धर्म एवं नैतिकता के सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए। क्या नैतिक शिक्षा के लिए धर्म की शिक्षा आवश्यक है ?
धर्म का अर्थ एवं परिभाषा
मनुष्य जीवन के मुख्य रूप से तीन पक्ष हैं- प्राकृतिक, सामाजिक व आध्यात्मिक। उसने अपने इन तीनों पक्षों के उन्नयन के लिए, अपने अनुभव के आधार पर, कुछ सिद्धान्त और नियमों का पालन करना धर्म कहलाता है। धर्म शब्द से भी उसका यही अर्थ निकलता है। धर्म शब्द संस्कृत की धृ धातु से बना है, जिसका अर्थ है- धारण करना। इसलिए धर्म का अर्थ हुआ जो धारण किया जाए। वस्तुतः आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति हेतु धारण किए जाने वाले आचार विचार का ही नाम धर्म है। परन्तु धर्म के सम्प्रत्यय के सम्बन्ध में विद्वान एक मत नहीं हैं। मनुष्य के प्रति कर्तव्य का दूसरा नाम ही धर्म है।
वास्तव में इन दोनों में भी अन्तर होता है, धर्म मनुष्य के शुभ, मंगल व कल्याण तीनों से सम्बन्धित होता है। महर्षि कणाद के अनुसार “जिसके धारण करने से लौकिक अभ्युदय और पारलौकिक कल्याण की प्राप्ति हो, वही धर्म है। “
मनुस्मृति में इस धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं-
“धैर्य, क्षमा, शान्ति, लोभ न करना, शुद्धता, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध, ये दस लक्षण हैं धर्म के।”
व्यावहारिक दृष्टि से भी देखें तो धर्म मनुष्य के आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ उसके प्राकृतिक एवं सामाजिक विकास से भी सम्बन्धित होता है। यह मनुष्य मात्र को उचित आहार-विहार और उचित आचार विचार की शिक्षा देता है और उन्हें अनुपालन की ओर प्रवृत्त करता है। इससे व्यक्ति का प्राकृतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास होता है। जर्मन दर्शनशास्त्री के अनुसार ” धर्म अपने समस्त कर्त्तव्यों को दैवीय आदेशों के रूप में मानने में निहित है।” उपरोक्त के आधार पर कह सकते हैं कि धर्म का अर्थ है उन आध्यात्मिक सिद्धान्तों एवं नियमों का ज्ञान एवं पालन जिनसे मनुष्य का प्राकृतिक, सामाजिक और अन्ततोगत्वा आध्यात्मिक विकास होता है।
नैतिकता का तात्पर्य- समाज और व्यक्ति एक-दूसरे के पूरक होते हैं। एक के बिना दूसरे के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते। आज हमारे समाज का स्वरूप तेजी से परिवर्तित हो रहा है। ये सही है कि परिवर्तन इस संसार का नियम है लेकिन जिस तरह से हमारे समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है वो सही नहीं है। प्राचीनकाल में पाठशालाओं में धार्मिक व नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग थे। अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा नीति को धार्मिक व नैतिक शिक्षा से बिल्कुल अलग रखा, उन्होंने राज्य द्वारा संचालित विद्यालय में इस शिक्षा को पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित करके धार्मिक तटस्थता की नीति का अनुसरण किया। स्वतन्त्रता के उपरान्त भारत भी धर्म निरपेक्ष देश घोषित किया गया। नैतिकता धर्म का एक अवयव है। धार्मिक शिक्षा में ही नैतिक शिक्षा निहित होती है। अंग्रेजों द्वारा तथा स्वतन्त्रता के उपरान्त भारत के धर्म निरपेक्ष के नाम पर धार्मिक शिक्षा जो पूर्णत: नैतिकता पर आधारित होती है, को प्रतिबन्धित कर दिया, परिणामस्वरूप समाज एक विकृति सोच की मानसिकता व संस्कृति का चलन में प्रारम्भ हो गया और ऐसे लोगों ने अपने आपको आधुनिक होने का दम्भ भरने लगे। जबकि वास्तविकता में पाश्चात्यीकरण की अन्धी दौड़ के पीछे भागते हुए उन्होंने प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक विरासत एवं पहचान जो कि नैतिकता पर आधारित थी, से अपने आपको दूर कर लिया जबकि शिक्षा का तात्पर्य ही नैतिकता से लगाया जाता है। हरबर्ट के अनुसार- नैतिक शिक्षा, शिक्षा से पृथक नहीं है जहाँ तक नैतिकता धर्म का अर्थ है इन दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर है।
