स्वाबलम्बन (आत्म निर्भरता) पर निबंध
प्रस्तावना- स्वाबलम्बन अर्थात् ‘आत्मनिर्भरता’ ही व्यक्ति, समाज, देश, घर, परिवार, दुनिया सब के सर्वांगीण विकास का मूलमन्त्र हैं। स्वाबलम्बन ही वीरों तथा कर्मयोगियों का भगवान है। जीवन का सच्चा शृंगार तथा कर्तव्य श्रृंखला की प्रथम कड़ी स्वाबलम्बन ही है। आत्मनिर्भरता शौर्य, शक्ति तथा समृद्धि का साधन हैं। स्वाबलम्बन से ही मनुष्य को मानसिक तथा आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है।
स्वाबलम्बन का अर्थ- स्वाबलम्बन अथवा आत्मनिर्भरता का शाब्दिक अर्थ होता है ‘अपने आप पर निर्भर रहना’, या ‘अपने सहारे जीना’। जो व्यक्ति अनेक दुखों तथा कष्टों को सहकर भी प्रत्येक मुसीबत का सामना स्वयं करता है वही सच्चा स्वाबलम्बी होता है। स्वाबलम्बन ही विजय का प्रथम सोपान है क्योंकि ऐसा व्यक्ति हर कार्य स्वयं करने में विश्वास रखता है। वह जानता है कि उसे सब कुछ स्वयं ही करना है इसलिए वह अपना कार्य सही समय पर सही तरीके से करता है। स्वाबलम्बन का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने सामर्थ्य से अधिक कार्य करें और किसी की भी सहायता न ले। स्वाबलम्बन तो वह दैवीय गुण है, जिससे मनुष्य अपना कार्य स्वयं करने का प्रयत्न करता है और यदि जरूरत पड़ती है तो किसी और की मदद मांग लेता है। स्वावलम्बन से ही मनुष्य तथा पशु का अन्तर पता चलता है। पशु का जीवन, रहन-सहन, खान-पान सभी कुछ उसके स्वामी की इच्छा पर निर्भर करता है परन्तु आत्मनिर्भर मनुष्य किसी पर आश्रित नहीं होता । वह हर समय किसी का सहारा नहीं ढूँढ़ता।
स्वाबलम्बन की उपयोगिता- स्वाबलम्बन से मनुष्य को शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है। अनेक महापुरुषों ने स्वावलम्बन के महत्त्व पर विशेष जोर दिया है। मनुस्मृति में कहा गया है “जो व्यक्ति बैठा रहता है, उसका भाग्य भी उसके साथ बैठ जाता है, जो व्यक्ति अपना काम स्वयं करता है, भाग्य भी उसी का साथ देता है।” सच्चे आनन्द की अनुभूति काम करने से ही प्राप्त होती है। अपने बलबूते पर कार्य करके जब मनुष्य सफलता का स्वाद चखता है तो वह बहुत मीठा होता है, उसके हृदय का कण-कण मुस्कराने लगता है। उस आनन्द का वर्णन करना मुश्किल है। महात्मा गाँधी जी ने भी ठीक ही कहा है कि वही व्यक्ति सबसे अधिक दुखी रहता है जो दूसरों पर निर्भर होता है।
आत्मनिर्भर व्यक्ति वीर तथा संकल्पी होता है। वह हर मुसीबत में संघर्ष करता है तथा हर पग पर नए अनुभव प्राप्त करता है। वह चाहे सफल हो या असफल, सदा ही आदर तथा प्रशंसा का पात्र बनता है। ऐसे व्यक्ति दूसरों को भी मानसिक दृढ़ता, सहनशीलता व आत्मनिर्भरता की शिक्षा देते हैं।
स्वाबलम्बन से मनुष्य प्रगति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होता रहता है तथा हर सफलता ऐसे ही वीर पुरुष का वरण करती है जो स्वयं पृथ्वी को गहरे तक खोदकर, स्वयं पानी निकालकर अपनी तृष्णा शान्त करता है। स्वाबलम्बन से मनुष्य को यशप्राप्ति होती है। जिस व्यक्ति ने जीवन में काँटों की परवाह किए बिना कठोर परिश्रम से अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त की है, समाज भी उसी की प्रशंसा तथा आदर करता है। स्वावलम्बी व्यक्ति ही सही अर्थों में सुख-दुख का अन्तर जान पाता है, वही सुख-सुविधा का सही मूल्य आँक पाता है क्योंकि सफलता को उसने बड़ी मुश्किल से प्राप्त किया है इसीलिए वह उसे संभालकर रखता है। स्वाबलम्बन ही मनुष्य की जीवन-नैया की पतवार है, सच्चा पथ-प्रदर्शक, सच्चा आभूषण है। अंग्रेजी की कहावत, “God helps those, who help themselves” अर्थात् भगवान भी उसी की सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करता है, सौ फीसदी सत्य है ।
स्वाबलम्बी महापुरुषों के उदाहरण- हमारा इतिहास ऐसे स्वाबलम्बी पुरुषों है। स्वाबलम्बन के बल पर ही मैक्डानल एक श्रमिक से इंग्लैंड के प्रधानमन्त्री बने थे। ‘फोर्ड’ विश्व के सबसे धनी व्यक्ति बन पाए थे तथा स्वाबलम्बन की भावना से प्रेरित होकर ही कोलम्बस अमेरिका के समान एक महान द्वीप खोज पाए थे। भारत का इतिहास भी इस बात का गवाह है कि स्वाबलम्बन के बल पर सफलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। एकलव्य बिना किसी गुरु या साथी के जंगल में निशाने पर तीर चलाता रहा तथा आगे जाकर एक विश्व प्रसिद्ध धनुर्धारी बना। छत्रपति शिवाजी ने थोड़े से वीर मराठे सिपाहियों को लेकर औरंगजेब की बड़ी सेना पर धावा बोलकर तितर-बितर कर दिया था। निर्धन लालबहादुर शास्त्री स्वाबलम्बन के बल पर ही भारत के प्रधानमन्त्री बने थे। इन सबके अतिरिक्त ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, शंकराचार्य, स्वामी रामतीर्थ, महाकवि तुलसीदास, कालिदास आदि स्वाबलम्बन शक्ति के ही पर्याय हैं।
प्रकृति में भी हमें स्वाबलम्बन-भावना के दर्शन होते हैं। सूरज से प्रकाश तथा ताप, चन्द्रमा से रस तथा बादलों से जल प्राप्त कर पेड़ पौधे स्वयं ही बढ़ते जाते हैं, वे प्रकाश, ताप, जल या रस के लिए सूर्य, चन्द्रमा या बादलों से प्रार्थना नहीं करते।
उपसंहार- स्वाबलम्बी व्यक्ति के अदम्य साहस तथा शक्ति के विषय में कवि ‘हरिऔध’ ने ठीक ही कहा है-
“पर्वतों को काटकर सड़के बना देते हैं वह,
सैकड़ों मरुभूमि में नदियाँ बहा देते हैं वह।
आज जो करना है, कर देते उसको आज ही
सोचते, कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वहीं।”
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि लाड-प्यार, मोह माया, अंधविश्वास, आलस्य, भाग्यवादी दृष्टिकोण आदि बाधाएँ स्वाबलम्बी को आगे बढ़ने से नहीं रोक सकती। ये मायाजाल तो आलसी तथा गैरनिर्भर व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। स्वाबलम्बी व्यक्ति तो अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए अथक प्रयास करता हुआ आगे बढ़ता हैं।
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