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वंचित वर्ग एवं विकलांगों के लिए शिक्षा एवं पाठ्यक्रम के निरूपण पर प्रकाश डालिए।

वंचित वर्ग एवं विकलांगों के लिए शिक्षा एवं पाठ्यक्रम 
वंचित वर्ग एवं विकलांगों के लिए शिक्षा एवं पाठ्यक्रम 

वंचित वर्ग एवं विकलांगों के लिए शिक्षा एवं पाठ्यक्रम 

वंचित वर्ग की शिक्षा-समाज के वंचित वर्ग के प्रति हमारी उदासीनता इतनी अधिक है कि उनकी इच्छाओं का ध्यान नहीं दिया जाता है। आज भी बहुत से लोगों में अशिक्षा होने से उनके विचारों में रूढ़िवादिता का प्रवेश है। रूढ़िवादिता अधिकांशत: अनुसूचित जाति के लोगों में अधिक से अधिक होने का कारण अशिक्षा है। ये लोग पुराने विचारों, रीतियों को पीढ़ी दर पीढ़ी चलाना चाहते हैं। उन्हें छोड़ने में वे अपनी पुरानी पीढ़ी का अपमान समझते हैं। लेकिन शिक्षा के विकास के साथ धीरे-धीरे रूढ़िवादी विचारों में भी कमी आती जा रही है।

भारतीय समाज के वर्तमान पतन का एक कारण लड़कियों को शिक्षा से वंचित रखना था। जबकि एक तरफ हम सभी स्वतंत्रता का 65वाँ वर्ष मना रहे हैं और इस युग को हम “नारी जागरण युग” भी कहते हैं किन्तु वास्तव में अब तक नारियों की सामाजिक पराधीनता की बेड़ियाँ काटकर हम फेंकने में असफल रहे हैं। स्वतंत्र भारत के संविधान में सभी क्षेत्रों में समानता के अवसरों की गारण्टी के बावजूद अभी भी स्त्रियों को मानवीय रूपों में स्थान नहीं मिल पाया है। एक जाति विशेष में यह समस्या विकराल रूप धारण किये है जबकि स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस जाति विशेष की बालिकाओं को शिक्षित होने के लिए महिला शिक्षा समितियों की स्थापना की है। हरिजन बस्तियों में नगरपालिकाओं एवं स्थानीय संस्थाओं द्वारा प्राथमिक विद्यालय खोले गये, जिनमें इन्हें निःशुल्क शिक्षा देने का प्रावधान किया गया। इन संस्थानों के द्वारा सरकार ने हरिजनों के प्रति उदारता दिखलायी और अनेक नियम चलाकर उनकी शिक्षा को प्रत्येक सम्भव रीति से प्रोत्साहित किया। फिर भी अनुसूचित जाति की बालिका शिक्षा में वांछित प्रगति नहीं कर पायी। इस सम्बन्ध में अनेक कारणों जैसे निर्धनता एवं गृहकार्य के अतिरिक्त माता-पिता की अशिक्षा तथा बालिकाओं को शिक्षित करने के प्रति निरुत्साहपूर्ण दृष्टिकोण भी एक बहुत बड़ा कारण है।

