भारतीय मूल्य के निर्धारक एवं संस्कृति के स्वरूप का वर्णन कीजिए।
मूल्य का आशय- डॉ. सरीन के शब्दों में- “मूल्य परम्पराओं से प्राप्त वह समस्त चिन्तन एवं क्रियाकलाप जो मानव जीवन को निर्देशित करने का काम करते हैं, मूल्य कहे जाते हैं।” सुन्दर एवं सुखमय भविष्य के लिए मूल्यों की शिक्षा आवश्यक है। सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों के विकास के लिए शिक्षा को एक सशक्त साधन बनाने की आवश्यकता है जिसके लिए यह जरूरी है। कि ‘मूल्य-शिक्षा’ को पाठ्यक्रम में समायोजित किया जाय।
मानव जीवन का एक समयबद्ध व्यापक दर्शन है। मानव जीवन मूल्यों से भरा है। वह एक आध्यात्मिक जीवन है। मनुष्य के विवेक पर भौतिक पाश्चात्य संस्कृति के आक्रमण के कारण जीवन के पुरातन मूल्यों में हमारी आस्था समाप्त सी हो गयी है। वर्तमान समय में शोषण करना शोषक को शोभनीय लगता है। आधुनिक बन जाने की होड़ में शामिल भारतीय पश्चिमी मूल्यों से प्रभावित हो रहे हैं। आज के समय में आधुनिक एवं पुरातन मूल्यों में समन्वय लाने की चेष्टा करने की बहुत ही आवश्यकता है।
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को केवल विद्वान बनाना ही नहीं है, वरन् शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि व्यक्ति वर्तमान संघर्षपूर्ण वातावरण में अपने अस्तित्व को पहचानने में समर्थ हो एवं जो बालक को आत्म विश्वासी बना सकें।
भारतीय मूल्यों के निर्धारक एवं स्वरूप आज युग परिवर्तन के साथ-साथ मूल्यों में भी बदलाव हो रहे हैं। समय एवं परिस्थिति की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए दार्शनिकों एवं अन्य विद्वानों ने विविध प्रकार के मूल्यों को निश्चित किया है तथा उन्हें वर्गीकृत करने का प्रयत्न किया है। 1950 के दशक में भारतीय मूल्यों का निर्धारण निम्न प्रकार किया गया है-
(1) श्रेष्ठता के लिए आदर (2) आध्यात्मिक संवर्धन (3) मातृत्व (4) आनन्द की खोज (5) (6) मानव व्यक्तित्व के प्रति आदर भाव (7) सामान्य सहमति (8) समानता (9) व्यक्ति की नैतिक जिम्मेदारी (10) संस्थाओं को व्यक्ति के अधीन होना।
एन.एल. गुप्त के अनुसार- “हिन्दू, सिक्ख, जैन आदि धर्मों में 34 मूल्य उभयनिष्ठ हैं।” राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् नई दिल्ली ने शिक्षा में सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक 83 जीवन मूल्यों का उल्लेख किया है। परन्तु डॉ. अंजनी सरीन ने प्रमुख 21 जीवन मूल्यों को खोजकर शिक्षा के माध्यम से उन्हें अधिक प्रभावशाली बनाने का सुझाव दिया है।
संस्कृति शब्द से अभिप्राय साधारण अर्थ में उन अर्जित व्यवहारों एवं संस्कारों से लगाया जाता है जिन्हें प्राप्त हो जाने से मनुष्य परिमार्जित या सुसंस्कृत बन जाता है। वस्तुतः संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में साहित्य, कला, धर्म, मनोरंजन एवं आनन्द में प्राप्त होने वाले रहन-सहन और विचार के तरीकों में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है। संस्कृति के द्वारा ही किसी भी समाज एवं देश की पहचान होती है।
