पर्यावरणीय समस्याओं के प्रमुख दो भाग
ऐसे सभी कार्य एवं परिस्थितियाँ जिससे प्राकृतिक वातावरण दूषित या क्षयशील होता है, उनको पर्यावरणीय समस्या के अन्तर्गत रखा जाता है। इनसे मानव जीवन को संकट, आर्थिक क्षति तथा अन्य विविध समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पर्यावरणीय समस्याओं को प्रमुख दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-
(1) प्राकृतिक पर्यावरणीय समस्या (2) मनुष्यकृत पर्यावरणीय समस्या
(1) प्राकृतिक पर्यावरणीय समस्या- प्राकृतिक पर्यावरणीय समस्या पर्यावरण की वह स्थितियाँ हैं, जिनसे अनजाने ही मानव जीवन को क्षति होती है एवं विविध प्रकार की स्थायी या अस्थायी सम्पत्ति की क्षति होती है। इन्हें प्रकृति दत्त ‘होनी’ (Happenings) भी कहा जा सकता है। भाग्यवादी या धार्मिक भावना वाले लोग इसे ईश्वरीय प्रकोप (Godly Wrath) कहते हैं। इनमें बाढ़ (Floods), सूखा (Droughts), भूकम्प (Earthquakes), चक्रवात (Cyclones), बिजली (Lighting), कुहरा (Fog), बर्फ गिरना (Snowfall), पाला (Frost), ओलावृष्टि (Hail Rain), गर्म एवं शीत हवाएँ (Hot and cold waves), तूफान या बवण्डर (Toinadoes) आदि सम्मिलित हैं। इनका प्रकोप कब एवं कैसे होगा? इसका पूर्वानुमान सभी स्थितियों में अत्यन्त कठिन है। यद्यपि अब विज्ञा की प्रगति से इन संकटों को कम करने या कुछ सीमा तक नियंत्रित करने की संभावनाओं में वृद्धि हुई है। प्राकृतिक पर्यावरणीय संकटों के लिए मानवीय क्रियाएँ सिद्धान्त : कोई भूमिका नहीं निभाती हैं, किन्तु अब पर्यावरण विशेष कुछ संकटों के लिए मनुष्य को उत्तरदायी मानते हैं, जैसे अधिक वनों की कटाई से बाढ़ एवं सूखा की घटनाओं में वृद्धि या भूगर्भीय जल के अधिक दोहन से रेगिस्तानी क्षेत्रों में वृद्धि एवं भूकम्पों की संख्या में बढ़ोत्तरी आदि। जलवायु परिवर्तन में भी अब मनुष्य के क्रियाकलापों को जोड़ा जाने लगा है जिससे पाला, कुहरा एवं ओलावृष्टि जैसी भयंकर घटनाओं को मदद मिलती है।
इन संकटों को दैवीय प्रकोप के रूप में मानकर भी यह जानना अत्यन्त आवश्यक होता है कि किसी अमुक दुर्घटना की गम्भीरता क्या है? उसके मापन हेतु अलग-अलग घटनाओं के लिए अब अलग-अलग मापनी (Scales) बनाये गये हैं, लेकिन मोटे रूप से दो बातों से इनका मूल्यांकन (Assessment) होता है, प्रथम- इसका प्रभाव क्षेत्र कितना है? और द्वितीय इससे कितनी जान-माल की हानि हुई है?
(2) मनुष्यकृत पर्यावरणीय समस्या- इस विभाजन में हम उन बिन्दुओं का उल्लेख करेंगे जो स्पष्टतः किसी-न-किसी प्रकार से मनुष्य के क्रियाकलापों के कारण उत्पन्न हुए हैं एवं पर्यावरण को विकृत करने के उत्तरदायी हैं। चूँकि पृथ्वी पर मनुष्य की आबादी की गति में कोई विशेष अन्तर नहीं आ रहा है (यदि विकासशील देश इस ओर प्रयत्नशील भी हैं तो अविकसित तथा अर्द्ध विकासशील देशों. ने अपने उत्तरदायित्व का पूर्णतः निर्वाह न कर इस प्रयास को उतना सफल नहीं होने दिया है, जितनी अपेक्षा थी), अतः समस्याओं का समाधान का अंतिम लक्ष्य अर्थहीन बन गया है। केवल भोजनपूर्ति की बात ही लें तो हम देखेंगे कि प्रत्येक 12-13 वर्ष में 1 अरब आबादी की औसत वृद्धि हेतु कृषि उत्पादन आखिर कितना हो? यदि उत्पादन भी हो तो प्रत्येक देश के व्यक्ति तक उसे कैसे पहुंचाया जाए? इस केवल एक वस्तु की उपलब्धता से अनेक देशों की तो अर्थव्यवस्था ही गड़बड़ा गई हैं एवं वह देश प्रतिवर्ष निर्धन एवं अधिक निर्धन तथा बड़े समृद्ध देशों के कर्जदार हो गए हैं। समृद्ध देशों ने अवसर का लाभ उठाकर खाद्य पदार्थों के बदले उनके बहुमूल्य संसाधन जैसे- वृक्ष (लकड़ी), कई प्रकार के खनिज आदि लेकर उन्हें समाप्तप्राय कर दिया है। अतः बढ़ती आबादी ने अन्ततः पर्यावरण को ही नहीं वरन् समूचे प्रकृति तंत्र को ही झकझोर दिया है।
बढ़ती आबादी के साथ दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि हमने स्वयं अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की ही ओर ध्यान केन्द्रित किया हो, ऐसी बात नहीं है। हमने हर वस्तु का दुरुपयोग किया एवं आवश्यकता से अधिक प्राप्त करने की लालसा की। इससे कालान्तर में वस्तुओं की उपलब्धता में तो कमी आई ही, बल्कि साथ में अनेक लोगों के लिए अनुपलब्धता का कारण भी बन गई। जल विश्व में असीमित है और आसानी से उपलब्ध भी है, पर अपने गलत व्यवहार से हम उसे ठीक से उपयोग में नहीं ला पाये तथा जो कुछ भी उपलब्ध था, उसे प्रदूषित होने से भी नहीं बचा सके। अतः आज पूरे विश्व के अनेक देशों में पीने योग्य पानी का घोर संकट हो गया है। वैसे आज हमारे पास वह तकनीक भी उपलब्ध है, जिससे समुद्र के खारे पानी को भी पीने योग्य बनाया जा सकता है, लेकिन वह इतनी महँगी है कि इसी कारण अभी उस तरफ सोचना भी ठीक से शुरू नहीं किया है।
इस संदर्भ में दो समस्याएँ विश्व पटल पर उभर कर आ रही हैं, जो भावी मानव जीवन हेतु अत्यन्त चिन्ताजनक बात है-
- विश्व में प्रति व्यक्ति रहने के स्थान की उपलब्धता में संकट।
- विश्व में पीने योग्य जल की उपलब्धता संबंधी संकट।
अतएव हमें वैश्विक संदर्भ में चाहिए कि इन सभी तथ्यों पर ध्यान दें कि देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार उचित निर्णय लें। जिससे इस प्रकार का कोई वैश्विक संकट उत्पन्न न हो सके।
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