अनुसूचित जाति के लोगों को समाज में प्रारम्भ से ही अति निम्न स्तर प्राप्त था। उन्हें शिक्षा प्रदान करने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं किया गया था। लेकिन नवीन समाज के निर्माण के साथ ही इनकी शिक्षा पर ध्यान तो दिया गया, पर आज भी वह स्थिति नहीं आ पायी है कि यह कहा जा सके कि शिक्षा की समस्त प्रक्रिया अनुसूचित जातियों में ठीक प्रकार से चल रही है। ये लोग अभी तक वर्षों से चले आ रहे परम्परागत जीवन के अनुसार ही जीवन व्यतीत करते हैं। ये अन्य भारतीयों की अपेक्षा अधिक अन्धविश्वासी एवं रूढ़िवादी हैं। सभ्य एवं शिक्षित समाज के सम्पर्क में कम आने के कारण ये लोग सांस्कृतिक वंचना के शिकार हो जाते हैं। वस्तुतः समाज के वंचित वर्ग के व्यक्ति अशिक्षित रह जाते हैं क्योंकि ये लोग शिक्षा के महत्त्व को नहीं समझते हैं। परिणाम यह है कि शिक्षा-प्रचार के लिए इनके क्षेत्र में समाज की ओर से सरकार को कोई विशेष सहयोग उपलब्ध नहीं होता है। प्रथम तो ये लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजना पसन्द नहीं करते हैं और यदि बच्चे जाते भी हैं तो इच्छानुसार उनका स्कूल जाना बन्द कर देते हैं। इसके अतिरिक्त यदि माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा दिलाना भी चाहते हैं तो निर्धनता के कारण वे ऐसा नहीं कर पाते हैं। अनुसूचित जाति के लोग भूमिहीन श्रमिक रहे हैं तथा समाज में अन्य वर्ग में गिने जाने वाले व्यक्तियों की निर्धनता के शिकार होते रहे हैं। निर्धनता के कारण परिवार के सभी सदस्यों को आवश्यक आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए एकजुट होकर कार्य करना पड़ता है। परिणामतः आज भी माता-पिता अपने बच्चों को घर पर कार्य में मदद करवाने के लिए रोक लेते हैं तथा कभी-कभी बीच में ही पढ़ने वाले बच्चों को स्कूल जाना बन्द करवा देते हैं। किन्हीं परिवारों में यदि अभिभावक स्कूल भेजने में सफल हो जाते हैं तो बच्चों को पढ़ाई में आवश्यक अध्ययन सामग्री उपलब्ध नहीं करा पाते, जिससे मजबूरी में उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ती है।

अनुसूचित जातियों का एक बड़ा वर्ग ग्रामों में निवास करता है। ग्रामों में आज भी स्कूलों का अभाव-सा है। पिछड़े इलाकों में तो कई गाँव के बीच एक स्कूल है। अभिभावक अधिक दूर स्कूल होने के कारण प्राय: अपने बच्चों को स्कूल भेजने से हिचकते हैं। किन्हीं स्थानों में विद्यालय भी होते हैं और अस्पृश्य जाति के लोग अपने बच्चों को विद्यालय भेजना शुरू कर देते हैं तो भी उचित सुविधाएँ व माहौल नहीं जुटा पाते हैं जिससे बच्चे कक्षा में असफल होने लगते हैं। जिससे अपव्यय होता है और बार-बार अवरोधन भी जिससे क्षुब्ध होकर ये अपने बच्चों को रोक लेते हैं और उनकी शिक्षा अधूरी रह जाती है। अनूसूचित जातियाँ अधिकतर क्षेत्रीय या प्रान्तीय भाषा जानती हैं। बहुत बड़े वर्ग की यह एक प्रमुख समस्या होती है क्योंकि उन्हें उनकी अपनी भाषा में पाठ्यक्रम उपलब्ध नहीं होता है और इसी कारण वह वास्तविक भाव व अर्थ समझ ही नहीं पाते हैं और शिक्षा के प्रति उनकी रुचि उत्पन्न न होने के कारण असफल हो जाते हैं। भाषा के साथ ही, पाठ्यक्रम भी उनकी रुचि का नहीं होता है। किताबों का पाठ्यक्रम सामान्य वर्ग व सामान्य स्तर का होता है परन्तु उनका घर-परिवार व आस-पास का माहौल वैसा नहीं होता।

विकलांगों के लिए शिक्षा

पाठ्यक्रम-

हम सभी प्रकार के विकलांगों के लिए एक ही प्रकार के पाठ्यक्रम का निर्धारण नहीं कर सकते हैं क्योंकि प्रत्येक प्रकार के विकलांगों की पृथक्-पृथक समस्याएँ तथा आवश्यकताएँ होती हैं। हम अन्धों के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम को लँगड़े, लूलों तथा लुंजों के लिए निर्धारित नहीं कर सकते हैं। इसी प्रकार लुंजों का पाठ्यक्रम बहरे तथा गूँगों के लिए अनुपयुक्त रहता है। अतः इन सभी के लिए हमें पृथक्-पृथक् पाठ्यक्रम तैयार करने की आवश्यकता है।

अन्धों के लिए पाठ्यक्रम

डॉ० फ्रैम्पटन के अनुसार अन्धों के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत वही उद्देश्य होने चाहिए जो सामान्य दृष्टि वालों के लिए होते हैं, अत: नेत्रहीन के लिए भी वही पाठ्यक्रम निर्धारित करना चाहिए जो सामान्य दृष्टि वालों के लिए होता है। किन्तु अन्धों के लिए कुछ न्यूनताओं को ध्यान में रखकर सामान्य दृष्टि वालों के पाठ्यक्रम में निम्नांकित विषयों को अतिरिक्त रूप से सम्मिलित करना चाहिए-