मनुष्य अपने विवेक के द्वारा विचार एवं कर्म के क्षेत्र में जो निर्माण करता है उसे ही हम संस्कृति कहते हैं। संस्कृति किसी निर्देशित मर्यादा में नहीं बाँधी जा सकती। वह अपरिमित मानवीय मर्यादा में मुखर होती है, बल्कि यह कहा जा सकता है। कि यह तभी सार्थक होती है।
संस्कृति के बहुत से रूप हैं। केवल ज्ञान एवं भौतिक प्रेरणा ही इसका कारण नहीं हो सकती। जो व्यक्ति दूसरे के दुःख से दुःखी हो उठता है चाहे वह बुद्ध हो या कार्ल मार्क्स, वह उस माँ के समान है जो अपने मुख के ग्रास को अपने पुत्र के मुँह में डालने में ही प्रसन्नता का अनुभव करती है।
भारतीय संस्कृति आधुनिक मानव को अपने पूर्वजों या इतिहास से प्राप्त एक ऐसी विरासत है जो सदियों से चली आ रही है। परन्तु वर्तमान भारतीय समाज में संस्कारों में अनेकानेक परिवर्तन होते दिखते हैं।
मूल्य धर्म एवं समाज- संस्कृति एवं कर्म के संबंध बहुत जटिल हैं। इतिहास पर दृष्टि डालने से ऐसा लगता है जैसे संस्कृति धर्म का ही अंग रही हैं। अपने मूल में धर्म संस्कृति से अलग है भी नहीं। इसे उलटकर भी कह सकते हैं क्योंकि धर्म शब्द बहुत प्राचीन है। उसके मुकाबले में संस्कृति अर्वाचीन है। जब धर्म का रूप व्यापक था, वह संगठित नहीं हुआ था, अर्थात् संप्रदाय नहीं बना था, एक जीवन पद्धति का परिचायक था। तब मानव जीवन का अर्थ देने वाले मूल्यों को ‘संस्कृति’ जैसा नाम अलग से देने की आवश्यकता ही नहीं थी और यह आवश्यकता अचानक किसी एक दिन ही पैदा हो गयी हो, ऐसा भी नहीं लगता। धर्म जब सिमटते-सिमटते खण्डों में बंटने लगा, लोग से अधिक परलोक में उसकी व्याप्ति होने लगी, मनुष्य उससे छूटने लगा एवं परमात्मा की सत्ता के प्रति उसका लगाव बढ़ने लगा तो धीरे-धीरे यह शब्द अस्तित्व में आया।
मनुष्य संस्कृति का सहारा लेता है क्योंकि संस्कृति मनुष्य को जोड़ती है किसी भी तरह तोडती नहीं। वह दूसरे के लिए जीने की प्रेरणा से रूप लेती हैं। संस्कृति में किसी परलोक एवं उसके अधिष्ठाता के लिए स्थान नहीं है। जब भी धर्म को, उसके मूल अर्थों में स्वीकार किया गया है तो संस्कृति एवं धर्म लगभग समानार्थी बन गए हैं। संगठित धर्म एवं मानव धर्म इनमें सदा तनाव की स्थिति रही है। लेकिन जिन धर्म का परिचय मनीषी खलिल जिब्रान ने दिया है, वह मानव धर्म ही है।
धर्म की भाषा निरन्तर खोज है। संस्कृति की भाषा सतत् आचरण है। संक्षेप में मूल्य के निर्धारक तत्त्वों को निम्न बिन्दुओं द्वारा समझा जा सकता है-
- मूल्य का सम्बन्ध पारिस्थितिकीय एवं जैविकीय होता है।
- भारतीय समाज में परम्परागत रूप से संस्कृति की उपादेयता अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- भारतीय जीवन पर परम्परागत मूल्यों का प्रभाव दर्शनीय होता है।
- सांस्कृतिक मूल्यों का सीधा सम्बन्ध मनुष्य के जीवन को सुयोग्य एवं सुसंगठित करता है।
- भारत जैसे राष्ट्र में धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध शान्ति एवं सद्भाव बनाये रखने का संदेश देता है।
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