग और पूर्ति की शक्तियों के परस्पर सन्तुलन द्वारा होता है।

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व्यापार सन्तुलन और भुगतान सन्तुलन में अन्तर

विदेशी व्यापार से सम्बन्धित इन दोनों प्रत्ययों के बीच मुख्य अन्तर निम्नलिखित हैं-

(1) भुगतान सन्तुलन एक विस्तृत धारणा है, जिसमें व्यापार सन्तुलन भी सम्मिलित रहता है।

(2) व्यापार सन्तुलन वस्तुओं के आयात-निर्यात में अन्तर की ओर संकेत करता है, जबकि भुगतान सन्तुलन वस्तुओं और सेवाओं के कुल आयातों एवं कुल निर्यातों में अन्तर की ओर संकेत करता है।

(3) व्यापार सन्तुलन में आयात-निर्यात की केवल दृश्य (प्रत्यक्ष) मदों को सम्मिलित किया जाता है, जबकि भुगतान सन्तुलन में दृश्य के साथ-साथ अदृश्य (परोक्ष), मदों को भी सम्मिलित किया जाता है।

(4) भुगतान सन्तुलन ( भुगतान शेष) सदैव सन्तुलित रहता है, जबकि व्यापार-सन्तुलन (व्यापार शेष) का सदैव सन्तुलित रहना आवश्यक नहीं है। व्यापारशेष ‘अनुकूल’ (आधिक्य ‘वाला) या ‘प्रतिकूल’ (घाटे वाला) हो सकता है।

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भुगतान शेष का सापेक्षिक महत्त्व (Importance) –

व्यापार शेष के अध्ययन से किसी देश को वास्तविक आर्थिक स्थिति का ज्ञान नहीं होता। उदाहरणार्थ-द्वितीय महायुद्ध से पूर्व ब्रिटेन के साथ भारत का व्यापार शेष अनुकूल रहता था, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उस समय भारत विकसित और ब्रिटेन अविकसित देश था। उस समय भारत वस्तुओं के अतिरिक्त कई प्रकार की सेवाओं ( बीमा, बैंकिंग, जहाजरानी आदि) का आयात भी ब्रिटेन से करता था। इन सेवाओं का मूल्य चुकाने के लिए भारत को बड़ी मात्रा में वस्तुओं का निर्यात करना पड़ता था। इसलिए भुगतान शेष के प्रतिकूल होते हुए भी, भारत का व्यापार शेष अनुकूल रहता था। दूसरी ओर, व्यापार शेष प्रतिकूल रहते हुए ब्रिटेन का भुगतान शेष अनुकूल रहता था। ब्रिटेन द्वारा भारत को सेवाओं के निर्यातों का मूल्य भारत से आयातित वस्तुओं के मूल्य की तुलना में कहीं अधिक होता था। स्पष्टत: व्यापारशेष की अनुकूलता की अपेक्षा भुगतान शेष की अनुकूलता अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। अनुकूल भुगतान शेष सूचित करता है कि देश की आर्थिक स्थिति सन्तोषजनक है। प्रतिकूल भुगतान शेष देश की चिन्ताजनक आर्थिक स्थिति का प्रतीक होता है। विकासशील देश का भुगतान शेष देखकर यह ज्ञात हो जाता है कि वह अपने आर्थिक विकास हेतु विदेशी पूँजी पर कहाँ तक निर्भर है। दूसरी ओर, विकसित देश का भुगतान शेष दर्शाता है कि उसे विदेशी विनियोग से कितनी आय प्राप्त होती है। भुगतान शेष के नये और पुराने विवरणों को देखकर देश की परिवर्तित आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।

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