शारीरिक शिक्षा / Physical education

आज्ञा-पालन (Obedience)

आज्ञा-पालन (Obedience)

आज्ञा-पालन (Obedience)

आज्ञा-पालन का अर्थ | Meaning of Obedience

आज्ञा-पालन का अर्थ- मनुष्य के चरित्र का एक महान् गुण आज्ञापालन भी है। इससे व्यक्ति में नैतिक बल बढ़ता है। जो आज्ञापालन करना जानता है वह ही वास्तव में आज्ञा देना अथवा पालन कराना भी जानता है। कुछ दुष्टप्रवृत्ति के लोग आज्ञाकारिता को दासवृत्ति समझते हैं।

ऐसा समझना एक भयंकर भूल है। सामाजिक जीवन में सुगमता, सामंजस्य और निरन्तरता को बनाये रखने में आज्ञाकारिता एक अनिवार्य तत्त्व के रूप में है। विद्यार्थी जीवन में ही इस गुण का विकास होता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि जब व्यक्तियों ने अपने प्राणों की कीमत पर भी आज्ञा का पालन किया है। किसी भी देश का रक्षातन्त्र तो आज्ञापालन के गुण ही पर ही टिका है। दुश्मन की तरफ से बरसते हुए गोलों के सम्मुख भी आगे बढ़ने का आदेश मिलते ही वीर सैनिक परिणाम की परवाह किये बिना आगे बढ़ते हैं। यदि सुरक्षा सेनाओं में आज्ञापालन का गुण न हो तो राष्ट्र की अस्मिता तथा स्वतन्त्रता को बनाये रखना असम्भव हो जायेगा। माता-पिता, शिक्षक और अपने से बड़ों की आज्ञा का सहज रूप में पालन करना चाहिए; क्योकि वे जो भी आज्ञा देंगे वह तुम्हारे हित में ही देंगे। उनकी आज्ञा का उल्लंघन करने से तुम्हारी निश्चित ही हानि होगी।

आज्ञापालन का सबसे बड़ा उदाहरण भगवान राम का है। उनके राजतिलक की घोषणा हो चुकी थी और तैयारियां चल रही थीं। तभी महाराज दशरथ ने महारानी कैकेयी को दिये गये वचनों का पालन करते राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास की आज्ञा दी। भगवान राम ने तुरन्त अपने पिता राजा दशरथ के आदेश का पालन किया। पलमात्र के लिए भी कोई संकोच मन में नहीं हुआ। सिर पर राजमुकुट हो या तन पर तापस वेश, कोई भेद ही नहीं था। तभी तो वे भगवान कहलाये और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में आज भी जनमानस के आराध्य तथा प्रेरणा के स्रोत हैं।

इसी भाँति, महाभारत सामाजिक आदर्शों का महाकाव्य है। कौरव-पाण्डव राजकुमारों के गुरु द्रोणाचार्य ने भील बालक एकलव्य को शिष्य के रूप में स्वीकार करने से मना कर दिया था, किन्तु एकलव्य की उन पर श्रद्धा थी। उसने वन में जाकर गुरुदेव द्रोण की प्रतिमा स्थापित की और उनको शीश नवाकर प्रतिदिन बाण-सन्धान का अभ्यास किया। वह अद्भुत धनुर्धर हो गया। एक दिन अर्जुन शिकार के पीछे वन में जा पहुँचे, जहाँ उन्होंने एक जंगली और भयानक कुत्ते को देखा और उसका पीछा किया। इससे पूर्व कि वे उस पर तीर चलाते, उन्होंने देखा कि किसी धनुर्धर ने पलक झपकते ही कुत्ते का खुला मुँह तीरों से भर दिया। उन्होंने उस धनुर्धर का परिचय जानना चाहा। उन्हें यह आश्चर्य हुआ कि उस धनुर्धर ने अपना परिचय द्रोण के शिष्य रूप में दिया और अपना नाम एकलव्य बताया। अर्जुन के मन में विचारों की भीड़ उमड़ आयी। क्या गुरुदेव राजकुमारों से अलग छिपकर किसी अन्य को भी धनुर्विद्या सिखा रहे हैं ? वन से लौटकर अर्जुन ने गुरुदेव को यह घटना बतायी तो वे भी आश्चर्यचकित रह गये; क्योंकि उन्होंने तो किसी एकलव्य नाम के शिष्य को शिक्षा ही नहीं दी थी। जिज्ञासावश वे अर्जुन के साथ वन में एकलव्य के पास पहुंचे। सचमुच ही, उनकी मूर्ति स्थापित कर एकलव्य धनुर्साधना में मग्न था। उसकी श्रद्धा, शब्दाभिव्यक्ति से परे थी। उन्होंने एकलव्य से पूछा कि यदि वह उन्हें गुरु मानता है तो क्या उन्हें गुरु-दक्षिणा भी देने को तत्पर है। एकलव्य तो उन्हें सम्मुख देख और उनकी प्रशंसा पाकर स्वयं को धन्य मानकर आत्मविभोर हो उठा था। उसने हाथ जोड़कर विनय की-“गुरुदेव आज्ञा दीजिये। आप जो गुरु-दक्षिणा चाहें, ले सकते हैं।” दी-“क्या तुम मुझे अपने दाहिने हाथ का अंगूठा गुरु-दक्षिणा में दे सकते हो?’ एकलव्य ने पलभर भी विलम्ब नहीं किया। कमर पर लटकती कटार निकाली और तत्काल अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरु के चरणों में अर्पित कर दिया। धन्य है एकलव्य ! अद्भुत है उसकी गुरु-भक्ति और आज्ञापालन! इतिहास में आज्ञापालन का ऐसा कोई अन्य दृष्टान्त नहीं मिलता।

बड़ों की आज्ञा न मानने से हानि होती है, किन्तु कुछ लोग चोट खाकर ही बात सीखते हैं। एक बार बैशाखी का दिन था। मोहन और सोहन अपनी माँ के साथ गगा-स्नान के लिए गये। माँ ने रास्ते में ही समझाया कि पानी से कोई खिलवाड़ न करना; क्योंकि वे तैरना नहीं जानते, इसलिए डूबने का खतरा हो सकता है। जब वे दोनों भाई गंगातट पर पहुंचे तो उत्साह में बहुत उतावले थे। माँ कपड़े व्यवस्थित कर रही थी कि उन्होंने कपड़े उतार दिये और गंगा में नहाने के लिए घुस गये। माँ चिल्लाती रही कि ठहरो! मैं आ रही हूँ। पानी में आगे न बढ़ना। मोहन तो ठिठक गया लेकिन सोहन बड़ा होने के नाते और आगे बढ़ गया। पानी का बहाव तेज था। उसके पाँव उखड़ गये और वह बहाव के साथ बहने लगा। माँ शोर मचाने लगी। कई तैराक नदी में कूद पड़े। बड़ी मुश्किल में आगे जाकर उसे बाहर निकालकर लाये। वह बेहोश था और अधिक पानी मुँह के अन्दर चले जाने से उसका पेट फूल गया था। ईश्वर की कृपा थी कि वह दो दिन के उपचार के बाद होश में आ गया। उसने अपने मन में प्रण किया कि वह भविष्य में कभी भी बड़ों की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेगा।

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