सत्य (Truth)
सत्य (Truth) की महिमा का सभी महापुरुषों ने वर्णन किया है। मानव-जाति के सभी मनीषी सत्य के आचरण पर जोर देते रहे हैं। सत्य, भारतीय संस्कृति का आधार स्तम्भ रहा है। महात्मा गाँधी के लिए सत्य ही ईश्वर है। सत्यवादी हरिश्चद्र और धर्मराज युधिष्ठिर दोनों ही सत्य का सिम्बल लेकर इतिहास में अमर हो गये। वास्तव में, जो सत्य को अपने आचरण में ढाल लेता है, उसका जीवन सरल और सहज हो जाता है। जो व्यक्ति झूठ का अर्थात् असत्य का आचरण करता है वह अपनी निगाहों में स्वयं ही गिर जाता है। एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ और बोलने पड़ते हैं। आदमी झूठ के इस चक्रव्यूह से कभी नकिल नहीं पाता। महात्मा गाँधी कहा करते थे, “जो हमेशा सत्य के पथ पर चलता है, वह कभी गिरता नहीं है।” यह सत्य के पथ पर चलते हुए मृत्यु भी मिले तो कोई बात नहीं; क्योंकि ऐसे बलिदान से आगे आने वाली पीढ़ियों को गर्व की अनुभूति होती है और बलिदान करने की शक्ति और प्रेरणा मिलती है। सत्य का आचरण मन, वचन और कर्म तीनों में ही अभिव्यक्त होना चाहिए। असत्य से प्राप्त ज्ञान, धन, यश कुछ भी हो, कभी भी स्थायी नहीं होता। झूठ की पोल तो खुल ही जाती है और मनुष्य सदा अपयश का भागी हो जाता है।
हस्तिनापुर के राजकुमार कौरव-पाण्डवों को एक दिन गुरुदेव द्रोणाचार्य ने पाठ पढ़ाते हुए कहा, “क्रोध कभी नहीं करना चाहिए और सदा सच बोलना चाहिए।’ गुरुदेव ने सभी शिष्यों को आदेश दिया कि वे इस सीख को करें। अगले दिन गुरुदेव ने सभी राजकुमारों से पिछले दिन का पाठ सुनाने को कहा। युधिष्ठिर के अलावा सभी राजकुमारों ने पाठ दोहरा दिया-“क्रोध कभी नहीं करना चाहिए और सदा सच बोलना चाहिए।” गुरुदेव ने युधिष्ठिर से पूछा-“तुमने पाठ क्यों नहीं सुनाया ?” विनम्र भाव से बालक युधिष्ठिर ने जवाब दिया, “गुरुदेव मुझे अभी यह पाठ अच्छी तरह याद नहीं हुआ।” गुरुदेव ने आदेश दिया, “कोई बात नहीं कल सुना देना।”
अगले दिन गुरुदेव के पूछने पर युधिष्ठिर ने फिर वही उत्तर दिया। ऐसे ही यह क्रम एक सप्ताह तक चलता रहा। आठवें दिन जब वही पुनरावृत्ति हुई तो, गुरुदेव को बहुत क्रोध आया और उन्होंने युधिष्ठिर को छड़ी से पीटना आरम्भ किया और कहा-“मूर्ख! तुझे इतना-सा पाठ याद क्यों नहीं होता ?” तभी उनकी निगाह युधिष्ठिर पर पड़ी। वह तो इतनी मार खाने के बाद भी पूर्ववत् शान्त व अविचलित खड़ा था। गुरुदेव विस्मित हुए और प्रश्न भरी निगाह से उसे देखा, ऐसा क्यों ? बालक युधिष्ठिर बोला—“गुरुदेव आप मुझे मार रहे थे और मैं स्वयं को परख रहा था कि मार खाने के बाद भी मुझे क्रोध आता है या नहीं? सचमुच मुझे तनिक भी क्रोध नहीं आया। तब मुझे लगा कि पाठ का पहला भाग मुझे याद है। किन्तु इसका दूसरा भाग कि सदा सत्य बोलना चाहिए का अभ्यास अभी मैं कर रहा हूँ। अभ्यास हो जाने पर वह भी सुना दूंगा।” गुरुदेव की आँखों में आँसू छलक आये। उन्होंने युधिष्ठिर को अपने गले से लगा लिया और अपने शिष्यों से बोले, “पुत्रों, तुम सबने पाठ सुनाया, पर वह केवल वाणी ने ग्रहण किया। मन और कर्म द्वारा ग्रहण करना अभी शेष रह गया है। जब तक मन, वचन और कर्म से ज्ञान ग्रहण न हो तब तक वह स्थायी नहीं रहता।” युधिष्ठिर ने सचमुच ही जब तक पाठ को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर लिया तब तक उसने नहीं कहा कि उसने पाठ याद कर लिया। गुरुदेव को विश्वास हो गया कि बालक आगे चलकर महान् बनेगा। गुरुदेव का विश्वास पूरा हुआ और युधिष्ठिर धर्मराज के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
