आलेखन/प्रारूपण की विशेषताएँ
प्रारूपण की विशेषताएँ- प्रारूपण एक कला है। अभ्यासपूर्वक ही इसे सीखा जा सकता है। प्रारूपण में एक ओर जहाँ शासन की नीतियों का दृढ़ता से प्रतिपादन किया जाता है, वहाँ जिसे पत्र लिखा जाता है, उसकी संतुष्टि का ध्यान भी रखा जाता है। अत: अच्छे प्रारूपण की कुछ विशेषताएँ अवश्य जाननी चाहिए और तैयार करते समय निम्न तथ्यों की ओर ध्यान देना चाहिए।
(1) सत्यता- प्रत्येक प्रारूपण में शुद्धता और वास्तविकता का होना आवश्यक है। प्रारूप तथ्याधारित होता है और उसमें कल्पना का प्रवेश नहीं होता। तथ्यों की सत्यता में छोटी-सी भूल सरकार और सम्बन्धित कर्मचारी को कठिनाई में डाल सकती है।
(2) पूर्णता- प्रारूपण में पूर्णता होनी चाहिए। उसमें सभी सूचनाएँ, सन्दर्भ, निर्देश, पत्र क्रमांक, तिथि आदि होनी चाहिए। वर्तमान में कार्यालयों में टिप्पणी के समान प्रारूपण के भी छपे प्रपत्र आते हैं। सामान्यतया प्रारूपण उन्हीं पर तैयार करने चाहिए।
(3) तथ्यात्मकता- प्रारूप स्पष्ट और सन्देहरहित होना चाहिए। अत: पूर्व टिप्पणियों, आदेशों अथवा तत्सम्बन्धित प्रेषित पूर्व पत्रों का पूर्ण विवरण होना चाहिए, जिससे प्रारूपण के विषय में सम्बन्धित वस्तुस्थिति स्पष्ट रहे।
(4) संक्षिप्ता- प्रारूपण में जो भी बात कही जाये वह बहुत संक्षेप में हो। इसके लिए भाषा पर अधिकार और सारलेखन की प्रविधि में पारंगत होना आवश्यक है। अनावश्यक विस्तार से विषय उलझ जाता है और भ्रम की स्थिति बन जाती है।
(5) शिष्टता- शिष्टाचार पत्र का आवश्यक गुण है। सरकारी पत्रों के द्वारा कभी-कभी मानसिक उत्पीड़न से सम्बन्धित आदेश भी निर्गत होते हैं।
(6) भाषागत सजगता- किसी भी कार्यालय की प्रतिष्ठा अच्छी भाषा में लिखे गये प्रारूपण से जुड़ी होती है, इसलिए प्रारूपण में भाषा और व्याकरण का विशेष ध्यान रखा जाता है साफ शब्दों में भाषा व्याकरण सम्मत हो स्पष्ट हो, संक्षिप्त संयत और विनग्र हो! प्रारूपण का कार्य चूँकि नपी-तुली भाषा में किया जाता है, अतः यहाँ कवित्वपूर्ण भाषा का प्रयोग वांछनीय नहीं है। निरर्थक, अतिशयोक्तिपूर्ण शब्दावली, कूट भाषा-प्रारूप के स्वरूप को ठेस पहुँचाती है। भाषा ऐसी हो, जिससे प्रारूप में व्यक्त विचार आसानी से समझे जा सकें। कुल मिलाकर पद-विन्यास, वाक्य विन्यास तथा भावो-विचारों का एक-दूसरे से ऐसा सगुफन हो कि प्रारूप पाठक या प्रेषिती के ऊपर अपना असर दिखाए।
(7) शैली और शिल्प- जिस प्रकार प्रारूपण का भाषा में भ्रमपूर्ण, द्विअर्थक, विवादास्पद तथा लोकोक्तियों, कहावतों, मुहावरों का प्रयोग निषिद्ध हैं, ठीक उसी तरह से असंगत और अशिष्ट शैली का प्रयोग यहाँ वर्जित है। शैली प्रभादोत्पादक हो, लचरता उसमें न हो। छोटे-छोटे और टुकड़ों में बँटे वाक्यों में विशिष्ट शब्दावली शैली में लिपटा प्रारूप सुन्दर माना जाता है। संस्कृत के बाणभट्ट या निराला की ‘राम की शक्ति की पूजा’ वाली शैली में निर्मित प्रारूप सभी के लिए दुबोध सिद्ध होगा।
(8) विषयगत सजगता- आलेखन की निर्मिति में मूल विषय पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि मूल विषय की जगह कोई अन्य गौण विषय प्रारूपण में स्थान पा जाये, इससे एक नया संकट आ सकता है और यदि मूल विषय पर ही कोई मूल बिन्दु ही न छूट जाये।
(9) अनावश्यक विस्तार का ध्यान- प्रारूप का निचोड़ एक निश्चित ‘फ्रेम’ के भीतर होना चाहिए। बेजाँ और अनावश्यक विस्तार प्रारूप को बोझिल और दुर्बोध बनाता है। चूंकि हर कार्यालय बड़ी-बड़ी फाइलों हिमालय पर बैठे हैं वहाँ काम की अधिकता है, पहले से ही बहुत से काम लम्बित हैं, अत: अनावश्यक विस्तार भार से लदी-हाँफती यदि कोई नई फाइल किसी अधिकारी के पास जायेगी तो वह उसे तनाव ही पैदा करेगी इसलिए मूल कथ्य को संक्षिप्त रूप से लिखना चाहिए लेकिन संक्षिप्तीकरण का यह अर्थ नहीं है कि कोई जरूरी मुद्दा ही प्रारूप में जाने से छूट जाये।