धर्म व नैतिकता का सम्बन्ध मनुष्य जीवन के मुख्य रूप से तीन पक्ष होते हैं प्राकृतिक, सामाजिक व आध्यात्मिक मनुष्य के इन तीनों पक्षों के उन्नयन के लिए प्रत्येक समाज ने कुछ नियम निश्चित किए हैं- इनमें से सामाजिक जीवन से सम्बन्धित नियमों का पालन करना धर्म कहलाता है। हम जानते हैं कि सामाजिक नियम देश और काल से प्रभावित होते हैं। इसलिए नैतिकता देशकाल के सापेक्ष होती है। इसके विपरीत आध्यात्मिक नियम सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक होते हैं। इसलिए धर्म देशकाल निरपेक्ष होती है। यही धर्म व नैतिकता में मुख्य अन्तर होता है। उदाहरणार्थ- इंग्लैण्ड और अमेरिका में रहने वाले लोगों का धर्म एक है इसाई धर्म, परन्तु उनके सामाजिक नियम भिन्न-भिन्न हैं। इसलिए उनकी नैतिकता में भिन्नता है।
धर्म और नैतिकता के सम्बन्ध- में एक बात अवश्य है कि धर्म प्रधान समाजों में सामाजिक जीवन का आधार प्रायः धर्म होता है। यही कारण है कि धर्म और नैतिकता में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। हमारा भारतीय समाज इसी प्रकार का समाज है। यहाँ धर्म और नैतिकता में निकट का सम्बन्ध है और दोनों का संयुक्त रूप हमारा आदर्श है। हमारी दृष्टि से आध्यात्मिक मान्यताओं और मूल्यों अर्थात धर्म पर आधारित नैतिकता केवल सामाजिक आदर्शों और मूल्यों पर आधारित नैतिकता से अधिक ठोस एवं स्थायी होती है और वही सच्ची नैतिकता होती है। अतः धार्मिक और नैतिक शिक्षा को एक ही अर्थ में लेना चाहिए।
नैतिकता और धर्म दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर है। इस बात को ऐसे भी कहा जा सकता है कि धर्म के बिना नैतिकता का और नैतिकता के बिना धर्म का कोई अस्तित्व नहीं है। किसी व्यक्ति में नैतिक मूल्यों का होना ही धर्म है। नैतिक मूल्यों के अनुरूप आचरण ही उसे चरित्रवान बनाता है। नैतिक मूल्यों का पालन सदाचार है। सदाचार व्यक्ति को देवत्व की ओर ले जाता है।
नैतिक शिक्षा के लिए धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता
अथवा
धर्म व नैतिक शिक्षा की आवश्यकता
आज शिक्षा में नैतिक शिक्षा, धार्मिक शिक्षा तथा आध्यात्मिक शिक्षा का संचय होना चाहिए अथवा नहीं और यदि होना चाहिए तो वह कितना और किस प्रकार होना चाहिए। आज यह एक जटिल समस्या बन चुकी है। विद्वान लोग तथा देश व प्रान्त की सरकारें इस विषय पर वर्षों से मंथन, चिन्तन, मनन कर रही हैं किन्तु इसका कोई समाधान नहीं है। आज हमारे संविधान में राज्य के लिए धर्म निरपेक्ष शब्द डाल दिया गया है। इस शब्द ने हमारी शिक्षा की इस जटिलता को और भी अधिक जटिल कर दिया है। इतना ही नहीं आज अनेक लोग इसका अर्थ धर्म विहीन राज्य अथवा अधार्मिक राज्य के रूप में जानने लगे हैं। यद्यपि समय-समय पर यह स्पष्ट किया जा चुका है कि धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्मविहीन नहीं अपितु असाम्प्रदायिक है। इसलिए प्रत्येक धार्मिक आचरण तथा क्रियाकलाप के लिए सभी नागरिक स्वतन्त्र हैं। यह सब स्पष्टीकरण आने पर भी हमारे विद्यालयों में इस प्रकार की शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया। साथ ही यह विचार भी प्रचारित हुआ कि शिक्षा प्रसार के लिए सरकार से यदि किसी प्रकार की सहायता पानी है तो धर्म निरपेक्ष की छवि बनाते हुए धार्मिक शिक्षा को नहीं अपनाना होगा। परिणामस्वरूप आज का छात्र उच्छृंखलित, अनुशासनहीन, नैतिक