शांति शिक्षा में विवेकानन्द के योगदान के बारे में विवेचन कीजिए।
स्वामी विवेकानन्द जी का शान्ति शिक्षा में योगदान- स्वामी विवेकानन्द उग्र राष्ट्रवाद के बजाय अन्तर्राष्ट्रीयतावादी थे, उनके अन्तर्राष्ट्रीयतावाद और विश्वबन्धुत्व के बारे में शिकागो धर्म संसद के समाप्त होने पर कहा गया था- “जहाँ अन्य सब प्रतिनिधि अपने-अपने धर्म के ईश्वर की चर्चा करते रहे, वहाँ केवल विवेकानन्द जी ने ही सबके ईश्वर की बात की।”
स्वामी जी सभी धर्मों का सम्मान करते थे एवं विश्वबंधुत्व की भावना का प्रचार एवं प्रसार करते थे। स्वामी जी मानव-मानव के भेद को अस्वीकार करते थे। वह हिन्दू धर्म तथा भारत से असीम प्रेम करते थे, परन्तु वह अन्य किसी राष्ट्र या धर्म से घृणा नहीं करते थे। उन्होंने एक बार कहा था-
“निःसंदेह मुझे भारत से प्यार है, पर प्रत्येक दिन मेरी दृष्टि दुर्बल होती जाती है। हमारे लिए इंग्लैण्ड या अमरीका क्या है? हम तो उस ईश्वर के जिसे ब्रह्म कहते हैं। जड़ में पानी देने वाला क्या सारे वृक्ष को नहीं सींचता है।”
विवेकानन्द जी समाज, राष्ट्र एवं विश्व को एक सूत्र में बाँधने के लिए आध्यात्म को भी महत्त्वपूर्ण मानते हैं वह मानते थे कि अध्यात्म मानव को जब पूर्णता प्रदान करता है तो उसे स्वयं से स्वयं का बोध करता है तब वह सीमा में बँधा नहीं रहता। वह शांति के मार्ग पर अग्रसर होता है, उसके मन में एक ही विचार जोर मारता है, वह है-
“वसुधैव कुटुम्बकम्” अध्यात्म के द्वारा भी विश्व में शांति की स्थापना की जा सकती है, क्योंकि सभी उस परमात्मा के अंश हैं।
इस तरह से विवेकानंद ने विश्व में शांति स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान अपने विचारों द्वारा दिया, वह समस्त संसार के लोगों को अपना भाई एवं बहन मानते थे जो कि विश्व बन्धुव की भावना का द्योतक है।
स्वामी जी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य- स्वामी विवेकानंद के अनुसार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य देश प्रेम की भावना का विकास बालकों में करना है, उनके अनुसार- “यदि शिक्षा देश-प्रेम की प्रेरणा नहीं देती हैं, तो उसको राष्ट्रीय शिक्षा नहीं कहा जा सकता है। “
स्वामी जी के अनुसार निम्नवत् शिक्षा उद्देश्य हैं-
- शारीरिक विकास का उद्देश्य
- मानसिक एवं बौद्धिक विकास का उद्देश्य
- नैतिक एवं चारित्रिक विकास का उद्देश्य
- व्यावसायिक विकास का उद्देश्य
- समाज एवं राष्ट्रीय तथा विश्वबन्धुत्व का विकास का उद्देश्य
- अन्तर्निहित पूर्णता को प्राप्त करने का उद्देश्य
स्वामी जी का जीवन-दर्शन- स्वामी जी वेदान्त दर्शन के अद्वैतवाद का समर्थन करते थे। परन्तु इसके साथ-साथ वह वैयक्तिक दृष्टिकोण का भी समर्थन करते थे, इन्होंने बताया कि कला, विज्ञान, धर्म एक ही परम सत्य को व्यक्त करने के विभिन्न साधन हैं। एक स्थान पर स्वामी जी ने कहा-
“जब विज्ञान का शिक्षक यह कहता है कि समस्त वस्तुएँ एक ही शक्ति की द्योतक हैं, तो क्या आपको ईश्वर की आद नहीं आती, जिसके विषय में आपने उपनिषदों में पढ़ा है।” यही उनका अद्वैतवाद है, अद्वैतवाद को ये सार्वभौमिक विज्ञान धर्म (Universal Science Religion) कहते थे।
वह यह मानते थे, जीवन एक संघर्ष है, तथा इस संग्राम में व्यक्ति को निर्भीक होकर पथ पर आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि ईश्वरीय शक्ति द्वारा इस ब्रह्माण्ड का संचालन होता है एवं ईश्वर किसी के साथ बुरा नहीं होने देगा। व्यक्ति को कर्म करना चाहिए तथा समाज में लोगों की सेवा करनी चाहिए। उन्होंने लिखा है कि-
“जीवन संग्राम में वीर बनो। कहो, सबसे कहो, कि तुम निर्भय हो, भय का त्याग करो, क्योंकि मय मृत्यु हैं, भय पाप है, भय अधोलोक है, भय अधार्मिकता है, भय का जीवन में कोई स्थान नहीं है। “
स्वामी जी का शिक्षा दर्शन- स्वामी जी भारतीय दर्शन के पंडित एवं अद्वैत वेदान्त के पोषक थे, वे वेदान्त को व्यावहारिक रूप देने के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका सैद्धान्तिक रूप उनके द्वारा विचारित पुस्तकों में पढ़ा जा सकता है तथा इसका व्यावहारिक रूप ‘रामकृष्ण मिशन’ के जन कल्याणकारी कार्यों में देखा जा सकता है। स्वामी जी लिखते हैं-
“तुमको कार्य क्षेत्रों में व्याहारिक बनना पड़ेगा, सिद्धान्तों के ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है। “
विवेकानंद जी ऐसी शिक्षा व्यवस्था की वकालत करते हैं जिससे बालकों का चरित्र निर्माण हो। मस्तिष्क की शक्ति बढ़े। इनके अनुसार- “हमें उस शिक्षा की जरूरत है, जिसके द्वारा चरित्र का निर्माण होता है, मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है, बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है।”
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