भारत में लैंगिक असमानता के स्वरूप का वर्णन कीजिए।
भारत में लैंगिक असमानता के स्वरूप निम्न हैं-
(1) स्वास्थ्य एवं पोषण सम्बन्धी सुविधाओं में असमानता-
स्त्रियों में अस्वास्थ्य और कुपोषण की भी भारी समस्या है। बचपन से ही लड़कियों को वह पोषक पदार्थ नहीं दिए जाते जो लड़कों को दिए जाते हैं। वे स्वयं ही अपने शरीर की रक्षा और स्वास्थ्य पर बहुत कम ध्यान देती हैं। प्रायः घर में वही स्त्री, जो अपने पति और बच्चों के लिए अच्छे से अच्छा भोजन बनाती है, बाद में जो बच जाता है उसे खाती है और अगर बासी भोजन रखा है तो पहले उसे खाती है। मातृत्व का भार भी उस पर सबसे ज्यादा है। शारीरिक व्यायाम की तो उन्हें शिक्षा ही नहीं दी जाती। ज्यादातर उन्हें खून की कमी रहती है। एक ओर गरीब निर्धन स्त्रियों को तो उचित चिकित्सा एवं पोषण मिलना ही दुश्वार है तो, दूसरी ओर, धनी स्त्रियों के लिए समस्या इससे उलटी है। वहाँ अत्यधिक दवाइयों का सेवन या आलसी जीवन एक समस्या बन गया है।
ज्यादातर स्त्रियाँ असंगठित कार्य-क्षेत्र में लगी हैं जहाँ उनके स्वास्थ्य का कोई ध्यान नहीं रखा जाता। बहुत से व्यवसाय विशेषतः स्त्री के लिए हानिकारक हैं, परन्तु वहाँ भी उनकी देखभाल का कोई प्रबन्ध नहीं है। घर के मार-पीट के वातावरण और तनावभरी जिन्दगी के बीच स्त्री का स्वास्थ्य गिरता ही जाता है।
यहाँ परिवार नियोजन की दृष्टि से भी इस बात पर जोर दिया जाना जरूरी है कि हमारे समाज में परिवार नियोजन का मुख्य लक्ष्य स्त्रियों को ही बनाया गया है। विदेशों में जो जन्म-निरोध के तरीके खतरनाक घोषित किए जा चुके हैं, वे भी यहाँ चलाये जा रहे हैं। यदि हम नसबन्दी या बन्ध्याकरण के आँकड़ों को देखें तो पता चलेगा कि स्त्री बन्ध्याकरण का प्रतिशत कहीं ज्यादा ऊँचा है। लूप लगवाने से रक्त स्राव बढ़ जाता है और कभी-कभी गर्भाशय में अनेक रोग पैदा हो जाते हैं, परन्तु सेवन बहुत हानिकारक है। अब एक नया इंजेक्शन आविष्कृत हुआ है जो गर्भ निरोध करने में समर्थ प्रभावों की ओर भी इशारा करते हैं। अनेक स्त्री संगठन परिवार नियोजन की दिशा में स्त्रियों में जागरूकता लाने का प्रयास कर रहे हैं। यह एक सराहनीय बात है।
(2) शिक्षा में असमानता-
प्रारम्भिक वैदिक साहित्य से हमें यह पता चलता है कि वैदिक युग में लड़की का भी उपनयन संस्कार होता था और वह भी लड़कों की भाँति आश्रमों में शिक्षा के लिए जाती थी। धीरे-धीरे उसे शिक्षा से दूर किया जाता रहा और उसके लिए एकमात्र संस्कार विवाह ही माना जाने लगा। धर्मशास्त्रों तक आते-आते यह प्रक्रिया पूरी हो गई। मुस्लिम काल में तो स्त्री पूर्णतः निरक्षर थी। नई दिल्ली स्थित ‘भारतीय समाज विज्ञान अनुसन्धान परिषद्’ द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि 1971 ई. में साक्षर स्त्रियाँ 18.4 प्रतिशत थीं, 1981 ई. में यह प्रतिशत 25 था जबकि 1991 ई. तथा 2001 ई. की जनगणनाओं के अनुसार यह क्रमशः 39.42 तथा 54.16 प्रतिशत हो गया है। वास्तव में यह प्रगति नगरीय क्षेत्रों में उच्च और मध्यम वर्ग के बीच अधिक हुई है।
