शारीरिक शिक्षा / Physical education

श्रद्धा का अर्थ | Meaning of Veneration in Hindi

श्रद्धा का अर्थ | Meaning of Veneration

श्रद्धा का अर्थ | Meaning of Veneration

श्रद्धा का अर्थ | Meaning of Veneration

 श्रद्धा (Veneration)

श्रद्धा का अर्थ- श्रद्धा में विश्वास एवं सम्मान का तत्त्व निहित है। शब्द-रचना की दृष्टि से यह शब्द ‘श्रत् + धा’ से मिलकर बना है; अर्थात् श्रुत् +धा = श्रद्धा। अत: यह सत्यानुश्रयी है। अभिप्राय यह है कि किसी भी व्यक्ति या वस्तु जिसे हम सत्य समझें, जिस पर विश्वास करें और जिसका हम सम्मान करें, वह हमारी श्रद्धा का पात्र है। मनुष्य के जीवन में यह आवश्यक है कि वह जिस व्यक्ति से कुछ भी सीखता है, पथ-निर्देशन प्राप्त करता है, उसके प्रति श्रद्धा रखी जानी चाहिए। बिना श्रद्धा के ज्ञान प्राप्त करना सम्भव नहीं है। इतना ही नहीं, कार्यसिद्धि के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य जिसकी ओर मार्गदर्शन के लिए जाये, उसके प्रति श्रद्धा रखे। इसके अलावा जो काम हम करने जा रहे हैं उस काम अर्थात् अपने लक्ष्य के प्रति भी यह भाव होना चाहिए कि वह सत्कर्म है, अच्छा काम है; इसलिए हम उस काम का भी सम्मान करते हैं। लक्ष्य की प्राप्ति की सफलता के लिए श्रद्धा एक अनिवार्य शर्त है।

प्रसिद्ध एवं वरिष्ठ साहित्यकार यशपाल जैन ने अपना एक संस्मरण लिखा है जो श्रद्धा में निहित बल को स्पष्ट करता है। उन्होंने लिखा है कि एक बार वे अपने साथियों के साथ उत्तराखण्ड की यात्रा पर गये थे। वहाँ के महान् तीर्थ केदारनाथ के दर्शन के बाद बदरीनाथ की ओर जा रहे थे। रास्ते में एक पावन तीर्थ तुंगनाथ पड़ता है, जो उत्तराखण्ड में सबसे ऊँचे पर्वत शिखर पर स्थित है। चढ़ाई बहुत दुर्गम है, इसलिए प्रायः यात्री वहाँ नहीं जाते। फिर भी, उनके कुछ साथियों ने तुंगनाथ के दर्शन करने का निश्चय किया। यशपाल जी उस यात्रा का वर्णन इस भाँति करते हैं- “सचमुच चढ़ाई बड़ी विकट थी। एक-एक कदम पर साँस फूलती थी। शुरू में चीड़, देवदार तथा लता-गुल्मों की हरियाली और भाँति-भाँति के फूलों के कारण रास्ता अखरा नहीं, किन्तु आगे चलकर प्रकृति ने अपना वैभव समेट लिया और सामने सपाट पर्वत थे। हमारे पैर एक-एक मन के हो गये। चढ़ाई काफी शेष थी और हममें से प्रायः सभी का दम जैसे टूट रहा था। तभी देखते क्या हैं कि एक बहुत ही दुबला-पतला बूढ़ा हाथ से लाठी को टेकता, प्रकृति को चुनौती देता आगे चला जा रहा है, चला जा रहा है, कमर उसकी झुकी थी, टाँगें बेहद दुबली थीं। उसके पास पहुँचने पर हमने उसे नमस्कार किया, फिर पूछा, क्यों बाबा, कितनी उम्र के हो ?

बड़े ही सधे हुए स्वर में कहा, “भैया, बहत्तर से कुछ ऊपर हूँ।” आगे हम कुछ कहते कि वह बोला, “तीसरी बार तुंगनाथ के दर्शन करने जा रहा हूँ। भगवान ने जिन्दा रखा तो फिर आऊँगा।” हमारे पैरों को जैसे किसी ने अनजाने में नई शक्ति से भर दिया। उस वृद्ध के आत्मविश्वास और श्रद्धा से तुंगनाथ की वह दूरी इतनी सुगम हो गयी कि हमें मालूम ही नहीं पड़ा।”

सचमुच ही, श्रद्धा से तो विष भी अमृत हो जाता है। अपने अन्तिम समय में स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस गले के कैंसर से अत्यधिक पीड़ा पा रहे थे। खाँसी के साथ मुँह से रक्त भी आ जाता था। एक दिन अपराह्न में, विवेकानन्द दर्शन हेतु श्री रामकृष्ण परमहंस के समीप जा रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि दरवाजे से उनका एक गुरु भाई उगालदान (थूकने का कटोरा) हाथ में लिए बाहर आ रहा है। उन्होंने गुरुदेव के स्वास्थ्य के विषय में पूछा। उत्तर मिला— “गुरुदेव की तबीयत बहुत खराब हो गयी है। गले से काफी खून आ रहा है।, उसी को फेंकने बाहर जा रहा हूँ।”, विवेकानन्द ने कहा-“अरे ठहरो! क्या करते हो?” उन्होंने लपककर उसके हाथ से उगालदान ले लिया और अपने साथी को रोकते-रोकते गुरुदेव के सब उगाल को गट-गट पी गये। मानो उसी के साथ गुरु की सम्पूर्ण प्राण-शक्ति उनमें समा गयी हो। श्री रामकृष्ण परमहंस ने जब यह सुना तो उनकी आँखों से अश्रु छलक पड़े। विवेकानन्द का कुछ नहीं बिगड़ा। उन्हें तो महान् कार्य करने थे। गुरु के सन्देश की ज्योति के प्रकाश को समस्त संसार में फैलाना था। स्वामी विवेकानन्द श्रद्धा की जीवन्त प्रतिमा के रूप में मानव के इतिहास में सदा-सदा के लिए अमर हो गये।

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