पतन की ओर अग्रसर है और देश उच्च आदर्शों से दूर होने लगा है। धार्मिक शिक्षा के अभाव में सामाजिक नैतिकता का ह्रास हो रहा है। आज के समय पर सामाजिक सम्बन्ध • परिवार के आपसी सम्बन्ध, गुरु-शिष्य सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्धों की मर्यादा तार-तार हो रही है। रोज के समाचार पत्र, रेडियो, दूरदर्शन की खबरों में इन नैतिकता को छिन्न-भिन्न कर देने वाली सामाजिक अमर्यादाओं का बोलबाला रहता है। आज जो व्यक्ति नैतिक है, धार्मिक है उसको कमजोर, दब्बू तथा उपहास का पात्र माना जाता है। आज के युवाओं को सन्मार्ग पर लाने के लिए कोई विकल्प नहीं सूझ रहा है। बुद्धिजीव वर्ग किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में है।
इसे समस्या के समाधान के लिए निश्चित ही हमें धार्मिक शिक्षा अर्थात वेदों की शरण में जाना होगा। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कहा था ‘वेदों की ओर लौटो’ अर्थात् आने वाली पीढ़ियों को सुसंस्कारित बनाने के लिए धार्मिक शिक्षा की अनिवार्यता है और धार्मिक शिक्षा हमें वेदों-पुराणों जैसे धार्मिक, आध्यात्मिक ग्रन्थों से प्राप्त हो सकती है जो हमारे समाज के युवाओं को नैतिक आचरण के पालन हेतु प्रेरित कर सकती है। वेद एक ऐसा सच्चा मार्गदर्शक ग्रन्थ है जिसमें नीति, धर्म और आध्यात्मिकता का सबसे अधिक प्रतिपादन किया है। वेदों में न केवल भूमि को ही धारण करने वाले गुणों का वर्णन मिलता है बल्कि अन्य वस्तुओं का भी वर्णन मिलता है। इस प्रकार हमारी सभ्यता का स्थायी समाधान वेद की शरण में है। वेद के साथ-साथ अन्य धार्मिक ग्रन्थ जैसे रामायण, श्रीरामचरितमानस, भगवद्गीता, कुरान, गुरूगन्थ साहिब इत्यादि में भी युवाओं तथा समाज को एक नैतिक दिशा देने वाला साहित्य निहित है जो युवाओं को सन्मार्ग पर लाकर देश तथा समाज को सही दिशा प्रदान करता है। वेदों में निहित ज्ञान से एक तथ्य सामने आता है कि हमारी इस पृथ्वी को धारण करने के लिए सत्य पर आधारित उच्च शिक्षा से प्राप्त सहिष्णुता, तेजस्विता जो वेद की शिक्षा से मिलती है, यह सब ही इस पृथ्वी को धारण करते हैं अर्थात् पृथ्वी के बाहर और अन्दर जो कुछ भी औषधि, वनस्पतियाँ, खनिज इत्यादि हैं वह सब वेद की शिक्षा के आधार पर हमें मिले हैं।
धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा की आवश्यकता के सम्बन्ध में कुछ तर्क निम्नवत हैं –
(1) धर्म सार्वभौमिक सत्य है, यह मनुष्य को मनुष्य बनाता है।
(2) धर्म मनुष्य को जीवन के वास्तविक सत्य से परिचित कराता है। उन्हें मानव जीवन के अंतिम उद्देश्य से परिचित कराता है और उसकी प्राप्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करता है ।
(3) धर्म मनुष्य के प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक तीनों पक्षों का विकास कर उसे नैतिकता की राह दिखाता है ।
(4) धर्म मनुष्य को सद्विचार और सदाचरण की ओर प्रवृत्त करता है। उनमें उचित आदतों का निर्माण करता है, उनका नैतिक एवं चारित्रिक विकास करता है।
(5) धर्म राष्ट्रीय एकता और अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध के विकास में सहायक है।
(6) धर्म मनुष्य को अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार और शोषण आदि बुराइयों से दूर रखता है।
(7) धर्म मनुष्य को शक्ति के दुरुपयोग से बचाता है और उन्हें मानव सेवा का सच्चा पाठ पढ़ाता है।
(8) धर्म मनुष्य को वास्तविक सुख और शान्ति प्रदान कराता है।
(9) बच्चों में धर्म के संस्कार प्रारम्भ से ही डाले जाने चाहिए और विद्यालयों की इस क्षेत्र में अपनी अहम भूमिका हो सकती है।
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