इसी भाँति बहुत दिन हुए एक सत्यप्रिय न्यायशील और दयावान राजा अपनी प्रजा से बहुत प्रेम करता था और सदैव उसके कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहता था। एक बार उसने घोषणा की कि यदि किसी की कोई चीज बाजार में न बिके तो वह बची हई चीज राजा के पास ले आये ओर राजा उसे स्वयं खरीद लेगा।।
एक दिन ऐसा संयोग हुआ कि एक व्यक्ति शनि की मूर्ति बाजार में बेचने के लिए लाया। किसी ने उसे नहीं खरीदा। भला कौन शनि को अपने घर में लाये। वह शाम को राजा के पास ले गया। वचन के पक्के राजा ने शनि की उस मूर्ति को खरीद लिया और उसे अपने महल में रख लिया। उसी रात राजा को स्पप्न में एक स्वर्णमयी देवी स्वरूपा स्त्री दिखाई दी। राजा ने पूछा-‘तुम कौन हो देवी ?’ वह बोली-“राजन मैं लक्ष्मी हूँ। तुमने शनि को अपने यहाँ विराजमान कर दिया है। अब मैं तुम्हारे राज्य से जा रही हूँ। राजा ने कहा-“मैंने तो अपने वचन का पालन किया है। सत्य का निर्वहन किया है। तुम जाना चाहती हो तो, चली जाओ, मैं अपना वचन नहीं तोडूंगा।” और लक्ष्मी चली गयी। थोड़ी देर बाद दूसरा स्वप्न शुरू हुआ, एक और पुरुष-मूर्ति सामने आकर खड़ी हो गयी। राजा ने प्रश्न किया- कौन हैं आप?” उत्तर मिला—’मैं धर्म हूँ। जहाँ शनि रहता है, वहाँ मैं नहीं रहता। मैं तुम्हारे राज्य से जा रहा हूँ।” राजा ने धर्म को भी वही कहा जो लक्ष्मी से कहा था। और थोड़ी रात बीती। स्वप्न फिर प्रारम्भ हुआ। एक और देवपुरुष स्वप्न में आये। राजा ने उनसे भी परिचय पूछा, उन्होंने कहा- “मैं सत्य हूँ। तुम्हारे द्वारा शनि को आश्रय दिये जाने के कारण मैं जा रहा हूँ।” इस बार राजा ने आगे बढ़कर उस देव-मूर्ति को पकड़ लिया और कहा-“मैं आपको नहीं जाने दूंगा। आपके ही लिए तो मैंने लक्ष्मी छोड़ी, धर्म को जाने दिया। अब आप मुझे छोड़कर कैसे जा सकते हैं।” और सत्यदेव राजा को छोड़कर न जा सके। उनके वहीं रह जाने से देवी लक्ष्मी और धर्मदेव को भी राजा के पास लौटना पड़ा; क्योंकि जहाँ सत्य का वास होता है वहीं लक्ष्मी और धर्म का भी वास होता है।
अन्त में यह भी ध्यान रखने योग्य है कि जो आदमी झूठ बोलता है वह दूसरों में अपना विश्वास खो बैठता है। यह कहानी सर्वविदित है कि एक बालक शैतानी में लोगों को हैरान और परेशान करने के लिए ‘भेड़िया आया, भेड़िया आया’ कहकर चिल्लाता था। कई बार लोग दौड़कर आये और मूर्ख बन गये। एक दिन सचमुच ही भेड़िया आ गया। लड़का बहुत चिल्लाया, ‘बचाओ-बचाओ, भेडिया आया, भेडिया आया’ लेकिन इस बार कोई उसकी मदद को नहीं आया। सबने सोचा, लड़का पहले की तरह उन्हें परेशान करना चाहता है। उसने लोगों का विश्वास खो दिया था। भेड़िये ने उसे मार डाला और खा गया। वास्तव में तो बालक के झूठ ने ही उसे मार डाला था।
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