शारीरिक शिक्षा / Physical education

त्याग (Renunciation)

त्याग का अर्थ क्या है? What is Renunciation
त्याग का अर्थ क्या है? What is Renunciation

त्याग का अर्थ क्या है? What is Renunciation

 त्याग (Renunciation)

त्याग (Renunciation)- शिक्षा के दो महान् उद्देश्य होते हैं- एक तो वह बालक में त्याग के गुण को समाहित करे और दूसरे, उसे सेवा की भावना सिखाए। भोग से त्याग कहीं श्रेयस्कर है। त्याग से मन की परिशुद्धि होती है। त्याग का अर्थ है कि मनुष्य की सामर्थ्य में जो है, उसे दूसरे के हित में लगा दे। इन्द्रियों को सन्तुष्ट करने वाले सुख एक दिन छोड़ने ही पड़ते हैं। आयु के साथ-साथ भोग करने की क्षमताएँ शिथिल होती जाती हैं। इसी भाँति, संसार की सभी वस्तुएँ नाशवान हैं। उनका मोह क्या करना? मनुष्य के अधिकार में जो कुछ भी है, उसे किसी व्यापक लक्ष्य के लिए समर्पित कर देना ही त्याग है। जो तुम्हारे पास है ही नहीं, उसका तुम त्याग कैसे करोगे? वह तो त्याग का दिखावा होगा, त्याग नहीं। त्याग से ही आत्म-सन्तुष्टि सम्भव है, संग्रह से नहीं।

एक अत्यधिक धनी सेठ हुए हैं। उनके पास बहुत धन-धान्य था। वे दानी भी बहुत थे। एक दिन उनकी एक महात्मा से भेंट हुई। सेठ ने देखा कि महात्मा जी के पास सिवाय जीर्ण-शीर्ण पहने हुए कपड़ों के अलावा अन्य कपड़े नहीं हैं। सेठ जी ने उन्हें कुछ कपड़े देना चाहा। महात्मा जी ने कहा- “मैं तो अपने पास बस उतनी ही चीजें रखता हूँ जिनके अभाव से मेरा काम नहीं चल सकता। अभी तो मेरे कपड़े चल रहे हैं। मैं और कपड़ों का बोझ नहीं बाँध सकता। जब ये कपड़े नहीं रहेंगे, तब ईश्वर उनका भी इन्तजाम कर देंगे।” सेठ जी ने फिर भी प्रार्थना की कि “महाराज ! ये कपड़े रख लीजिए। आपके पास तो बहुत लोग आते रहते हैं। किसी जरूरतमन्द को दे दीजियेगा।”

महात्मा ने उत्तर दिया- “ये तो कोई बुद्धिमानी की बात न हुई कि पहले अपनी आवश्यकता से अधिक चीजें इकट्ठा करो और फिर उसे दान करो।” सेठ जी की आँखें भर आयीं। उसने कहा- “महाराज ! आप ठीक कहते हैं। ईश्वर सबको देता है। आप सचमुच महान् त्यागी हैं। आपका जीवन धन्य है।”

महात्मा ने कहा- “नहीं, सेठ जी ! मुझसे ज्यादा त्यागी तो तुम हो। मैंने तो सिर्फ सांसारिक और नाशवान् वस्तुओं को त्यागा है लेकिन तुमने तो उन चीजों को त्याग दिया है जो अलौकिक, चिरशाश्वत् तथा अविनाशी हैं। जिनका कोई मूल्य नहीं है और जो सर्वदा दुर्लभ हैं। सच ही तुम मेरे से कहीं बड़े त्यागी हो।” इस भेदभरी बात को सुन सेठ जी की आँखें खुल गयीं। उसका जीवन ही बदल गया। उसे आज पता लगा कि वह तो कंकर-पत्थर इकट्ठे कर रहा था और उस संग्रह के दौरान हीरे-मोती उससे छूटते जा रहे हैं।

यह भी ध्यान रखना चाहिए कि त्याग करते समय उससे कोई लाभ उठाने की इच्छा न हो, अन्यथा त्याग निष्फल हो जाता है, वह तो लालच से किया गया कर्म बन जाता है। जैसा कि एक उस सेठ के साथ हुआ जिसका धन ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता था त्यों-त्यों उसकी धन के लिए लालसा और भी बढ़ती जाती थी। वह कंजूस भी बहुत था। दान करने या किसी की मदद करने में उसे विश्वास नहीं था।

एक दिन उसके यहाँ एक साधु आया। उसने कहा-“एक पैसा दान करेंगे, मोहर मिलेगी।” सेठ को भी जाने क्या सूझा ? एक पैसा उसकी झोली में डाल दिया लेकिन सुखद आश्चर्य; कि शाम को ही उसे एक मोहर प्राप्त हुई। वह तो खुशी से उछलने लगा, उसे साधु की बात याद आयी और पछताने लगा कि काश ! उसने मोहर दान दी होती तो कितना लाभ मिलता? वह पुन: साधु के आने की प्रतीक्षा करने लगा। अगले दिन साधु फिर आया। सेठ ने झट उसकी झोली में एक मोहर डाल दी। शाम ढली और रात भी आ गयी पर मोहरें नहीं आयीं। अब तो वह रोने लगा कि हाथ में आयी मोहर भी जाती रही। तभी उसकी अन्तआत्मा में आवाज गूंजी-“त्याग फलता है, लोभ छलता है।”

त्याग करते समय अहंकार का भाव भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि ईश्वर ने त्याग करने का सामर्थ्य अपनी करुणा से दिया है। यदि हम किसी को कुछ दे रहे हैं तो फिर उसमें अभिमान या अहंकार कैसा ?

एक स्वाभिमानी भिखारी था, जो एक नगर में गंगा के किनारे अपने सामने एक कटोरा रखकर चुपचाप बैठा रहता था। न वह किसी के सामने हाथ फैलाता, न गिड़गिड़ाता। जो जिसने कटोरे में डाल दिया, वह उसी से सन्तुष्ट हो जाता। एक दिन एक आदमी जिसका भारी-भरकम शरीर था, बढ़िया कपड़े पहने था, हाथ में अँगूठी व गले में सोने की जंजीर थी, उसके सामने से गुजरा। भिखारी ने उसकी ओर कटोरा बढ़ाया। उस आदमी के चेहरे पर तिरस्कार के भाव आये फिर भी उसने एक रुपये का एक सिक्का निकालकर उस भिखारी के सामने जमीन पर फेंक दिया और आगे बढ़ चला। तभी भिखारी ने उसकी तरफ सिक्का फेंकते हुए कहा कि मुझे तुम्हारा सिक्का नहीं चाहिए। तुम मुझसे भी गरीब हो। यह सिक्का देते हुए तुम्हारा मन दुःख रहा है। फिर भी अहंकार की तुष्टि के लिए मुझे तिरस्कृत कर त्याग का पाखण्ड कर रहे हो।

सचमुच भिखारी की बात सुनकर वह आदमी क्षणभर के लिए हतप्रभ रह गया। उसे अपने मस्तिष्क में कहीं पड़ी हुई यह बात याद आयी कि जिस दान या त्याग के साथ दान देने वाला अपने अभिमान को नहीं देता, वह त्याग व्यर्थ है। ऐसा दानदाता तो असीम सम्पत्ति होते हुए भी कंगाल है। वह दाता नहीं याचक है और अपने अहम् की सन्तुष्टि माँग रहा है।

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