स्त्री शिक्षा से सम्बन्धित सबसे प्रमुख समस्या यह है कि प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर पर स्त्रियों के बीच पढ़ाई छोड़ने की दर बहुत ऊंची है। गरीब माँ-बाप लड़कियों को आगे पढ़ा नहीं पाते क्योंकि उन्हें या तो घरेलू काम-काज में सहायता देनी पड़ती है, अपने छोटे बहन- भाइयों को देखना पड़ता या बाहर धनोपार्जन में लगना पड़ता है। दूसरी समस्या यह है कि परम्परागत रूप से स्त्री की शिक्षा एक फिजूलखर्चा समझा जाता है क्योंकि अन्ततः उसका विवाह जाना है और उसे वहाँ भी गृहस्थी का ही कामकाज देखना है। तीसरे, घर से स्कूल तक यातायात के साधन की समस्या है कि वे वहाँ तक कैसे जाएँ और आएँ। चौथे, ज्यों-ज्यों वे बड़ी होने लगती हैं उनकी सुरक्षा का प्रश्न भी जटिल होता जाता है। अन्तिम रूप से, उनकी शिक्षा का पाठ्यक्रम भी जीवन वास्तविकताओं से दूर है। वह न तो उन्हें जीविकोपार्जन के लिए तैयार करता है और न एक आदर्श गृहिणी या माँ की भूमिका से ही जोड़ पाता है।
(3) छेड़-छाड़-
स्त्री की दैहिक समस्याओं में सबसे प्रमुख समस्या उनका छेड़-छाड़ का शिकार होना है। बसों में, बाजारों में, स्कूल और कॉलेजों के प्रांगणों में वे पुरुष द्वारा छेड़- छाड़ का शिकार होती हैं। उन पर आवाज कसना, उन्हें स्पर्श करने की चेष्टा करना, कुत्सित इशारा करना, चोंटना-नोचना एक आम बात बन गई है। उत्तर भारत यह समस्या ज्यादा विकराल है। राजधानी दिल्ली में इसके खिलाफ स्त्रियों ने प्रदर्शन भी किया था और गुण्डागर्दी के खिलाफ अभियान की माँग की थी, परन्तु यह रुकता ही नहीं। इक्का-दुक्का गुण्डे पीटे भी जाते हैं या पुलिस उन्हें पकड़ भी लेती है तो कानून की लम्बी प्रक्रिया तथा गवाही आदि की जटिलता व असुरक्षा प्रायः उन गुण्डों के बच निकलने का साधन बन जाते हैं।
इस भाँति अनेक रूपों में स्त्री यौन शोषण और उत्पीड़न की शिकार है। इसके विरुद्ध अभियान तभी सफल हो सकता है जब जागरण हो और स्त्रियाँ शिक्षित व आत्म-निर्भर हों। हमें बच्चों के लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा का तरीका भी बदलना होगा ताकि पुरुष स्त्रियों के प्रति इतनी कुण्ठाओं से ग्रसित न हों और स्त्रियाँ अपनी रक्षा करने में आप समर्थ हो सकें।
(4) कैबरे नृत्य-
नगरों में रेस्तराँ और होटलों में कैबरे नृत्य एक साधारण बात बनती जा रही है जहाँ नृत्य के नाम पर स्त्री के अंगों को उत्तेजक रूप में प्रदर्शन होता है, और कहीं-कहीं तो धीरे-धीरे नाचते हुए कपड़े उतारते हुए पूर्ण नग्नता का भी प्रदर्शन किया जाता है। शराब की गन्ध, सिगरेट के धुएँ और मध्यम रोशनी में खचाखच भरे हाल के बीच उत्तेजक म्यूजिक के साथ मांसल देह लिए थिरकती हुई स्त्री की उत्तेजक चेष्टाओं से सारा वातावरण ही कामुक बन उठता है। धन के लिए आज भी स्त्री उसी तरह नचाई जा रही है जैसे वह सदियों पहले नचाई जा रही थी।
(5) देवदासी-
