भारतवर्ष में लघु व कुटीर उद्योग व्यवसाय पर निबंध
प्रस्तावना- किसी भी देश में सभी उद्योग एक जैसे नहीं होते। कुछ उद्योग बहुत विशाल पूँजी एवं विद्युत श्रम-शक्ति से चलाए जाते हैं, तो कुछ मध्यम पूँजी और मध्यम श्रम-शक्ति से तथा कुछ सामान्य पूँजी तथा अल्प श्रमशक्ति से। इसी आधार पर उद्योगों का विभाजन वृहत् उद्योग, मध्यम उद्योग तथा लघु उद्योग के रूप में किया जा सकता है।
लघु व कुटीर उद्योग का अर्थ- लघु व कुटीर उद्योगों से तात्पर्य ऐसे घरेलू उद्योगों से है जिसे अधिक पूँजी के अभाव में भी अपने पारिवारिक सदस्यों की सहायता से, अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति भी थोड़े से स्थान में ही, बिजली से या बिजली के बिना भी मुख्यतः हाथ से या छोटे-मोटे यन्त्रों की मदद से चला सकते हैं। घर में ही चल सकने के कारण इन्हें गृहोद्योग या हस्तशिल्प भी कहा जा सकता है। ये कुटीर उद्योग कृषि के पूरक रूप में होते हैं, जैसे रस्सी बाँटना, टोकरे बनाना, अचार, पापड़ बनाना, रुई की बत्तियाँ बनाना, चादर काढ़ना, मिट्टी के खिलौने बनाना इत्यादि । पूर्वकालीन कुटीर उद्योगों में गाँवों के कुम्हार, मोची, तेली, जुलाहे, बढ़ई आदि के कार्य आते थे। शहरों में पूर्णकालीन कुटीर उद्योगों में लकड़ी या कागज़ के खिलौने बनाना, पत्थर की मूर्तियाँ बनाना, बर्तन बनाना, करघे पर कपड़ा बुनना, मोजे-बनियान बनाना इत्यादि आता है।
अर्थव्यवस्था में लघु कुटीर उद्योगों का महत्त्व- किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में उसके कुटीर उद्योगों का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान होता है इस बात को सबसे ज्वलन्त उदाहरण ‘जापान’ है। जापान की अर्थव्यवस्था द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पूर्णतया जर्जर हो गई थी, किन्तु ‘हिरोशिमा’ एवं ‘नागासाकी’ की चिन्ता से उठकर जापान आज इतने कम समय में ही संसार का उन्नत राष्ट्र बन चुका है और इसका श्रेय जापानियों की मेहनत तथा वहाँ के कुटीर उद्योगों का विकास है। कुटीर उद्योगों के कुछ लाभ इस प्रकार हैं-
1. आत्मानिर्भरता- कुटीर उद्योग व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाते हैं। जिससे उसका आत्मविश्वास बढ़ता है। महात्मा गाँधी ने इन उद्योगों के महत्त्व को समझा था तथा कुटीर उद्योग अपनाने पर बल दिया था। महात्मा गाँधी स्वयं ही चरखा चलाकर सूत कातते थे और अपने वस्त्र बनाते थे। बापू जी ने राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम में जब विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया तब इसके साथ ही उन्होंने अपने देश के कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने पर बल दिया।
2. रोजगार प्राप्ति- भारत की प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या को रोजगार सुलभ कराने के लिए कुटीर उद्योग बहुत महत्त्वपूर्ण साधन है। इस समय करोड़ो लोग इन उद्योगों के माध्यम से अपनी आजीविका चला रहे हैं। पूर्ण रोजगार के अतिरिक्त कुटीर उद्योग ऐसे लोगों को अंशकालीन रोजगार भी देते हैं जो मुख्यतः मौसमी कार्यों में लगे हुए हैं। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में जहाँ श्रमशक्ति का इतना महत्त्व हो, कुटीर उद्योग वरदान ही है।
3. ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार- कृषि में लगे व्यक्ति कुछ महीनों के लिए खाली हो जाते हैं और यदि वे तब कुटीर उद्योगों में लग जाएँ तो उनकी आय में वृद्धि होने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार होता है तथा उन्हें नया काम सीखने का भी वसर मिल जाता है, जिससे वे खाली समय का सही प्रयोग कर पाते हैं।
4. कम पूँजी की आवश्यकता- बड़े उद्योग धन्धों की स्थापना के लिए बहुत पैसा होना चाहिए किन्तु लघु कुटीर उद्योग कम पैसे में ही चलाए जा सकते हैं तथा उनमें हानि होने की भी गुंजाइश नहीं होती।
5. ग्रामीण स्त्रियों के समय का सदुपयोग- गाँवों में औरतें प्रायः घर तक ही सीमित रहती है इसलिए खाली समय में वे एक दूसरे की बुराई करती है, किन्तु लघु कुटीर उद्योगों के माध्यम से उनके समय का भी सदुपयोग हो जाता है और अतिरिक्त आय होने से उनके जीवन-स्तर में भी सुधार आता है।
