सांस्कृतिक विरासत
सांस्कृतिक विरासत का तात्पर्य हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति, सभ्यता तथा प्राचीन परम्पराओं से जो आदर्श हमें प्राप्त हुए हैं, जिनको आज भी हम उन्हीं रूपों में थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ अपनाते चले आ रहे हैं।
हमारी भारतीय संस्कृति विश्व की एकमात्र ऐसी संस्कृति रही है जोकि लोक कल्याण तथा वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धान्त को आधार मानकर व्यक्ति एवं समाज का कल्याण करती रही है। पुरुषार्थ भारतीय जीवन एवं हिन्दी दर्शन का एक अति प्रमुख तत्व सदैव से रहा है। भारतीय दर्शन ने चार पुरुषार्थो-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का वर्णन किया है। कर्म का सिद्धान्त, धार्मिक तथा आध्यात्मिक आचरण, वर्ण व्यवस्था, संयुक्त परिवार, अतिथि सात्कार, त्याग संयम, पुनर्जन्म, प्राचीन रीति-रिवाज तथा परम्पराएँ, खान-पान, पहनावा, बोली भाषा, ऐतिहासिक धरोहरें इत्यादि हमारी सांस्कृतिक विरासत की प्राचीनता तथा महत्व का परिचय देती हैं।
सांस्कृतिक विरासत का शिक्षा से सम्बन्ध-
शिक्षा तथा संस्कृति का अटूट सम्बन्ध है। हमारी संस्कृति तथा उसकी विरासत को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाने तथा उसका संरक्षण करने का कार्य शिक्षा के द्वारा ही किया जाता रहा है। हमारे शिक्षा के केन्द्र अर्थात् विद्यालय स्वयं सांस्कृतिक विरासत का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। यद्यपि आधुनिकता के कारण तथा पाश्चात्य प्रभाव के कारण हमने अपने शिक्षा केन्द्रों के प्राचीनतम स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन कर लिया है तथापि शिक्षा की प्रक्रिया के महत्वपूण अंग के रूप में आज भी गुरु तथा शिष्य की उपस्थिति अनिवार्य बनी हुई है। सांस्कृतिक विरासत तथा शिक्षा के सम्बन्ध को निम्न बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट कर सकते हैं-
1. शिक्षा हमारी सांस्कृतिक विरासत को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करती है।
2. शिक्षा के द्वारा हम आज भी अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्य बनाए हुए है।
3. हमारी सांस्कृतिक विरासत का प्रभाव व्यक्तित्व निर्माण पर पड़ सकता है।
4. शिक्षा हमारी प्राचीन सांस्कृति की मूल धारणा के साथ कोई छोड-छाड़ नहीं करके उसको और अधिक समृद्धि प्रदान कर रही है।
5. हमने आदिकाल से आज तक विभिन्न विषयों का जो ज्ञान अर्जित किया है वह हमारी प्राची सांस्कृतिक विरासत का ही अंग है।
6. गुरु-शिष्य परम्परा, अतिथि सत्कार, संयुक्त परिवार, संयम तथा त्याग, विश्वबन्धुत्व के महत्व को आज भी शिक्षा के द्वारा एक स्वतन्त्र विषय के रूप में पढ़ते तथा पढ़ाते चले आ परोपकार रहे है।
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