आज भी कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश में येलम्मा और पोचम्मा के ऐसे मन्दिर हैं जहाँ बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष देवदासियों के रूप में लड़कियों को समर्पित किया जाता है। परम्परा की दृष्टि से उसका कार्य देवता की सेवा करना है, परन्तु वास्तव में वे पुजारी और गाँव के जमींदारों की यौन तृप्ति का शिकार बनती हैं और आखिर में वेश्यावृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाती हैं। धार्मिक अन्धविश्वास गरीब लोगों को ऐसी प्रथा का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं। कानून के द्वारा देवदासी प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया है परन्तु फिर भी स्वस्थ जनमत के अभाव में कानून इस प्रथा को रोकने में नपुंसक सिद्ध हो रहा है। अब स्त्री संगठन ही इस दिशा में जागरूक हुए हैं और वे देवदासियों के पुनर्वास का कार्य कर रहे हैं और इस प्रथा के खिलाफ जन आन्दोलन चला रहे हैं। उनके प्रयासों में आशा की किरण दिखाई देती है।
(5) चलचित्र-
अधिकांश चलचित्र स्त्री के यौन शोषण के ज्वलन्त उदाहरण हैं। व्यावसायिक रूप से चलचित्र की सफलता के लिए यह आवश्यक समझा जाता है कि उसमें अर्द्धनग्न स्त्री के द्वारा कैबरे के दृश्य और असहाय स्त्री पर पुरुष के पुरुषत्व की ताकत को प्रकट करते हुए क्रूर बलात्कार के दृश्य अवश्य हों। अधिकतर चलचित्र पुरुष प्रधान होते हैं। नायिका तो प्रदर्शन के लिए एक गुड़िया मात्र दिखाई जाती है। जब लम्बे कामुक दृश्यों के द्वारा दर्शकों की कामवासना को उत्तेजित किया जाता है तो स्त्री का अपमान भी होता है। सच तो यह है कि स्त्री की देह उसकी निजी पवित्र धरोहर है जिस पर उसी का निरपेक्ष अधिकार होना चाहिए और किन्हीं भी मजबूरियों या प्रलोभनों से उसका सार्वजनिक प्रदर्शन सारे राष्ट्र के लिए एक लज्जा का विषय है। इस दिशा में आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए।
(6) अश्लील साहित्य-
नग्न एवं अर्द्धनग्न स्त्री की तस्वीरों, काम चेष्टाओं और कुत्सित किस्सों पर आधारित अश्लील साहित्य भी बाजार में धन कमाने का एक सरल साधन बन गया है। अनेक पत्र-पत्रिकाएँ इस प्रकार की सामग्री द्वारा मानव की काम भावनाओं का शोषण करती हैं। अश्लील साहित्य किशोर-किशोरियों और युवाओं के नैतिक पतन का कारण बनता है और उन्हें गुमराह करता है। ऐसे साहित्य पर भी कानूनी रोक लगी है पर वह चोरी-छिपे बाजार में ऊंचे दामों पर मिल ही जाता है। इस व्यापार का आधार भी स्त्री का यौन शोषण ही है।
(7) विज्ञापन-
आज के व्यवसायों का मुख्य आधार विज्ञापन है और विज्ञापन स्त्री के अंग प्रदर्शन पर आधारित हैं। चाहे किसी वस्तु का नारी के जीवन से सीधा सम्बन्ध हो या न हो परन्तु उसके शरीर के उत्तेजक चित्रों के अभाव में विज्ञापन अधूरा समझा जाने लगा है। यही कारण है कि माडलिंग का व्यवसाय लोकप्रिय होता जा रहा है। यह विज्ञापन भी राष्ट्र के नैतिक पतन के लिए उत्तरदायी है। यह भी सिद्ध करता है कि स्त्री की देह एक वस्तु है जो सार्वजनिक रूप से विभिन्न प्रयोगों के लिए बाजार में उपलब्ध है। अनेक स्त्री संगठन ऐसे विज्ञापनों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं।
(8) वेश्यावृत्ति-