1. गृह विज्ञान

2. संगीत

3. शारीरिक कलाएँ तथा

4. गतिशीलता।

इस पाठ्यक्रम में ज्ञान प्रदान करने हेतु विद्यालयों को विशिष्ट पाठन विधियों को अपनाना पड़ेगा। जैसे- श्रवण इन्द्रियों द्वारा अनुभवार्जन कराना, स्पर्श तथा घ्राण शक्तियों का विकास करने के उपायों को अपनाना, ग्रामोफोन तथा रेडियो जैसे श्रवण सहायक सामग्री का प्रयोग करना, स्व-क्रियाओं द्वारा करके सीखना।

बहरों के लिए पाठ्यक्रम-

बहरे बालक सुन नहीं पाते हैं। इनकी श्रवण इन्द्रियाँ निष्क्रिय होती हैं। इनकी अन्य सभी इन्द्रियाँ पूर्णरूपेण विकसित होती हैं। किन्तु कोई-कोई बालक दुहरे अंगों से विफल होते हैं जैसे किसी के कान दूषित होने के साथ उसकी जीभ भी विकृत होती है। इन दोनों ही क्षेत्रों में हमें पृथक-पृथक पाठ्यक्रम निर्धारित करने की आवश्यकता है। इन दोनों ही प्रकार के बालकों के लिए केवल दृश्य साधनों से ही शिक्षा प्रदान की जा सकती है। इन बालकों को ऐसी शिक्षा व्यवस्था करने की आवश्यकता है जो सामान्य गुणों का विकास करने के अतिरिक्त उन्हें कुछ व्यावसायिक निपुणता प्रदान कर सके।

लंगड़े-लूलों की शिक्षा –

इन बालकों के पैरों में दोष होते हैं, वैसे ये ठीक प्रकार से देख तथा सुन सकते हैं। अतः इनके लिए सामान्य बालकों के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम ही निर्धारित करना चाहिए। सामान्य पाठ्यक्रम के अलावा इनकी शिक्षा के सम्बन्ध में विद्यालय को अग्रांकित व्यवस्थाएँ और करनी चाहिए-

1. घुमावदार कुर्सियों की व्यवस्था

2. हाथ दूषित बालकों के लिए बिजली के टंकण-यंत्र

3. विद्यालय भवन के उपयुक्त फर्शों का निर्माण आदि ।

मानसिक दुर्बलताग्रस्त बालकों के लिए पाठ्यक्रम-

मानसिक दुर्बलता से ग्रसित बालकों को इन तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं- (1) जड़ बुद्धि, (2) निम्न बुद्धि तथा (3) सामान्य से निम्न इन सबकी बौद्धिक विशेषताएँ पृथक-पृथक् होती हैं। अतः इन सबके लिए पृथक्-पृथक् पाठ्यक्रम निर्धारित करने की आवश्यकता है। जड़बुद्धि किसी भी प्रकार की सामान्य शिक्षा सरलतापूर्वक ग्रहण करने के योग्य नहीं होते हैं। अतः इनके पाठ्यक्रम में हस्तशिल्प को प्रमुखता दी जानी चाहिए। ये किसी भी प्रकार का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं, अत: उन्हें केवल स्थूल रूप से ही ज्ञान देना चाहिए। निम्न बुद्धि बालक विशेष प्रयासों से किसी स्तर विशेष तक सामान्य शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं किन्तु इनके लिए विशेष विद्यालयों तथा पाठन-विधियों की आवश्यकता होती है। इनके पाठ्यक्रम में सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त हस्तशिल्प भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। पाठन विधि में “करके सीखने” को अपनाना उपयुक्त है। इनको पढ़ाने के लिए अधिक से अधिक मात्रा में श्रव्य-दृश्य सामग्री का प्रयोग करना चाहिए। तीसरी श्रेणी के  बालकों को विशेष प्रयासों से उनके ही विद्यालयों में शिक्षा दी जा सकती है। अत: इन दोनों के समान पाठ्यक्रम हो सकते हैं। अन्तर केवल इतना रखना चाहिए कि इन बालकों से तार्किक चिन्तन की आशा कदापि नहीं करनी चाहिए।

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