वन-संरक्षण पर निबंध
प्रस्तावना- बाढ़े, जनसंख्या समस्याएँ एवं अन्य पर्यावरणीय खतरे हर दिन बढ़ रहे हैं। हमारे देश में पर्यावरण प्रदूषण के खतरे कुछ अत्यधिक औद्योगीकृत देशों जितने तो नहीं बढ़े हैं, लेकिन हम उस सीमा की ओर अग्रसर हैं। आज नदियों एवं झरनों के जलागम क्षेत्रों पर हरियाली का पर्याप्त आवरण नहीं पाया जाता। जनसंख्या वृद्धि के कारण हमारे पहाड़ी वनों का अन्धाधुन्ध दोहन जारी है। वनों की कटाई-छंटाई, चारा तथा दावनलो के कारण भूक्षरण, बाढ़, पौध-प्रजातियों का खात्मा आदि के रूप में देश को बहुत क्षति पहुंच रही है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश ने करीब चार लाख हेक्टेयर से अधिक वनसम्पदा खो दी है, जो पुनर्नवीकरणीय ऊर्जा का मूल्यवान स्रोत है। खेती के लिए अतिरिक्त जमीन उपलब्ध कराने के लिए भी अनेक वन काटे गए हैं, जबकि खेती को अधिक व्यापक बनाए जाने के स्थान पर उसे न्याय साधक बनाना आवश्यक है। सिंचाई एवं ऊर्जा परियोजनाओं के कारण, उच्च विद्युतवाहक लाइनों के लिए जगह बनाने एवं उजड़े हुए लोगों के पुनर्वसन हेतु, कालोनियों एवं कमांड एरिया के विकास के उद्देश्य से वन काटे गए हैं।
अभी हाल ही में पर्यावरण नियोजन तथा समन्वय की एक राष्ट्रीय समिति गठित की गयी है। इसका उद्देश्य राज्यों द्वारा योजना आयोग की अनुमति के लिए भेजी गयी परियोजनाओं की परिस्थितियों के दृष्टिकोण से छानबीन करना है।
वनों के महत्त्व- वनों तथा हरियाली के क्या-क्या लाभ हैं, यह बात हम सभी भली-भाँति जानते हैं। मौसम की स्थितियों में सन्तुलन लाना, झरनों का प्रवाह बनाए रखना, जमीन को कटाव से रोकना, परिस्थितिकीय प्रणाली को आमतौर पर बनाए रखना सभी वनों की हरियाली पर निर्भर करता है। गहरी जड़ों वाले पेड़ों से युक्त वन भूमि, प्रति वर्ग किलोमीटर 50,000 से 2,00,000 न्यूसेक तक पानी की संग्रह करने की क्षमता रखती है। इन सबके अतिरिक्त भी वनों के लाभ हैं। जंगल जितना भी घना एवं ऊँचा होता है, उतनी ही शोर जज्च करने की क्षमता रखता है। गाँवों में रहने वाले लोगों को दैनिक इस्तेमाल के लिए ईंधन चाहिए। उनके पशुओं को चारा, देहाती घरों के लिए छोटी इमारती, लकड़ी, खेती के औजारों के लिए लकड़ी और कई तरह के इस्तेमाल के लिए बाँस भी जरूरी है।
सौभाग्य से परिस्थितिक परिणामों के विषय में जागरुकता तेजी से बढ़ रही है तथा पर्यावरण के बारे में चिन्तवन से समूची दुनिया में, वन विकास नीतियों पर अच्छा प्रभाव बढ़ रहा है। भारत सरकार ने गंगा, ब्रह्मपुत्र, बराक क्षेत्रों के लिए एक कृषि-वानिकी कार्यदल बनाकर ठीक ही किया है। इसके लिए समर्पित तथा अनुभवी व्यक्तियों की सेवाएँ आवश्यक है।
भारत का वन क्षेत्रफल- भारत का वन क्षेत्र लगभग 23 प्रतिशत है जो विश्व औसत से 10 प्रतिशत कम है। स्वाधीनता के बाद हम 41 करोड़ हेक्टर वनभूमि खो चुके हैं। अधिक ताप संयन्त्रों की स्थापना, नाभिकीय ऊर्जा संयन्त्रों भोजन का आयोजन तथा ऊर्जा को बढ़ावा मिलना चाहिए ताकि प्राकृतिक वन सम्पदा को बचाया जा सके ।
आज यह सबसे अधिक चिन्ता का विषय बन चुका है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों से वनों की संख्या भयावह गति से घट रही है। हमारे देश में अन्तिम संस्कार विधि के लिए ही हर वर्ष चालीस टन लकड़ी की आवश्यकता होती है। लगभग 8 करोड़ टन मूल्यवान गोवर वैकल्पिक ईंधन के अभाव में फूंक दिया जाता है।
इस सामग्री के उपयोग को युक्तिसंगत बनाने के लिए ऊर्जा वृक्षों का संवर्धन वेहद जरूरी है। कैसुआरिना एवं यूकेलिप्टस के ऐसे ऊर्जा वृक्षों का आरोपण कर्नाटक में बंगलौर एवं कोलार के लोगों द्वारा किया गया देखा जा सकता है। सरकार द्वारा व्यापक क्षेत्र में वृक्षारोपण किया जाता है। किन्तु विशिष्ट उद्योगों के लिए लकड़ी को सुरक्षित रखा जाता है, जबकि आम आदमी ईंधन
के लिए तरसता रहता है।
भारतवर्ष के विशाल इलाके खानों के अन्तर्गत आते हैं। 1977 में भारतवर्ष 5097 खानें चल रही थी, जिनमें से 4564 गैर कोयला खनिजों की थी तथा 533 कोयला खादानें ली। इनमें 7,45,000 लोग काम कर रहे थे। खुली खादानों में प्रदूषण तथा स्वास्थ्य खतरों की समस्याएँ होती हैं, भूगर्भस्थ खदानों के अवशिष्ट की निकासी भी एक बड़ी समस्या होती है।
आज हमारे देश में वन्य जीवन संवर्धन की दिशा में प्रशंसनीय कार्य हुआ है। शिकार पर रोक, अभयारण्यों की स्थापना, राष्ट्रीय उद्यान तथा ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ जैसी परियोजनाओं के अच्छे परिणाम सामने आए हैं।
उपसंहार- वनों के संरक्षण के लिए हमारे देश में प्रौद्योगिकी एवं विशेषता की कोई कमी नहीं है। एशिया पैसिफिक क्षेत्र में वन-विनाश से सन्तुलन बिगड़ा है तथा साधनों में निर्माण की क्षमता कम हुई है। अतः एक जागरुक विकासशील देश होने के नाते भारत से यह आशा की जाती है कि वह सन्तुलन को स्थापित करने में न केवल योगदान देगा, बल्कि प्राकृतिक संसाधन सम्पदा को और भी अधिक विकसित करेगा।
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