यह विश्व का सबसे पुराना व्यवसाय माना जाता है। शायद जब से संगठित समाज है तबसे वेश्यावृत्ति है। 1959 ई. में स्त्रियों में अनैतिक व्यापार के दमन का कानून पारित किया गया था परन्तु आज भी वेश्यावृत्ति संगठित रूप में पाई जाती है। प्रायः यह प्रचलित है-एक ओर तो परम्परागत वेश्याएँ हैं जो बाजार में कोठों पर धन कमाने के लिए देह का रूपों में व्यापार करती हैं और, दूसरी ओर वे श्वेतवस्त्रधारी तथाकथित सम्मानित स्त्रियाँ हैं जो धन के लिए या अन्य भौतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बड़े-बड़े होटलों में या निजी कोठी में या किसी अन्य संगठित अड्डे पर यौन-व्यापार करती हैं। इस दूसरी श्रेणी की स्त्रियों को कालगर्ल कहा जाता है।
(9) तलाक द्वारा उत्पीड़न-
पति-पत्नी के वैवाहिक सम्बन्धों का कानूनी दृष्टि से विच्छेद किया जाना तलाक है। तलाक के विभिन्न समुदायों में भिन्न-भिन्न आधार हैं परन्तु तलाक स्त्री के लिए पुरुषों की अपेक्षा अधिक कष्टकारी और आघातपूर्ण घटना है। अदालत की लम्बी प्रक्रिया, बच्चों का प्रश्न, स्वयं के जीवन निर्वाह का प्रश्न, सामाजिक प्रतिष्ठा और निन्दा का सामना यह सब स्त्री को भुगतना पड़ता है, पुरुष को नहीं। तलाक प्राप्त स्त्री भारतीय समाज में अप्रतिष्ठा का विषय है और उसके पुनर्विवाह की समस्या भी कठिन है। इसलिए स्त्री के लिए तलाक एक महंगा सौदा है। परन्तु ऐसी अनेक परिस्थितियाँ आ जाती हैं, जैसे पति द्वारा क्रूर यातना दिया जाना, उसका व्यभिचार में लिप्त होना या घर छोड़कर कहीं चले जाना आदि, जो तलाक को ही एकमात्र हल के रूप में प्रस्तुत करती हैं। इस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि स्त्रियों की पारस्परिक सहायता, स्त्री संगठनों का सहयोग और स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता ही उसे तलाक के अभिशाप से मुक्ति दिला सकती है।
(10) दहेज के कारण उत्पीड़न-
भारतीय समाज में स्त्री के लिए विवाह में दहेज अनिवार्य है। इसलिए दहेज की समस्या एक भयंकर समस्या बनती जा रही है। आए दिन समाचारपत्रों में दहेज की शिकार अभागी स्त्रियों के जलाने की घटनाओं का विवरण छपा होता है। पिछले कुछ वर्षों से ऐसी घटनाओं का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है और दहेज का समाज के प्रत्येक समुदाय में प्रसार भी होता जा रहा है। इसके विरुद्ध हाल ही में कठोर कानून भी बनाए गए हैं, पर पति के परिवार में अकेली स्त्री क्या करे? पिता या भाई भी कब तक विवाहित बेटी या बहन को अपने घर पर रखें। कहीं-कहीं आर्थिक कठिनाई से उन्हें मजबूर करती है कि वे उसे पति के घर वापस भेज दें और कहीं-कहीं सामाजिक निन्दा उन्हें मजबूर करती है कि वे बेटी के लालची ससुराल वालों के साथ समझौता करने का प्रयत्न करते रहें। परिणाम अभागी स्त्री की मृत्यु ही होता है। यह कुप्रथा तभी समाप्त की जा सकती है जब इसके विरुद्ध युवा लड़के-लड़कियों में एक जागरण चलाया जाए। लड़कियों को आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर बनाया जाए और उनमें यह संकल्प जाग उठे कि वे ऐसे व्यक्ति से विवाह नहीं करेंगी जो दहेज की माँग करता है। गांधीजी ने कहा था कि विवाह तो पारस्परिक प्रेम व सहमति पर आधारित होना चाहिए, न कि दहेज पर आधारित हृदयहीन विवाह। उनकी राय में लड़कियों का अविवाहित रह जाना अच्छा है बनिस्बत उन पुरुषों के साथ विवाह द्वारा अपमनित होने के जो दहेज की मांग करते हैं।
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