6. उत्पादन में शीघ्रता- बड़े उद्योगों की स्थापना में पूँजी तथा स्थान की अधिकता अपेक्षित होने से उनका उत्पादन विलम्ब से प्रारम्भ होता है, जबकि कुटीर उद्योग घर पर ही संचालित होने से उनका उत्पादन शीघ्र ही प्रारम्भ हो जाता है, जिससे वस्तुओं की आपूर्ति बढ़ने से महँगाई को रोकने में सहायता मिलती है।
7. विशेष दक्षता की आवश्यकता नहीं- कुटीर उद्योग प्रायः परम्परागत चालित होते हैं। बच्चे घर में अपने माता-पिता तथा बड़े भाई-बहनों को कार्य करते देख स्वयं ही सीख जाते हैं। कुटीर उद्योग के लिए कोई विशेष तकनीकी ज्ञान अपेक्षित न होने से शिक्षित-अशिक्षित सभी श्रेणियों के व्यक्ति इससे लाभान्वित हो सकते हैं।
8. पूँजीवाद की अपेक्षा समाजवाद की ओर अग्रसर- बड़े उद्योगों में पूँजी कुछ ही हाथों में केन्द्रित हो जाने से आर्थिक विषमता बढ़ जाती है, जबकि कुटीर उद्योग-धन्धों में स्वामित्व सभी व्यक्तियों के पास होता है, जिससे आर्थिक असमानता दूर होती है तथा आर्थिक समानता होने पर समाजवाद का लक्ष्य बड़ी आसानी से पूर्ण हो जाता है।
इन सबके अतिरिक्त भी लघु कुटीर उद्योगों के अनगिनत लाभ है। कुटीर उद्योगों के परम्परागत रूप से चले आने के कारण उनके उत्पादनों की गुणवत्ता सुनिश्चित होती है। प्राचीनकाल में ‘ढाका’ में निर्मित ‘मलमल’ इतनी बारीक होती थी कि पूरा थान एक अंगूठी के बीच में से निकलने की क्षमता रखता था। वास्तव में कुटीर उद्योगों द्वारा ही प्रतिभा तथा कला में निखार आता है। पर्यावरण के संरक्षण में भी कुटीर उद्योगों का योगदान पूर्णतया वांछनीय है। मशीनों के अभाव में कार्य सम्पूर्ण होने के कारण ऐसे उद्योगों में ध्वनि तथा वायु प्रदूषण आदि फैलने की कोई गुंजाइश नहीं होती। देश के प्रत्येक भाग में फैले होने के कारण कुटीर उद्योगों से औद्योगिक विकेन्द्रीकरण में मदद मिलती है।
लघु तथा कुटीर उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ केवल उपभोक्ता वस्तुएँ ही नहीं होती, अपितु उनसे छोटे छोटे औजार आदि ऐसी वस्तुएँ भी बनाई जाती हैं, जो बड़े उद्योगों के लिए भी सहायक सिद्ध होती है। इन उद्योगों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इन उद्योगों के चलने से हमारे देश की मुद्रा हमारे यहाँ ही रहती है जबकि बड़े उद्योगों के लिए यन्त्र तथा अन्य तकनीकी वस्तुएँ आयात करनी पड़ती है, जिनके लिए बहुमूल्य देसी मुद्रा व्यय करनी पड़ती है। कुटीर उद्योगों में आयात की आवश्यकता न होने में कारण देश का भुगतान-सन्तुलन सुधरता है, साथ ही कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं के निर्यात से विदेशी मुद्रा का अर्जन भी होता है। आज भी भारत में कुटीर तथा लघु उद्योगों के माल का विदेशों में निर्यात होता है, जो कुल भारतीय निर्यात का लगभग तीसरा हिस्सा है।
प्राचीन समय में कुटीर उद्योगों का विकास-प्राचीन भारत अपने लघु कुटीर उद्योगों के लिए प्रसिद्ध था और यहाँ की बनी वस्तुएँ दूर दूर तक प्रसिद्ध थी तभी तो ‘भारत को सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। फिर अंग्रेजों के आने के बाद इन उद्योगों का महत्त्व घटने लगा क्योंकि अंग्रेज तो अपने माल को खपाने के लिए ऐसे उद्योगों का नष्ट करना चाहते थे किन्तु अथक प्रयासों के बल पर पुनः भारतीयों का ध्यान इन उद्योगों की ओर गया। महात्मा गाँधी के आज कुटीर उद्योगों की प्रगति जोरों पर है। पंजाब के दरी एवं मोजा उद्योग, मरठ की कैंची तथा खेल का सामान बनाने के उद्योग, बनारस की साड़ी उद्योग, कानपुर व आगरा का जूता उद्योग, फिरोजाबाद का कांच उद्योग इन्हीं लघु-कुटीर उद्योगों के कारण जग-प्रसिद्ध है।
उपसंहार- स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् इन उद्योगों के विकास के लिए सरकार की ओर से महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। भारतीय हस्तकला विकास निगम, खादी ग्रामोद्योग उद्योग, लघु-उद्योग सेवा संस्थान, राष्ट्रीय उद्योग निगम आदि की भी स्थापना हुई है। ऐसा विश्वास है कि भविष्य में इस दिशा में और अधिक प्रगति होगी जिससे पूरे भारत की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी।
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