(10) अनुच्छेदों की संख्या और उनका लघु उप शीर्षक- यदि प्रारूप छोटा है, तब वहाँ अनुच्छेदों का टुकड़ियाव बहुत जरूरी नहीं है, किन्तु बड़े प्रारूप में विषय नई बात, नये-सवाल और समधान की दृष्टि के अनुच्छेदों को आंकड़ों में बाँटना आवश्यक होता है। दरअसल, अधिकारी को अनुच्छेदों में बंटा प्रारूप पढ़ने में सहज लगाता है, उसे निर्णय करने में सुविधा होती है। यदि प्रारूप बनाने वाला चाहे तो अपनी और प्रेषिती की सुविधा के लिए हर अनुच्छेद को संदर्भानुसार लघु उपशीर्षक दे सकता है। इसके बाद अगली सावधानी यह कि पहले अनुच्छेद पर संख्या नहीं डाली जाती। बाद के अनुच्छेदों को सुविधा की दृष्टि से 2,3,4 या A.B.C. या क ख ग संख्या में क्रमबद्ध किया जा सकता है, लेकिन अनुच्छेदों और उनमें व्यक्त भावों का क्रम कभी टूटना नहीं चाहिए।
(11) पदनाम तथा कार्यालय का नाम- अच्छे प्रारूप की प्रस्तुती में कई तरह की औपचारिकताएँ और टोने-टोटके करने पड़ते हैं। इनके प्रयोग में लापरवाही से प्रारूप का चेहरा खंडित हो सकता है, अत: प्रारूप बनाते समय संख्या, कार्यालय का नाम, पता, प्रेषण की तिथि, विषय, संबोधन, स्वनिर्देश, भेजने वाले के हस्ताक्षर, नाम, पदनाम, पता अनुलग्मक तथा पृष्ठांकन आदि का क्रमबद्ध उल्लेख करना आवश्यक होता है। अर्द्धसरकारी पत्र के अलावा कोई भी सरकारी पत्र अधिकारी के नाम से नहीं भेजना चाहिए। इस तरह के पत्र सदैव पदनाम और कार्यालय के नाम से ही भेजे जाते हैं।
Important Links
- पारिवारिक या व्यवहारिक पत्र पर लेख | Articles on family and Practical Letter
- व्यावसायिक पत्र की विशेषताओं का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- व्यावसायिक पत्र के स्वरूप एंव इसके अंग | Forms of Business Letter and its Parts
- व्यावसायिक पत्र की विशेषताएँ | Features of Business Letter in Hindi
- व्यावसायिक पत्र-लेखन क्या हैं? व्यावसायिक पत्र के महत्त्व एवं उद्देश्य
- आधुनिककालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ | हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का परिचय
- रीतिकाल की समान्य प्रवृत्तियाँ | हिन्दी के रीतिबद्ध कवियों की काव्य प्रवृत्तियाँ
- कृष्ण काव्य धारा की विशेषतायें | कृष्ण काव्य धारा की सामान्य प्रवृत्तियाँ
- सगुण भक्ति काव्य धारा की विशेषताएं | सगुण भक्ति काव्य धारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
- सन्त काव्य की प्रमुख सामान्य प्रवृत्तियां/विशेषताएं
- आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ/आदिकाल की विशेषताएं
- राम काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ | रामकाव्य की प्रमुख विशेषताएँ
- सूफ़ी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
- संतकाव्य धारा की विशेषताएँ | संत काव्य धारा की प्रमुख प्रवृत्तियां
- भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ | स्वर्ण युग की विशेषताएँ
- आदिकाल की रचनाएँ एवं रचनाकार | आदिकाल के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ
- आदिकालीन साहित्य प्रवृत्तियाँ और उपलब्धियाँ
- हिंदी भाषा के विविध रूप – राष्ट्रभाषा और लोकभाषा में अन्तर
- हिन्दी के भाषा के विकास में अपभ्रंश के योगदान का वर्णन कीजिये।
- हिन्दी की मूल आकर भाषा का अर्थ
- Hindi Bhasha Aur Uska Vikas | हिन्दी भाषा के विकास पर संक्षिप्त लेख लिखिये।
- हिंदी भाषा एवं हिन्दी शब्द की उत्पत्ति, प्रयोग, उद्भव, उत्पत्ति, विकास, अर्थ,
- डॉ. जयभगवान गोयल का जीवन परिचय, रचनाएँ, साहित्यिक परिचय, तथा भाषा-शैली
- मलयज का जीवन परिचय, रचनाएँ, साहित्यिक परिचय, तथा भाषा-शैली
Disclaimer